हुस्नआरा का हुस्न देखने लायक था । रसूल यों ही नहीं जाँनिसार हुये जाते थे । हुक्का गुड़गुड़ाते अपनी नमाज़ी टोपी सिरहाने सहेजते मिची आँखों से नीम के पत्तों का सहन में गिरना देखते । लम्बी दोपहरी होती , बहुत बहुत लम्बी । इतनी कि साँझ का इंतज़ार करना पड़ता । इतनी कि ऊब छतों की बल्लियों से चमगादड़ जैसी उलटी लटकती पूछती , बाबू अब और क्या ?
लम्बी और ऊब उकताहट भरी दोपहरी जिसका एक एक लमहा इतना खिंचता कि एक साँस फिर दूसरी गिननी पड़ती । वक्त जब बीतता तब न बीतता हुआ दिखता और बीत जाने के बाद एक अजब से स्वाद के साथ वापस आता ।
रसूल कहते , उन दिनों की बात है जब दिन लम्बे हुआ करते थे , खूब लम्बे , भूतिया कहानी वाले लम्बे हाथ की तरह लम्बे .. हुस्नआरा तिनक कर कहतीं , तुम्हारी बात जितनी लम्बी ? हाथी के पूँछ जितनी लम्बी ? या फूलगेंदवा के हनुमान जी की पूँछ जैसी ?
रसूल अपनी दाढ़ी खुजाते हँस पड़ते । पर होता था एक वक्त दिन ऐसा । कूँये के पास वाली मिट्टी में पुदीना हरहरा कर उगता। मेंहदी की झाड़ के साये में गौरेया फुदकती , लोटे की टपकती टोंटी से चोंच सटाये दो बून्द पानी तर गला करती ..ऐसी लम्बी बेकाम की दोपहरी ।
छत पर चढ़े कोंहड़े के बेल से सुगन्ध फूटती , नम मिट्टी के गंध से घुलती धीमे से दीवार के साये सुस्ताती बैठ जाती । पिछले बरामदे से सिलाई मशीन की आवाज़ गड़गड़ निकलती रुकती फिर शुरु होती । हुस्न आरा के पैर मशीन की भाती पर एक लय में चलते । कपड़ों की कतरन , धागे का बंडल , तरह तरह के बॉबिन और सूई , गट्ठर के गटठर । इसी सबके के बीच चूल्हे पर अदहन खदबदाता , सूप में चावल और राहड़ की दाल चुन कर रखी होती ।
रसूल कान पर फँसाई बीड़ी एहतियात से निकालते , सुलगाते और हथेली की ओट में भरके सुट्टा खींचते । सारा दिन दोपहर होता । सुबह फट से दोपहर हो जाती और साँझ जाने कब आता नहीं कि रात हो जाती ।
ऐसे होते थे दिन जब हाथपँखा हौंकते चित्त लेटे जाने क्या सोचते दिन निकलता । एक दिन के बाद दूसरा फिर तीसरा फिर जाने और कितना । सब दिन एक दूसरे में गड्डमड्ड् सब एक जैसे कि तफसील से कोई पूछे कि फलाँ दिन क्या तो खूब खूब सोचना पड़े कि अच्छा ? उँगली पर जोड़ें और कहें अच्छा अच्छा उस दिन जब प्याज़ लाल मिर्चा का कबूतरी खाके ऐसा झाँस पड़ा था कि खाँसते खाँसते बेदम हो गये थे ?
मुड़ के देखो तो मालूम पड़े कि एक कतार से सब दिन जाने कितने साल में बदल गये । मटियामेट कर देने वाली उदासी छाती में गहरे धँस गई है । कैसा हौल समा गया है कि चलते भी हैं तो लगता है उलटा चलें और पाँव के निशान बुहारते चलें ।
बाहर गली में आटा चक्की के मशीन की फटफट फटफट फटफट गूँजती है , मोटी बेसुरी और बेहया । जबसे रसूल का हाथ कटा है हुस्न आरा सिलाई करती है । रसूल खटिया पर लेटे देखते हैं और खूब सोचते हैं । जीवन के मायने और मौत के भी । फिर सोचते हैं यहीं है सब जन्नत भी और दोज़ख भी । फिर सोचते हैं उन दिनों के बारे जो कितने लम्बे होते थे । कितनी ज़िंदगी थी तब । दिन जैसी ही लम्बी । आँख के सामने धुँधलका छा जाता है ।
सहन में अरअरा कर नीम की पत्ती गिर रही है । हुस्न आरा के चेचक भरे चेहरे पर पसीने की धार है । टूटे कमानी के मोटे चश्मे से भी अब इतना नहीं दिखता कि धागा पिरोया जा सके । हताश सर दीवार से टिकाये चुप बैठ जाती है । अब नहीं होता , अब नहीं ।
चुप्पी दबे पाँव आती है फिर ढीठ बच्चे सी फैल जाती है । कितने दिन बीतते हैं जब दीवारों से कोई आवाज़ नहीं टकराती । रसूल चौंक कर देखते हैं किस बात पर जाँनिसार हुये थे ? जाना था इस औरत को ? और उसने मुझे? किस ज़माने की बात है । कोई और रहा होगा , कोई और समय , कोई और भूगोल । मैं नहीं , मैं नहीं , मैं नहीं ..
मुड़ कर देखते हैं चारो ओर हैरत से , बेगानेपन से । काँपते घुटनो को थामे अचानक उठ खडे होते हैं फिर डगमग बाहर । हुस्न आरा एक बार चौंक कर देखती है , फिर मशीन के पास ही सिमट कर ढुलक जाती है ।
समय की फितरत ऐसी ही होती है , बेवफा !
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
14 comments:
- पिछले बरामदे से सिलाई मशीन की आवाज़ गड़गड़ निकलती रुकती फिर शुरु होती ।
- सारा दिन दोपहर होता । सुबह फट से दोपहर हो जाती और साँझ जाने कब आता नहीं कि रात हो जाती ।
- कैसा हौल समा गया है कि चलते भी हैं तो लगता है उलटा चलें और पाँव के निशान बुहारते चलें
... ऐसी कई दोपहरी हमने भी भोगी है अंतहीन...
रसूल चौंक कर देखते हैं किस बात पर जाँनिसार हुये थे ? जाना था इस औरत को ? और उसने मुझे? किस ज़माने की बात है । कोई और रहा होगा , कोई और समय , कोई और भूगोल । मैं नहीं , मैं नहीं , मैं नहीं ..
समय की फितरत वाकई बेवफा होती है. वाकई.
अपनी मनपसंद पंग्तियाँ मैंने निकाल ली हैं... रसूल मियां तो साकार हो गए.. चेहरा कई बार देखा हुआ सा लगा और हरकतें भी...
बिलकुल....वक़्त की कैफियत ही बेवफाई है.........
seems you are in writing mood.....good.
प्रस्तुत संकलन पढ़कर सवेंदना का उफान आया की दिल भर आया / शब्दों के मुखर अर्थ एक दुसरे जहा में ले गए/
हमें लगता है , कब्रगाह है सितारों की आसमा ,
इन्हें देख कर ही खुद को जिन्दा समझता हूँ /
सानंद रहे ,
हेमंत
शब्द दर-शब्द....अर्थ दर अर्थ मैं खोता गया और खोजता गया ....क्या कि जाना, कि ना जाना ... हर बार की तरह कई पंक्तियों ने दिल मोह लिया
चुप्पी दबे पाँव आती है फिर सब के सब शान्त हो जाते हैं, सहमे से।
गज़ब का लिखती हैं आप, सच में।
" ऊब छतों की बल्लियों से चमगादड़ जैसी उलटी लटकती पूछती , बाबू अब और क्या ?"
"कैसा हौल समा गया है कि चलते भी हैं तो लगता है उलटा चलें और पाँव के निशान बुहारते चलें।"
"बाबू ! अब और क्या ?"
और
"किसी दिन" का पहला टुक्डा,एक दुसरे से जुडे हुए लगे !!
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इस कहानी की उम्र ६०- से ७० के दर्मीयान लगी !!
चुप्पी दबे पाँव आती है फिर ढीठ बच्चे सी फैल जाती है ।
जेई तो बात है...!!
behn ptyksha ji aadaab aapki post pdh kr men heraan hun sochtaa hun ke itne achche alfaaz alfaazom men prstutikrn or khuburt urdu kyaa koi iskaa sngm bnaa skta he lekin is ajube kthin kaam ko aapne sch kr dikhaaya he mubaark ho. akhtar khan akela kota rajsthan
समय की बेवफाई इतनी फितरत और कैफियत से प्रत्यक्ष की प्रत्यक्षा!!
उदास
बेज़ार
मगर खूबसूरत
दोपहर
छत पर चढ़े कोंहड़े के बेल से सुगन्ध फूटती , नम मिट्टी के गंध से घुलती धीमे से दीवार के साये सुस्ताती बैठ जाती ।
शानदार लेखन........एकदम मन कहीं डोल सा गया..... लगा कि कहीं आसपास ही है ऐसी ही कोई दीवाल... कोई कोंहड़े की बेल....।
हुस्न आरा , रसूल और आपकी नज़र . बहुत दिन बाद कुछ ऐसा पढ़ा . जो दिल को छू गया . यूँ ही नहीं आपका लिखा नियमित लेता था .कोई पछतावा नहीं . पंचम जी भी हो के गए हैं . वह भी अच्छा लिखते हैं . और क्या ? भाई सुभान अल्लाह .
किस बात पर जाँनिसार हुये थे ? जाना था इस औरत को ? और उसने मुझे? किस ज़माने की बात है । कोई और रहा होगा , कोई और समय , कोई और भूगोल । मैं नहीं , मैं नहीं , मैं नहीं ..
बहुत अच्छी लगी......
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