4/23/2010

खुद से

मुर्गाबियों का झुँड पानी की सतह पर उतरता है । जैसे साँझ उतरती है । पानी पर पहले उतरती है , पेड़ की पत्तियों से छनकर । आसमान में जबकि अब भी दिन का आभास बाकी है । ये दिन का वो समय है जब खुद से बात की जा सके,रफ्ता रफ्ता ,सोचकर रुककर समझकर टटोलकर,अपनी आत्मा को खुरचकर । अंतरतम का कोई कमरा जिसका दरवाज़ा ज़रा सा खुल जाये , कोई रौशनी की लकीर दिख पड़े । ऐसे बात , जैसे किसी से न की हो , मोहब्बत से , कोमलता से , विवेक से । छाती के भीतर कुछ घना सघन जंगल उगता है , उसकी महक मारक है , उसके काँटे बींधते हैं ।
ऐसे गहरे गहन समय में जब खुद से बात की जा सके
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पानी में डूब जाना दुनिया भुला देना होता है क्या ? हर बार उन्हीं अँधेरों में चलना , किसी बन्द गली के आखिरी मकान का कभी न खुलने वाला दरवाज़ा , सिर पटकना फिर सिर झुकाये कँधे गिराये रुकना कुछ देर फिर लौट आना , हर बार
हर बार अंतरंगता की चादर ओढ़ना , साथ साथ उदास गलियों के भूल जाने वाले नामों में भटकना , कहना कि मुझे खींच लो बाहर , मेरे लिये सिर्फ मेरे लिये , मुड़ना मुड़ना मुड़ना और चाहना , कितना कुछ , हाथ बढ़ाना इस उम्मीद के साथ कि थाम लोगे , हर बार , ओह निष्ठुर मन , कितना निर्विकार तुम्हारा ऐसा चाहना , क्यों न निस्संग ? आखिर ?
किसी घने वृक्ष के नीचे लेटना और आसमान तकना , किसी पुराने खंडहर मंदिर के गर्भगृह में मौन बैठना , हर बार खुद से बात करना , और कहना आसमान , और कहना कोई लम्बी कथा , छाती फट जाये ऐसी कथा , सोच लेना और खुश हो लेना

***
दुख की बड़ी जानी पहचानी वही कहानी होती है , सुख आता है हर बार नये रंग में । लौटना फिर परिचित रास्तों पर ? सुकूनदेह है । सुख , कहते हैं अब पोसाता नहीं , उस काली बिल्ली जैसे जो हर रात दूध पीकर निकल भागती है सड़कों पर आवारागर्दी करने ।
पानी के किनारे चिड़िया चहचहातीं हैं कुछ देर , क्रेसेंडो में उठता ऑरकेस्ट्रा फिर नीरव शाँति , फिर अँधकार । फिर खोजना उसमें मायने , फिर भर लेना अर्थ , फिर जीना तरंगित हो कर , हाथ बढ़ाना फिर मुस्कुरा कर , गहरी साँस भरना , पूरा और लौट आना रौशनी में , हर बार
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भीतर एक नमी थी । छूओ तो उँगलियाँ भीग जायें । मैं तुमसे कहती , आज मेरे भीतर उदासी है , धीमे संगीत जैसा , जैसे भीतर कोई कूँआ हो जिसका तल न दिखता हो । और उसका पानी हथेलियों में भरो तो हाथ न दिखता हो । और बस ये कि इतना भर ही मैं खुद को जानती हूँ , फिर इससे ज़्यादा तुम मुझे क्या जानोगे ।
मेरे भीतर मुझसे भी बड़ी तस्वीर है जिसका ओर छोर नहीं , मीठा संगीत है , मन मोह लेने वाला , खुद को मुग्ध कर देने वाला , ऐसे रंग हैं जिन्हें आँखों ने देखा नहीं , ऐसा लय है जो शरीर के भीतर भी है और बाहर भी , मेरे भीतर मैं हूँ , मैं , जो तुम देख नहीं पाते उतना मैं , जितना मैं समझ पाती हूँ उससे भी ज़्यादा मैं ।
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धुँधले अँधेरों में , जब कुछ न दिखता हो तब खुद को देखना अच्छा लगता है

(गोगां की ताहितियन लैंडस्केप )

15 comments:

अनिल कान्त said...

आपके ब्लॉग की पोस्ट पढ़कर कहीं अन्दर तक ख़ुशी अपनी लहरें ले जाकर छोड़ आती है .....जिसका असर बहुत लम्बे समय तक बना रहता है

सागर said...

ओह बड़ी उहापोह की स्थिति में में हूँ... कौन सी लाइन निकालूं कौन सी नहीं... फिर भी एक कोशिश करता हूँ अपने स्तर की

भीतर एक नमी थी । छूओ तो उँगलियाँ भीग जायें । मैं तुमसे कहती , आज मेरे भीतर उदासी है , धीमे संगीत जैसा , जैसे भीतर कोई कूँआ हो जिसका तल न दिखता हो

और

कहना कि मुझे खींच लो बाहर , मेरे लिये सिर्फ मेरे लिये , मुड़ना मुड़ना मुड़ना और चाहना , कितना कुछ , हाथ बढ़ाना इस उम्मीद के साथ कि थाम लोगे , हर बार , ओह निष्ठुर मन , कितना निर्विकार तुम्हारा ऐसा चाहना , क्यों न निस्संग ?

वाह वाह ! वाह वाह

pallavi trivedi said...

खुद से बात...खुद में डूब जाना...खुद की पड़ताल ...इतना आसान कहाँ होता है! पर इसका एक अलग नशा है! धीमे धीमे चढ़ता और नसों में घुलता!

डॉ .अनुराग said...

हम्म...कई बार ऐसी उदासिया ...कई कोनो का पता देती है ...कई चेहरों का भी.....

प्रवीण पाण्डेय said...

उदासी को सरल शब्दों से ब्लॉग पर उतार दिया ।

neera said...

उदासियों को, खुशियों को, अंधेरों को, उजालों को, अंतर्मन को........ आईने में देख भीतर की उदासियों को टोहते शब्द!

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

खूब कही...

संजय भास्‍कर said...

उदासी को सरल शब्दों से ब्लॉग पर उतार दिया ।

Anonymous said...

"खुद से"
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जैसे किसी लड्की के खुले ,बे-तर्तीब मगर सुनदर बाल /
जैसे ना-समझ-मे आई फ़िर भि मन-मोह्ती कोई abstract painting /
जैसे पल्ले ना पडे फ़िर भी झुमा दे--मछुआरो का कोई गीत /
जैसे पता नही क्या बजाया फ़िर भी ओस्कर ले आया-रेहमान का सन्गीत /
जैसे पता नही क्यो अछ्छी लगती पहाडॊ की बाते ,
जैसे पता नही क्यो अछ्छी लग्ती आधी रात की चाय
जैसे पता नही क्यो अछ्छी लग्ती जनगल मे खो जाने की कहानी
जैसे पता नही क्यो अछ्छी लग्ती किसी सिरफ़िरे की मनमानी
अछ्छा लग्ता दूर पहाडी मे खो जाता रास्ता
अछ्छी लग्ती, ’ना-जानी विदेशी भाशा ’ की कुछ फ़िल्मे
अछ्छॆ लग्ने लग्ते ,ना-मिले कुछ लेखक/
अच्छा लग्ता train का अन्धेरी गुफ़ा से गुजरना /
अच्छा लग्ता कई बार सच्चाई से मुकरना /

ऐसे ही.............................
अच्छा लग्ता ,कुछ blogs को पड्ना /

दिलीप कवठेकर said...

इतनी कम उम्र में इतनी परिपक्व अभिव्यक्ति. पहली बार आया हूं , मार वाकई में अभिभूत हूं

आता रहूंगा.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

धुँधले अँधेरों में , जब कुछ न दिखता हो तब खुद को देखना अच्छा लगता है

और तब इन्सान बहुत खूबसूरत लगता है.. तब उजालो की सच्चाईया नही होते.. वो अन्धेरे मे एकदम ओरिजिनल होता है..

जितेन्द़ भगत said...

सुंदर अभिव्‍यक्‍ति।

के सी said...

इस घनी उदासी में जिजीविषा जैसे तत्व का बचा रहना ही आपका लेखन कौशल है.

खूबसूरत.

Anonymous said...

Aw, this was a really nice post. In idea I would like to put in writing like this additionally - taking time and actual effort to make a very good article… but what can I say… I procrastinate alot and by no means seem to get something done.

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

what a post and this landscape too,hypnotised me really.marvellous words and expressions.my best wishes anfd deep regards,
dr.bhoopendra
rewa
mp