खुशी एक याद है । बचपन जैसे । फिर कैसे भूलती हूँ । वो रास्ता गुम हो जाता है समय में । पीछे पीछे पाँव रखते पहुँच नहीं पाती वहाँ जहाँ से सब शुरु हुआ था । उन दिनों को याद रखना इतना ज़रूरी क्यों था ? अब सिर्फ एक चीख की गूँज जैसा कुछ सिर्फ क्यों बाकी है ।
बच्चा ज़ोर से खिलखिलाता है । उसके चेहरे से धूप छिटकती है । मुड़ कर जाती हुई औरत देखती है , मुस्कुराती है फिर चल पड़ती है । हवा में अचानक जाने कहाँ से आये कपास के फूल तैर रहे हैं । तितलियों को देखे ज़माना बीता । और शायद कुछ दिनों में पेड़ और हरियाली को देखे भी , ऐसे ही ज़माना बीतेगा । मेरे आसपास लोग बात करते हैं , ज़ोर शोर से । शेयर प्राइइसेज़ और रियल एस्टेट के फ्लकचूयेटिंग रेट्स पर । आचार संहिता लागू हुआ तो अब किसी भी नये काम के लिये एलेक्शन कमीशन की अनुशंसा लेनी पड़ेगी । काम का लीन पीरीयड ..अच्छा है । बैंगलोर में कोई मकान खरीद रहा है । ई एम आई और ब्याज़ दर ..ये बैंक और वो बैंक , योरप टूअर के लिये एस ओ टी सी का शानदार स्कीम , स्पाउज़ की बजाय कम्पैनियन ले जायें पर ज़ोरदार कहकहा ..
कोई नहीं देख रहा कि अब तितलियाँ नहीं दिखतीं । या ये कि खुशी सिर्फ गये दिनों की याद है । या ये कि काम क्यों रुक रहा है ? इसीलिये हम अभी तक इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में इतने कंगाल हैं , सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर क्यों ? और हर मामले में ..बस कंगाल । भावनात्मक रूप से भी ..गरीब गरीब। किसी तरीके का बोध हम में नहीं है । मोहन-जो-दारो और हरप्पा बनाने वालों की संततियाँ कूड़े के दलदल में बसती हैं । सामने शीशे की विशाल खिड़कियों से मेट्रो का घुमावदार कंक्रीट दिख रहा है । उसमें भी एक तरीके की सुंदरता है । स्लीकनेस है , नई तकनॉलॉजी का क्या शानदार नमूना है । कुछ कुछ ‘द ग्रेट बाथ’ जैसा ही शायद। फिर यहाँ से वहाँ जाना कितना सुविधाजनक , नहीं ? पीले सेफ्टी हेलमेट में मजदूरों की शक्ल की भुखमरी नहीं दिखती । सिर्फ रौशन पीलापन दिखता है , कंक्रीट कर्व का स्लीकनेस दिखता है । हम उतना ही देखते हैं जितना देखना कम्फर्टेबल होता है । रिश्तों में भी तो । हम ऐसे ही ब्रीड के हैं। हमारे आसपास भय का गहरा कूँआ तैरता है , अनाम चीखों का और हम पुरज़ोर कोशिशों में लगे हैं , अपने आप को बचा लेने की, अपनी आँखें और कान बन्द कर लेने की। हम सब इस पृथ्वी के शुतुर्मुर्ग हैं ।
मैं क्लयरवॉयेंट हूँ । चीज़ों के घट जाने का अभास एक छाया है । मैं सिद्धार्थ बन कर निकल जाऊँ कहीं और बुद्ध बन जाऊँ ? या कहीं किसी गाँव में संतरे के पेड़ के नीचे बैठकर होमर पढ़ूँ या मेघदूतम । एक महक आती है , सूखे पत्तों के जलने की । धूँये का स्वाद मुझे अच्छा लगता है । मुझे लगता है कि मैं भारी लती बन सकती हूँ । धूँये का स्वाद कूँये के पानी के स्वाद सा लगता है । कल सबसे तीव्रता से ऐसा लगा । पीछे , कॉल सेंटर की बिल्डिंग से लड़के और लड़कियों की चहचहाहट सुनाई देती है , फिर एक तेज़ आवाज़ , डोंट एवर कॉल मी नाउ । मैं मुड़ कर देखती हूँ । अँधेरे में कोई लड़की शायद सेलफोन पर अपने दोस्त से झगड़ा कर रही है । मैं अँधेरे में उठते धूँये को , जिसमें युक्लिप्टस की पत्तियों की खुश्बू है , छाती में भरते सोचती हूँ अँधेरी रात और निर्वाण का कैसा अनोखा संबंध है ।
(Edvard Munch ..The Scream )
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
11 comments:
आत्मा पर वार, दिल और दीमाग में उथल - पुथल मचाती यह चीख!
चीजों के हरपल बदलते इस दौर का साक्षी बनना काफी पीड़ादायक होता है प्रत्यक्षा। जलतरंगों पर उमड़ती कोमल भावनाओं को बचा ले जाना इस कठिन वक्त में इंसान की सबसे बड़ी सुरक्षा है।
और सुरक्षित हैं आप। जिंदा होने के एहसास के साथ दर्द भी होगा ही।
good work on words.....keep writing such nice stuff...
वही ताल, वही शब्द, वही जादू। वही सुकून सा मिला पढकर।
बहुत लाजवाब आभार.
और हर मामले में ..बस कंगाल । भावनात्मक रूप से भी ..गरीब गरीब.......garib hi nahi puri tarah se kangali halat me basar kar rahe hai sirf dekhane ki jarurat hai.........kitana aapne sach kaha hai ki khushiya aaj sirf bachapan ki baat ho gayi hai......bharosa itihas banker rah jati hai kisi ke jiwan me..........bahut khub .................
प्रत्यक्षा जी ,
आपकी हर पोस्ट एक नयापन लेकर नए शब्द विन्यास के साथ आती है ....
हेमंत कुमार
अपनी व अपने की चीख के सिवाय हम कोई अन्य चीख सुनना नहीं चाहते, उसके होने पर भी विश्वास नहीं करना चाहते। सुनना शुरू करेंगे तो जीयेंगे कैसे?
घुघूती बासूती
दरअसल रोज हम एक नया दिन ढोते है भीतर ही भीतर .ओर उलीचते है अपने आप को ....पर फिर भी बाहर सब कुछ खाली दिखता है .
तमाम जददो जहद के बावजूद ...खालीपन खुद अपना घर नहीं छोड़ता .... आपकी रचन बहुत अच्छी लगी
yes
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