9/24/2010

अरे मोरे बचवा,होना तो जाने क्या क्या चहिये थे

क्या क्या होते और कितना होते?इतने होते जितना खुद को न समझ सके और इतने जितना आपने न समझा ,जितना आपने देखा उतना भी हुये और उससे ज़्यादा भी और खुद के देखे खुद के बाहर भी हुये

ऐसा कहते उसकी कंठ एक पल को थरथराई पर आवाज़ एक सम पर आकर अब रुकना चाहती है का उदास संगीत भी बजा गई ।

हमारे दायरे में जितने लोग आये हम उतने उतने भी हुये ,उनके देखे जितने हुये ,उनके देखे के बाहर भी हुये और उनके देखने में खुद को देखते , और भी हुये । तो ऐसे हम हुये कि एक न हुये , जाने कितने हुये

होना कितनी तकलीफ को कँधों पर टिकाये घूमना है । सोते हुये सपने देखना है और उससे भी ज़्यादा जागे हुये देखना है । बिलास इतना तो जानता है , कई बार इसके आगे भी जानता है लेकिन सब जाना हुआ सब बताया जाये ऐसा ज़रूरी तो नहीं ।

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये । है न ?

इस बार उसकी आवाज़ में पहाड़ी तराई में घुमक्कड़ भेड़ों के झुँड की टुनटान घँटी थी ।

बिलास ने कुछ नहीं कहा था । उसका कुछ कहना लाजिमी नहीं था । सिर्फ सुनना लाजिमी था । शायद सुनना भी नहीं था । सिर्फ होना ज़रूरी था । ठंडी रात में किसी का होना सिर्फ ।
शीशे पर अँधेरा डोल रहा था । उसकी आवाज़ किसी गुफा से निकलती थी ,जिसमें मर्मांतक टीस की रेखा थी । बीच रात इस प्रश्न का क्या जवाब हो सकता था ?

मेरे पास ऐसी बातों को सहेजने के औजार नहीं । बिलास अपने मन के कोने पर एक उँगली रखता देखता है । मैं कहीं और चला आया हूँ , तुम तक नहीं हूँ ।

उसकी पतली देह सतर सीधी आगे पीछे डोलती है । उसके कँधे थरथराते हैं । वो दोहराती है

आपको मैंने अपने सब सपने सुनाये , है न , वो भी जो मैंने अबतक देखे नहीं

बिलास के सपने से बाहर निकलते देखती है खुद को और इस देखने में खुद से बहुत बड़ी हो जाती है । कितना मैं होना चाहती हूँ , तुम्हारे देखे के भी आगे कितना कितना कितना


ऐनी आपा किताब की एक पंक्ति से हुलक कर निकलती हैं कहती हैं ,बस इतनी कहानी ,मोरे बचवा होना तो जाने क्या क्या चाहिये था ?

( बैम्बू पर रंगाई के मज़े के साथ किसी होने न होने वाली किताब का बीज गोकि ये मेरी पूरी अपनी नहीं है कुछ बहुत कुछ बी एस साहब की भी है )

5 comments:

अनिल कान्त said...

हम दायरे में भी हुए, बाहर भी, कहानी में भी, बिन कहानी भी....उतना जितना हुआ जाता और जितना न भी हुआ जाता....सपनों में बहके और बैम्बू पर रपटे....ऐनी आपा को किताब की पंक्ति से हुलक कर निकलते देख चौंके

Anonymous said...

jaaree....???!!

प्रवीण पाण्डेय said...

प्ररम्भिक पंक्तियाँ पढ़ मन वहीं ठहर गया। इतना प्रभाव, बहुत समय हो गया, मन पर नहीं पड़ा है।

कुश said...

melodious post..!!

वर्षा said...

हां उन तमान होने, न होने के बीच इन पंक्तियों का होना अच्छा लगा