7/03/2009

सबसे बड़ा ग्लोब

हमारे घर एक बैरोमीटर , एक लक्टोमीटर और एक ग्लोब था । एक थर्मामीटर भी था जो टूट गया था और जिसका पारा हमने एक छोटे पारदर्शी डब्बे में इकट्ठा कर रखा था । लैक्टोमीटर से हम दूध की शुद्धता नापते थे । उन दिनों हमारे घर में फ्रिज़ नहीं था और माँ दिन में चार बार दूध गरम करती थीं कि खराब न हो । हम स्टील के कटोरे में दूध डालकर जाँचते थे । उसमें पानी डाल डाल कर देखते कि लैक्टोमीटर सही बता रहा है कि नहीं । हर बार सही माप हमें भौंचक करता और हम एक दूसरे को देख विजयी भाव से हँसते थे जैसे कि ये कोई जादू का खेल था जिसे हमने ही अंजाम दिया था ।

गर्मी की चट दोपहरियों में माँ साड़ी का आँचल एक तरफ फेंक कर पँखे के नीचे फर्श पर चित्त सो जाया करती थी तब हम चुपके दबे पाँव बरोमीटर लेकर बाहर निकल जाया करते । पुटुस की झाड़ियों की ठंडी छाँह में भुरभुरी मिट्टी में तलवे धँसाये हम बैरोमीटर पढ़ते । उसका माप हमारे समझ के बाहर था । फिर भी उसको हाथ में थाम कर उसके बढ़ते घटते रीडिंग को देखना हमें अंवेषण कर्ता बना देता था । ग्लोब पढ़ना अलबत्ता अकेले का खेल था । ग्लोब नीले रंग का था और उस पर दर्शाये ज़मीन के टुकड़े भूरे हरे रंग के । उसका ऐक्सिस हल्के पीले रंग का था । धीमे धीमे उसे हम घुमाते और आँख बन्द कर कहीं उँगली रख देते । कुछ पल में ही ऐशिया से योरोप या दक्षिण अमरीका पहुँच जाते । हम जगह सीख रहे थे .. लीमा, पेरु , इस्तामबुल से बढ़ते हुये हम बुरकिना फास्सो , उलन बटूर , युरुग्वे , समोआ, तिमोर , इस्तोनिया, किरीबाटी, सान मरीनो तक पहुँच गये थे । फिर हमने ऐटलस पढ़ना शुरु किया । ज़मीन पर ऐटलस फैलाये हम मूड़ी जोड़े महीन अक्षरों को उँगलियों से पढ़ते । फिर हमने पुरानी दराज़ों को खँगालते हुये मैग्नीफाईंग ग्लास का अंवेषण किया था । उससे न सिर्फ अक्षर बड़े हो जाते थे बल्कि हथेलियों की रेखायें और उँगलियों के पोरों के महीन घुमाव से लेकर त्वचा के रोमछिद्र तक विशाल दिखाई देते । पकड़ी हुई मक्खी का शरीर और चम्मच पर रखे शक्कर का दाना भी । और सबसे मज़े की चीज़ कि सूरज की किरण को फोकस कर नीचे रखे अखबार का एक कोना भी जलाया जा सकता था ।

पर ये सब दूसरे दर्जे के खेल थे । असली मज़ा ऐटलस और ग्लोब पढ़ने का ही था । टुंड्रा और सवाना और पम्पास समझने का था । पहाड़ों पर उगते मॉस लिचेंस और रोडोडेंड्रॉन जानने का था । ऐटलस को छाती से सटाये चित्त लेटकर छत देखने का था । छत देखते उन दूरदराज जगहों की गलियों में भटकने का था । मोरोक्कन जेल्लाबा , अरब हिज़ाब , काहिरा की गलियाँ , स्पैनिश क्रूसेड्स बोलने का था । दिन में सपने देखने का था । जबकि स्कूल में भूगोल मेरा प्रिय विषय नहीं था । इसमें सरासर गलती सिस्टर रोज़लिन की थी । सिस्टर रोज़लिन हमें भूगोल पढ़ाती थीं । उनके टखने नाज़ुक थे और उनके पाँव सुडौल । वो पतले काले फीते वाले सैंडल पहनती थीं और उनके सफेद हैबिट के नीचे उनके टखने और पाँव नाज़ुक सुडौल दिखते थे । जब वो टेम्परेट और मेडिटेरानियन क्लाईमेट पढ़ातीं थीं मैं उनके पाँव और पतली कलाई और लम्बी उँगलियाँ देखती थी ।

माँ सुबह रोटियाँ बेलते वक्त गाने गातीं थीं । बँगला गीत , चाँदेर हाशी या फिर भोजपुरी लोकगीत , कुसुम रंग चुनरी या फिर फिल्मी गाने , रहते थे कभी जिनके दिल में । माँ काम करते वक्त गाने गाती थीं । माँ चूँकि दिनभर काम करती थीं , हम दिन भर उनके गाने सुनते थे । उनकी आवाज़ में एक खनक थी । उनकी आवाज़ तहदार थी और पाटदार । मुझे लगता था उनकी आवाज़ पतली क्यों नहीं । मैं कई बार रात को प्रार्थना करती , सुबह उठूँ तो उनकी आवाज़ पतली हो जाये या फिर मैं अपने कश्मीरी दोस्त की तरह गोरी हो जाऊँ । बहुत बरस बीतने पर ये मेरी समझ में आना था कि माँ की आवाज़ बेहद खूबसूरत थी , उसका एक अपना कैरेक्टर था , अपना वज़न और जो अपने आप को कहीं भी पहचान करवा सकता था । उस आवाज़ में एक खराश भरी लय थी , लोच था जो लम्बी तान में चक्करघिन्नियाँ खा सकता था , बिना टूटे , बिना बिखरे , जो कहीं दूर वादियों से उदास झुटपुटे की महक ला सकता था , जिसमें दिल मरोड़ देने वाली चाहत की प्रतिध्वनि थी । मेरे पिता माँ की उस आवाज़ पर कैसे फिदा हुये होंगे ये समझना बेहद आसान था । पर ये सब भविष्य की बातें थीं ।

माँ दिन में एक घँटा सोतीं थीं । तब हम दूसरे कमरे में होते जहाँ किताबें ही किताबें थीं। चौकोर भूरे दस लकड़ी के बक्से जिनको हम कभी पिरामिड की तरह सजाते , कभी एक के ऊपर एक रखते । चार नीचे फिर उनके ऊपर तीन फिर उनके ऊपर दो और सबसे ऊपर एक । सबमें किताबें सजी होतीं । बालज़ाक , प्रूस्त , ज़ोला , फ्लॉबेयर , इलिया कज़ान , लौरेंस । इनके साथ साथ महादेवी , रेणु , निराला , प्रेमचंद । बरसात के दिनों में गीले कपड़ों की महक इन किताबों में बस जाती । आज भी बरसात की महक से उन किताबों की महक आती है । पेट के बल लेट कर किताब पढ़ते थक कर सो जाते फिर माँ के गाने की आवाज़ से नींद खुलती । माँ शाम के खाने की तैयारी में लगीं होतीं । बाहर धुँआ होता या फिर शायद रात घिरने को आती । लैम्पपोस्टस पर बल्ब के चारों ओर लहराते फतिंगो का गोला होता और झिंगुरों की हमहम होती । हमारे सब साथी छुट्टियों में गाँव गये होते और अचानक शाम घिरते हम मायूस उदासी में डूब जाते । बैरोमीटर , टूटे थर्मामीटर का पारा , ग्लोब , सब आलमारी पर असहाय अकेले रखे होते । बिना संगी के , सिर्फ एक दूसरे के साथ से हम अचानक ऊब से भर उठते । माँ के गाने में भयानक उदासी होती । हम चुप खिड़की के शीशे से नाक सटाये अँधेरे में आँख फाड़े देखते , शायद पिता , जो महीने भर के लिये बाहर थे , आज आ जायें । आज ही आ जायें ।


माँ दूध में रोटी डालकर पका देतीं । दूध ज़रा सा किनारों पर जल जाता और रोटी भीगकर मुलायम हो जाती । घर में सोंधी खुशबू फैल जाती । खिड़की के बाहर अमरूद के पेड़ की डाली शीशे से टकराती । माँ कहतीं जल्दी खाना खा लो फिर हम बाहर बैठेंगे । रात की हवा गर्मी भगा देती और हम खटिया पर लेटे चित्त तारों को देखते । माँ धीमे धीमे गुनगुनातीं । फिर कहतीं बस अब बीस दिन और । फिर कहतीं गर्मी अब कम है । हम दोनों माँ को देखते फिर चुपके से हँसते । पिता ने वादा किया था कि इस बार बड़ा ग्लोब लायेंगे , जिसमें छोटे शहर और नदियाँ और पहाड़ भी दिखेंगे । हम चाँद को देखते और हमारी आँखों में नींद भर जाती । रात किसी वक्त , जब शीत गिरती और हम ठंड से सिकुड़ जाते , हमारे पैर हमारी छाती से जुड़ जाते , माँ हमारे शरीर पर चादर डाल देतीं और दुलार से हमारे बाल सहला देतीं । हम नींद में मुस्कुराते और अस्फुट बुदबुदाते , शायद समोआ और तिमोर और लीमा ।

(ऊपर की तस्वीर, सुल्तानपुर)

23 comments:

अमिताभ मीत said...

कमाल है .... यूं लिखना ..... Wish I could write too ...

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर .. बचपन की यादें ताजी हो गयी !!

Udan Tashtari said...

सब कुछ एक चलचित्र की भांति सामने से गुजर गया.अपना बचपन और न जाने क्या क्या साथ आया याद!!

बेहतरीन लेखन! साधुवाद!

अजित वडनेरकर said...

अच्छा संस्मरण...हम आज भी कम्पास, ग्लोब और एटलस की सोहबत में हैं...हमारा साथ देने को हमारा बेटा भी बड़ा हो गया है...कई एटलस है, ग्लोब के नाम पर अब गूगल अर्थ से बेहतर कुछ नहीं। पूरी दुनिया कई बार घूम आए हैं...

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप बहुत खुश किस्मत थीं, आप के पास पूरी प्रयोगशाला थी।

pushpendrapratap said...

bachapan ke din bhula na dena

ghughutibasuti said...

बचपन तो हमारा भी कुछ ऐसा ही था परन्तु उसे देखने को ऐसी नजर नहीं थी और न उसे बताने को ऐसे जादुई शब्द! पढ़कर नन्ही प्रत्यक्षा से जैसे मिल लिए।
घुघूती बासूती

हरि जोशी said...

आपका संस्‍मरण पढ़कर एक बार फिर बचपन की यादों में खो गया। अच्‍छी पोस्‍ट लिखी है आपने।

सुशील छौक्कर said...

बताशे सा मीठा बचपन। बचपन की गलियों में जाने का मन हो गया हमारा भी।

सुशीला पुरी said...

NICE.............

पूनम श्रीवास्तव said...

Pratyakshha ji,
Bahut khuubasooratee se apane apane bachapan kee yadon ko bayan kiya hai ....badhai.kabhee mauka lage to mera blog bhee padhen..apaka svagat hai.
Poonam

डॉ .अनुराग said...

वो कम गर्मी फेंकता सूरज ...खुशबु वाला आँगन ओर सांझ ढले मुस्कराता चेहरा लिए पिता ...दिन भर जाने किन कामो में उलझी मां .....ये सबका बचपन एक सा क्यों होता है....?

आती रहा कीजिये ...डेस्कटॉप आवाज नहीं देता ?????.....

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

हम चाँद को देखते और हमारी आँखों में नींद भर जाती । रात किसी वक्त , जब शीत गिरती और हम ठंड से सिकुड़ जाते , हमारे पैर हमारी छाती से जुड़ जाते , माँ हमारे शरीर पर चादर डाल देतीं और दुलार से हमारे बाल सहला देतीं । हम नींद में मुस्कुराते और अस्फुट बुदबुदाते , शायद समोआ और तिमोर और लीमा ।

प्रत्यक्षा जी,
आपका संस्मरण भी बहुत प्रभावशाली लगा……शब्दचित्र की ही तरह बांधने वाला……
हेमन्त कुमार

Vaibhav said...

मुझे पता भी नहीं चला कि पढ़ते पढ़ते कब बचपन में पहुँच गया

Rangnath Singh said...

really beautiful

विधुल्लता said...

प्रत्यक्षा जी ,मुझे आपके मोती जैसे सच्चे शब्द अच्छे लगते हें .अच्छा /खूबसूरत विवरण ...बचपन मैं लौटाता आलेख अब आप को क्या पुरुस्कार दिया जाय जाय आप ही बोलें ..पिछली कई पोस्ट आपकी देख नही पाई..पढूंगी जरूर

अनिल कान्त said...

ये सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश वाला ही है क्या ?

बेहतरीन लेखन...हर पंक्ति अपनी ओर खींचती सी है और बचपन में हाथ पकड़ कर ले जाती है

इरशाद अली said...

ओह! क्या ब्लाग पर ऐसा भी लिखा जा रहा है।

Bhavar Garg said...

मैंने दैनिक भास्कर के २६ जुलाई २००९ के रसरंग में आपकी कहानी मोहब्बत पढ़ी .
अच्छी रचना के लिए धन्यवाद
यह संस्मरण भी अच्छा लगा.
visit our blog
www.ruralphotography.blogspot.com/

Balram tripathi said...

gre8 madam,

i am balram from bhopal and i have read you in ''RASRANG IN LAST SUNDAY''.i m impressed too much with you may you give me some trick's.
i will thankfull to you allways.

my mail id is relianceinfo_balram@yahoo.com and must read my blog www.rajaursamaj.blogspot.com
my cell no. is +919302830003

thank's & rgrd
Balram.

डिम्पल मल्होत्रा said...

boht khoobsurat yadin......

Priyankar said...

स्मृति-सरोवर में कंकरी फेंकने का सलीका कोई आपसे सीखे .

Krati said...

loved it..heard it at Zubaan talkies.. its beautiful... :)