2/02/2009

मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ ..

तुमने कहा था – मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ .. ढेर सारी सूखी पत्तियाँ फिर भी झरती रहतीं हैं । बचपन में देखे पोस्टकार्ड्स में पीले और सुर्ख पत्तों से भरे बाग के नीचे एक अकेला बेंच। कुछ कुछ उस फेल्ट लगाये दढ़ियल बूढे की हल्के नशे में बेहद नरम उदासी से बार बार मेर्सी कहना , किसी फिल्म का अटका कोई दृश्य । मुझे कई बार लगता है मैं कोई सोख्ता हूँ और सब एहसास एक एक करके मुझमें जज़्ब होते रहते हैं । मोटी किताबों की कहानियाँ जो भीतरी तह तक रिस कर कहीं लुकछिप बैठी रहती हैं और त्वचा से साँस लेती ज़िंदा रहती हैं और कभी भी , जानते हो, के साथ बाहर उचक कर आ जाती हैं ।

मैं तुम्हें कहानी सुनाना चाहती हूँ , तमाम कहानियाँ जो मैंने अब तक देखी पढ़ी हैं , और सारे नये शब्द जो मेरी ज़ुबान पर आ कर चिपक जाते हैं , जैसे कल मैंने पढ़ा ..नदामत ..शर्मिंदगी । और याद करती रही कि इस शब्द को और कब कब बिना अर्थ जाने पढ़ा है और कितनी बार तुम्हें नहीं बताया है या फिर कितनी बार ये कहकर , सुनो तुम्हें एक बात बतानी थी पर अब भूल गई हूँ कह कर सचमुच भूल गई हूँ ।

या ये कि मैं बकलावा बनाना सीखना चाहती हूँ और तुम मुझे मोरक्को ले जाओगे ? अकॉरडियन की धुन वहीं सुन लेंगे और वहीं से निकल पड़ेंगे किसी और देश । या फिर ये कि आज नहीं करनी कोई राजनितिक बहस या आर्थिक मन्दी पर सर नहीं फोड़ना । ये सब मैंने औरों के साथ कर लिया है , और ये कि परसों, मैं दिनभर किसी कम्पनी के बैलेंस शीट को अनलाईज़ करती रही और अब दुखते कंधे लिये और भारी सर लिये कहीं शब्दों की यात्रा पर निकल पड़ना चाहती हूँ , कि कल मैं सारे दोपहर ऐनी आपा को पढ़ती रही और उदास होती रही कि कभी मिली क्यों नहीं , क्या इसलिये कि मेरी भीतरी औरत उनके बाहरी और भीतरी औरत जैसी है , हू बहू वैसी और इस नाते मैं उनसे जुड़ी हूँ , समय , उम्र के परे , मौत के भी परे । कि उनके शब्द मेरे अंदर एक दुनिया रच देते हैं शायद बिलकुल वैसी दुनिया जैसी उन्होंने देखी थी और मैं देखती हूँ उनके शब्दों से , या उसके परे भी जैसे हर साँस के बाद एक और साँस ज़्यादा भीतर आये , जैसे मैंने बिना देखे भी देख लिया और बिना छूये भी छू लिया । या ये कि , जानते हो कल मैं एक उदास सुखी कर देने वाले सफर पर थी ..पाकिस्तान , सिंध , कोलंबो और उससे भी ज़्यादा ..किसी के भीतर की यात्रा , उसे उसके शब्दों के ज़रिये जानने की दिल तोड़ देने वाले अनुभव , कि देखो अब तक जैसे कुछ जाना ही न था , जैसे परदा अचानक उठ गया हो और धूप खिल गई हो । खूब खूब उदास चेहरे पर हँसी की आभा देखी है तुमने ? रक्त मांस मज्जा के भीतर छू कर देखा है तुमने ? किसी की दुनिया कितनी वाईब्रैंट हो सकती है इसका अंदाज़ा है तुम्हें ?

मैं भी बजाना चाहती हूँ अकॉर्डियन या फिर कोई सा भी सितार । डूब जाना चाहती हूँ फिर हँसना भी चाहती हूँ । तुम भी जानते हो न कैसी बेचैनियों भरी उदासी में भी कैसे कोई गहरा कूँआ खिल जाता है , मीठे पानी का सोता फूट पड़ता है । उसी उदासी के साये में कैसी अमीर खुशी कौंध पड़ती है । आई फील रिच । ऐसी अमीरी ..जानते हो न तुम ।

तुम कहते हो संजीदगी से - मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ ..

(शगाल ... वायलिन वादक ..अकॉर्डियन नहीं , न सही )

13 comments:

neera said...

औरत की दुखती रगों पर हाथ रख दिया वो भी इतनी खूबसूरती से...

ravindra vyas said...

मैंने आपसे मार्क शागाल का पहले भी जिक्र किया था। आपकी दो पोस्टें एक साथ पढ़ीं और दोनों में अपने प्रिय चित्रकार की पेंटिंग्स देखकर तबियत हरी हो गई। शुक्रिया।

डॉ .अनुराग said...

गुजर जाती है यूँ उम्र सारी
किसी को ढूंढते है हम किसी में --

-निदा फाज़ली

अजित वडनेरकर said...

नीरा जो कहती हैं वहीं कहना चाहता था....

संगीता पुरी said...

बहुत अच्‍छा...

roushan said...

खूब खूब उदास चेहरे पर हँसी की आभा देखी है तुमने ?
रक्त मांस मज्जा के भीतर छू कर देखा है तुमने ?
किसी की दुनिया कितनी वाईब्रैंट हो सकती है इसका अंदाज़ा है तुम्हें ?
..जानते हो न तुम

कई बार सवाल ऐसे भी होते हैं
जैसे याद दिलाना होता है कि मुझे याद है कि तुम्हे ये भी पता है !
या जैसे कुछ भी नही
बस यूँ ही मन था कह दिया क्या हुआ कि वो सवाल सा लगा

सच इन्तजार रहता है आपकी पोस्ट का

Himanshu Pandey said...

पूर्ववत प्रभावपूर्ण.

शायदा said...

पिछली चार पोस्‍ट बार-बार पढ़ीं, बहुत अलग रंग लिए हैं। बहुत सुंदर, बहुत ख़ूब।

गौतम राजऋषि said...

कई दिनों बाद आया हूँ...कल ही तो पढ़ा है "शारूख,शारूख,...."
और आज धीरे-धीरे करके पीछे छूटे सारे पोस्ट

शब्दों के ये रंग बड़े हसीन हैं

निशा said...

जब से मेरे एक दोस्त ने मुझे आपका ब्लॉग पढने को कहा है तब से रोज पढ़ती हूँ और समझने की कोशिश करती हूँ आज लग रहा है की अब कुछ समझने लगी हूँ और जुड़ने लगी हूँ उस उधेड़बुन से जो आपके ब्लॉग में चलती रहती है

Krishna Patel said...

bhawanaao se paripurna

Anonymous said...

काफी अच्छा लिखा है
आप और गौरव सोलंकी दोनों का अंदाज अलग है
और मुझे दोनों बहुत पसंद हैं
प्रशांत मलिक

Anonymous said...

it seems that someone sheding tears on the lonely planet, as someone pushed hard on the margins of the dried and deserted life. here revolts the life inside, and the imaginition is set free beyond the known horizons. it is the point where one can set off like Blake, to 'feel the universe in a grain of sand'.
but, instead of setting off towards an endless and bottomless world, is it not the right place to penetrate deep down the unknown region inside the core of the earth?