हम जब बात करते हैं हमारे बीच की हवा तैरती है , तरल । तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन कई बार मैंने देखी है मछलियाँ , छोटी नन्ही मुन्नी नारंगी मछलियाँ , तैरते हुये , लफ्ज़ों के बीच , डुबकी मारती , फट से ऊपर जाती, दायें बायें कैसी चपल बिजली सी । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?
मैं जवाब में मुस्कुराती हूँ , तुम्हारी बात पर नहीं । इसलिये कि कोई शैतान मछली अभी मेरे कान को छूती कुतरती गई है ।तितलियाँ भी उड़ती हैं कभी कभार । और कभी कभी खिड़कियों पर लटका परदा हवा में सरसराता है । हमारी कितनी बातें घुँघरुओं सी लटकी हैं उसके हेम से । मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है ।
तुम यकीन नहीं करोगे । दीवार पर जो छाया पड़ती है , जब धूप अंदर आती है , उसके भी तो निशान जज़्ब हैं हवा में । सिगरेट का धूँआ , तुम्हारे उँगलियों से उठकर मेरे चेहरे तक आते आते परदों पर ठिठक जाता है । मैं कहाँ हूँ पैसिव स्मोकर ? न तुम्हें नैग करती हूँ , छोड़ दो पीना । सिगरेट का धूँआ मुझे अच्छा लगता है । मैं मुस्कुराती हूँ । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?
मैं सचमुच नहीं सुन रही तुम्हारी बात । मैं खुशी में उमग रही हूँ । मैं अपने से बात कर रही हूँ । परदे के पीछे रौशनी झाँकती सिमटती है । उसके इस खेल में रोज़ की बेसिक चीज़ें एक नया अर्थ खोज लेती हैं , जैसे यही चीज़ें ज़रा सी रौशनी बदल जाने से किसी और दुनिया का वक्त हो गई हैं । तुम सचमुच यकीन नहीं करोगे
लेकिन कई बार मेरी छाती पर कुछ भारी हावी हो जाता है जो मुझे सेमल सा हल्का कर देता है । तब छोटी छोटी तकलीफें अँधेरे में दुबक जाती हैं । मेरा मन ऐसा हो जाता है जैसे मैं आकाशगंगा की सैर कर लूँ , दुनिया के सब रहस्य बूझ लूँ , पानी के भीतर , रेगिस्तान के वीरान फैलाव के परे , चट नंगे पहाड़ों के शिखर पर ..जाने कहाँ कहाँ अकेले खड़े किन्हीं आदिम मानवों की तरह प्राचीन रीति में सूर्य की तरफ चेहरा मोड़ कर उपासना कर लूँ ।
परदा हिलता है , रौशनी हँसती है , अँधेरा मुस्कुराता है । तुम कहते हो ,
मेरी बात नहीं सुन रही ?
तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन अब मैं सचमुच तुम्हारी बात सुन रही हूँ ।
(रौशनी और अँधेरे का खेल एक दोपहर)
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
18 comments:
प्रत्यक्षा, बेहद सुंडर...शब्दों का ऐसा ताना बाना कैसे बुन लेती हैं आप? कोई तुलना ही नहीं...
बहुत ही सुन्दर लिखती हैं आपकी हर बात दिल को छूती है...
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
सचमुच ...अच्छा है।
हम आप का लिखा नही पढ़ रहें हैं आप का देखा देख रहा हैं और महसूस किया महसूस कर रहे हैं
यही तो हैं न शब्दों का जादू!
गुलज़ार की एक नज़्म याद आ गयी ...लेंड्सस्केप
दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब
एक जवाँ पेड़ के पास
उम्र के दर्द लिए वक़्त मटियाला दोशाला ओढ़े
बूढ़ा-सा पाम का इक पेड़, खड़ा है कब से
सैकड़ों सालों की तन्हाई के बद
झुक के कहता है जवाँ पेड़ से... ’यार!
तन्हाई है ! कुछ बात करो !’
एक दोपहर को भी आपने लफ्ज़ दे दिए गोया.....
शब्दों का ये जादू सिर चढकर बोलता है।
iss maahaul me basney ko jee karta hai
बहुत सुन्दर कलाकार हैं आप. बनाती हैं खूब सुन्दर से शब्द-चित्र.
प्रविष्टि के लिये धन्यवाद.
very nice...you have serious skill :)
WAAAAAAAAHHH !
prashansha karna chahati hun par shabda kaha se lau.n
अह्हा!! हवा में तैरती मछलियाँ-अद्भुत!!
दोपहर पर भी इतना सुंदर लिखा जा सकता है...!!!!
words! meaning! pictures, touches -everything multidimensional!
Amazing!
bahut achchha likha hai.
कितना सुँदर लिखती हो प्रत्यक्षा ..
- लावण्या
प्रशंसा के लिए शब्द कम हैं ..... काबिले तारीफ
अनिल कान्त
http://www.anilkant.blogspot.com/
अभी आपकी कहानी पढी ग्यानोदय मे।
अद्भुत
इस पोस्ट पर कभी आराम से टिप्पणी करुन्गा…रास्ता देख लिया है आता रहुन्गा।
कभी फ़ुर्सत मे देखे मेरी कविताये
http://asuvidha.blogspot.com
पर
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