8/02/2009

मोहब्बत

उसकी आवाज़ कूँये में गिरते छोटे पत्थरों जैसी थी । हर शब्द के बाद एक चुप्पी का छोटा तालाब जिसमें शब्द की अनुगूँज सुनाई दे । दबी कसक में लिपटी जाने कहां से अचानक उस बचपन की याद हो आई जब हम घर के पीछे पोखरे पर कितनी शामें कमीज़ और निकर में , घुटने छिलाये , पानी में चिपटे पत्थर छिहलाते थे । कई बार देर-देर अँधेरा घिरने तक । उसकी आवाज़ मुझ तक उन सारे समयों को पार कर, तमाम अँधेरों को चीरती आती लगी । ठहरी हुई , बिना हड़बड़ी के , जैसे ये शब्द और वाक्य भी उसके दिमाग में अभी पहली बार बन रहे हों ।

गौर से सुनना । सुन रहे हो ? जब आप मोहब्बत में होते हैं आपके भीतर का अंतजार्त गुण हज़ारगुणा बढ़ जाता है । जैसे आप पोसेसिव हुये तो ये पोसेसिवनेस जान मारने की हद तक बढ़ जाता है । आप किसी का कत्ल कर सकते हैं अपनी जान ले सकते हैं और अगर आप उदार हुये तो फिर आपके सूफी होने से कोई आपको रोक न सकेगा ! जिसको प्यार किया उसका अच्छा बुरा सब प्यारा और भला । इश्क की इंतहा । सब्लाईम ..

जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है कि तुम हो ...


उसने फराज़ पढ़ा फिर कहा-

सोचता हूँ मैं कि तीन चार साल में काम से निजात पा लूँ । तुम जानते हो हमारा जो घर है , उस छोटे से नामालूम से शहर में , वहाँ आँगन आँगन चलते चलो तो एकाध किलोमीटर चल लेते हो । एक खत्म हुआ कब दूसरा शुरू पता तक नहीं चलता । अब भी ऐसा ही है । सबके आँगन एक दूसरे में समाये हुये , सबकी ज़िंदगी भी ऐसी ही , खाला चाचा , आपा , बुआ ..सब परिवार हैं । सब आसपास । कब्रिस्तान भी । बुढ़ापे की जवानी वहीं बितानी है । शायद कुछ खरगोश ही पाल लूँ । और कुछ कबूतर । शायद फिर तब कुछ लिखूँ । प्रेम कहानी नहीं जीवन कहानी, क्‍यों ? फिर ब्रोदेल और स्‍तेंधाल पढ़ूँगा , जीवन पढ़ूँगा ।


उसकी आवाज़ दूर चली गई थी पर शब्द साफ थे । उनका स्वाद साफ था । उसमें एक भयानक किस्म की यर्निंग थी ।


तुम जानते हो आजकल मैं अपने नशे में रहता हूँ । पीना छोड़ दिया है । तब हर शाम पीता था , याद है तुम्हें ? क्‍या दिन थे । अब खुद को पीता हूँ । रात निकल जाता हूँ सड़कों पर । बारिश से भीगी सड़कों पर स्ट्रीट लाईट्स की झिलमिल रौशनी में भागते शहर को देखता हूँ , लोगों के हकबक चेहरों को देखता हूँ , औरतों के उजाड़ चेहरों को देखता हूँ , रास्ता जोहते उन सस्ती कॉलगर्ल्स को देखता हूँ चटक मेकअप से पुते चेहरे, फूहड़ कपड़ों और उससे भी ज़्यादा फूहड़ तरीके से कूल्हे मटकाती फाहश इशारे करतीं । घरों के अंदर उदास पीली रौशनी में नहाई खिड़की से जीवन का एक टुकड़ा देखता हूँ और सोचता हूँ , जीवन ऐसा क्यों है ? व्हाई ? व्हाई लाईफ इस सच अ कैरीकेचर ऑल द टाईम ? क्या कहते हो तुम ?


फिर बिना मुझे सुने या मेरी जवाब का इंतज़ार किये वो हँसने लगा था। उसकी हँसी एक छोटे बच्चे के असमय बूढ़े हो जाने की हँसी थी । फिर हँसते हँसते वो हिचकियाँ खाने लगा । मैंने घबराकर कहा , सुनो पानी पी लो , गिनकर सात घूँट । उसने कहा , मैं सात घूँट खुद को पी लूँ ? क्या कहते हो तुम ? मैंने सोचा इसकी आदत गई नहीं अब भी । हर बात में दूसरे की एंडॉर्समेंट क्यों चाहिये इसे ।

हम चार साल बाद बात कर रहे थे । पूरे चार साल । इस दौरान हम एक दूसरे के लिये इस दुनिया से विलीन थे । फिर अचानक किसी पुरानी डायरी में एक छोटे से पीले पुरजे में तीन बार इसका नाम लिखा दिखा और हर नाम के साथ एक दूसरा नम्बर । मैंने पहला नम्बर लगाया था जिसपर किसी औरत आवाज़ ने सर्द सुर में यहाँ नहीं रहते , कहकर फोन काट दिया था । दूसरे नम्बर पर इसने उठाया था । और बिना हैरान हुये , बिना शिकायत तंज किये हुये , बिना इस चार साल की चुप्पी की कैफियत दिये हुये या पूछते हुये , वो शुरु हो गया था । जैसे हमने पिछली बात कल की ही छोड़ी हुई तार से फिर शुरु किया हो ।


तुम जानते हो जीवन मेरे लिये एक महंगी शराब और कीमती सिगरेट जैसी है । हर कश , हर घूँट ( फिर वो चुप हुआ , इतनी देर कि मुझे लगा फोन कट गया है ) अच्छा हटाओ इस बात को , सुनो पिछली दफा मैं गाँव गया था , शहर के और भीतर और हफ्ते भर रहा था वहाँ , बिना बिजली के । रात को लालटेन की रौशनी में बैठे , किताब सिर्फ हाथ में थामे मैं उन जगहों की सोचता था , जहाँ कभी गया नहीं । किसी सेब के बगान में दिनभर सेब तोड़ना और रात को रोटी खाकर सो रहना । ऐसा सहज जीवन हो जाये तो क्या फिर भी मन अकुलाता रहेगा ? मन की खुराक आखिर कहाँ से मिलती है ? किससे मिलती है ? मन क्या हमेशा ऐसा ही भूखा नंगा बना रहेगा ? गरीब का गरीब ? जानते हो , दिन में मैं खेत पर चला जाता था । किसी पेड़ की छाँह में बैठकर खेत देखता था । किसानों से बात करता था । मिट्टी में पैर धँसाये मिट्टी का सुख लेता था । पूरी छाती भर साँस लेता था , लम्बी गहरी साँस , हवा का सुख भी सुख है । लेकिन गाँव के लोग मुझे ऐसे देखते जैसे मैं किसी सनक की पिनक में हूँ । शायद हँसते भी थे । अच्छा बताओ सरल जीवन कहाँ मिलेगा ? माने मटीरियली सरल भी और दिमागी जज़्बाती सरल भी ?



फिर उसकी आवाज़ अचानक धीमी हो गई । जैसे खुद को कोई सफाई दे रहा हो ,



सुनो , रात के वक्त किसी का शरीर आपके पास हो , सिर्फ पास , न भी छूओ लेकिन ये तसल्ली हो कि छूना चाहो तो है कोई जिसे प्यार से , सुकून से छूआ जा सके , जो आपके ज़िंदा होने के अहसास को जिलाये रख सके ...


वो चुप था । मैं भी साँस रोके चुप रहा ।


निपट अकेली रातों में खुद को छू कर सहला कर , अपने भीतर गर्मी तलाशना , ज़िंदगी तलाशना , कब्र में अकेले लेटने जैसा है । सब ठंडा और बेजान । कई बार मन होता है किसी औरत का शरीर खरीद लूँ सिर्फ उसके बगल में लेट पाने के लिये । शायद नींद आ जाये । (फिर एक खोखली हंसी की टेक पर जैसे अपनी कही हर बात को खारिज करते हुए) देखो, कैसी बहकी बातें कर रहा हूं ।



फिर उसने एकदम से फोन काट दिया था। यही इतनी ही बात हुई थी उस दिन उससे । किसी ने कभी बताया था कि उसकी बीबी उसे छोड़ गई है और अब वो शराब बहुत पीता है । और झूठ तो किस ठाट से बोलता है । निक्कमेपने का बेशर्म इश्तेहार बना फिरता है । किसी गिरे हुये नीच कमीने इंसान को देखना हो तो उसे देख लो , ऐसा कहते जिसने ये बातें कही थीं उसका मुँह विद्रूप में बिगड़ गया था ।


मैंने उस पीले पुरजे से उसका नम्बर अपने मोबाईल पर सेव नहीं किया था । शायद मैं भी उससे मोहब्बत करता था , उसके अच्छे बुरे के बावज़ूद पर फिर भी मैं सूफी नहीं था । मैं उसके जैसा इंसान तक नहीं था । अब कभी सिगरेट या शराब पीता हूँ पता नहीं कहां से उसकी याद चली आती है । उस पीले पुरजे की जगह डायरी में ऑबिटुअरी की वो कटिंग मैंने सहेज रखी है जिसे कभी कभार नशे की बेशर्म बहक में निकाल कर देख लेता हूँ । उसका चेहरा ग्रेनी है मगर गौर से देखो तो आँखें मानो साफ़ सवाल करती दिखती हैं , व्हाई लाईफ इस सच अ कैरीकेचर ऑल द टाईम ?


(पिछले दिनों दैनिक भास्कर में छपी कहानी )

14 comments:

पारुल "पुखराज" said...

पढ़ गई ...कई बार

जितेन्द़ भगत said...

सुंदर कहानी।

Anonymous said...

i think ...getting "hooked" ;makes a caricature.because that 'HOOK' distorts the shape,if one tries to go away from it.So not getting hooked is the trick to escape from being a caricature.MOVE ON.what do you say?

she woudn'y have cared a damn...but few fans do:-)
regadrs,

neera said...

मोहब्बत और जिंदगी की क्रिस्टल बाल!

डॉ .अनुराग said...

...किताब के पन्नो पे अक्सर कितने रंगों को देखा है .बिना किसी की परवाह किये ..बहते हुए ....पर कंप्यूटर पे जैसे सब रंगों पे ब्रेक लगाये रखते है .जाने क्यों ?आज लगा आपने रंगों भरी कटोरी बिखेरी है .....वन ऑफ़ यौर बेस्ट !

रजनीश 'साहिल said...

ये कहानी पढ़कर कमेन्ट के रूप में जनाब हस्तीमल हस्ती का एक शेर ही अर्ज़ कर सकता हूँ-

"कुछ और सबक हमको ज़माने ने सिखाये
कुछ और सबक हमने किताबों में पढ़े थे"

वाकई अच्छी कहानी.

Rangnath Singh said...

she talks in italian bt she sings in hebrew !!

अफ़लातून said...

पढ़ना बहुत अच्छा लगा ।

कुश said...

ये कहानी मैंने पिछली दिनों दैनिक भास्कर के रसरंग में पढ़ी थी.. उसी रात अनुराग जी से इस कहानी के बारे में बात भी की थी.. सोचा था आपको मेल करूँगा.. पर कर नहीं पाया.. कहानी बहुत उम्दा है..वाकई

Anonymous said...

checking your bolg has become a routine as good as checking persomal mails 3-4 times a day.keep on writing,for you are a celebrated writer.i have started reading somebody's bolg for the first time in my life hardly from last 1 month.And i have read all your blogs since it's inception.i enjoy your writing thoroughly !
regards,
P.S.She wouldn't have cared a damn...but few fans do !!

विधुल्लता said...

मन की खुराक आखिर कहाँ से मिलती है ? किससे मिलती है ? मन क्या हमेशा ऐसा ही भूखा नंगा बना रहेगा ? गरीब का गरीब ? ji shukriyaa is nek kahaani ke liye

सागर said...

कई साल पहले का हंस याद आया, और कुछ अलग सोचती मन , एकबारगी लगा कोई उपन्यास हाथ लग गया है... मन की भूख और हूक पूरी हुई... शोर्ट कट से दूर एक उम्दा लेखन.... शुक्रिया...

arvind srivastava said...

parikatha me 'BYAH' kahani aur srijan path me kavitaon k liye badhai...

crazy devil said...

Agar dard ki kalima me sundarta hai..agar cigerette ke challe khoon choosne ke baad bhi thandak dete hain..tab ye kahani bhi mujhe bahut pyari lagi