11/04/2008

यादें खोल में बन्द कछुआ हैं

उस वक्त रात भी ठीक से नहीं थी । कोई समय था दिन और रात के बीच बीच का अनक्लेम्ड हिस्सा .. बेरंग और अकेला और कैसी पागलपने सी चाह हो रही थी कि बस तुरत रात घिर आये । और ऐसे में जब सब इन्द्रियाँ इंतज़ार में चौकन्नी बैठी थीं , उसी वक्त थोड़े से बसियाये आलू के पराठे जिसके कोने नमी से सफेद हो जाते हैं , भिंडी के भुजिये और आम के अचार की ऐसी तेज़ भभक उड़ी कि मन एकदम बौरा गया । किसी सफर में , ट्रेन में , पीले बत्ती के गर्माये रौशनी में ..कोई साथ के बर्थ पर बैठा जोड़ा अपने खाने का टिफिन निकालता ..सलीके से स्टील के गोल गोल चार डब्बों से पूड़ी , आलू की सूखी तरकारी , लाल मिर्च का भरवां अचार और बून्दी का लड्डू ऐसे भूख की मरोड़ उठाता कि अपने बेसलीके से पैक किया गया खाना हड़बड़ाहट में बेशउरी से निकलता .. अखबार में लपेटा खाना । भुजिये से तेल की परत पूरे अखबार को पीला तेलाईन कर चुकी होती , इतना कि रुमाल निकाल कर पैकेट खोलते हाथ पोछना पड़ता .. अखबार खोल लेने पर चार बड़े मोटे , आलू से ठसाठस भरे पराठे के बिस्तर पर महीन कटे भिंडी के भुजिये की जान मारू सुगंध ..और ठीक एक कोने में सौंफ झलकता मोटे फाँक का आम का अचार । पूरा कम्पार्टमेंट ऐसे मनोयोग और तल्लीनता से सर झुका कौर गटकता जैसे इसी हरेक कौर में प्राण बसे हों , जैसे सारी इन्द्रियाँ एकत्रित हो गई हों बस स्वाद को अनुभव करने के लिये


दूसरी साँस ली और महक गायब । उफ्फ ! करवट लिया , साँस ली और एकबार फिर वही सुगंध

सुनो , तुम्हें बताना चाहती हूँ , पूछना चाहती हूँ , आती है तुम्हें भी खुशबू ..उस बीते बचपन की , उस बीते समय की , लौकी के बचके और साग के पत्ते की पकौड़ी की , मुँगौड़ी और बैंगन बड़ी की , मूली के पत्ते के साग की , तिल तिलौड़ी की , गरम गरम भात और राहड़ के दाल पर माँ का कलछुल में ताज़ा करकराया शुद्ध घी ऊपर से गिराने की , लौंगलत्ता और खाजा की , धूप में बैठ मूग़फली टूँगने की , कोयले के चूल्हे के उठते भरते धूँये की , किसी बीती स्मृति में बूढ़ी नानी के हुक्के की , मसहरी के भीतर घुस कर चन्द्रकाँता और भूत नाथ पढ़ने की, बारिश के दिनों में सीले कपड़ों की महक और छुअन के बीच कुर्सी पर गोलमोल कज़ाक और नाना पढ़ने की ..

धीरे धीरे स्मृतियों की महक भारी होने लगती है ..वो दिन सब विलुप्त हुये ..शायद कहीं किसी गाँव कस्बे में बचे हों ..शायद या क्या पता वहाँ भी आलू के पराठे की जगह पैटीज़ और पफ्स की सुगंध उडती हो । हमारे जीवन से ऐसी सब चीज़ें अब सिर्फ स्मृतियों में शेष हों , कि हमारे बच्चे भौंचक आँखों से ऐसे किस्से सुनते अचानक उकता कर खेलने भाग जायें , कि उनके बच्चे ऐसे शब्दों , ऐसी खुशबू , ऐसे कोमल महीन एहसास को बाहरी तौर पर भी न समझ पायें ... एक पूरी दुनिया , एक पूरा समय विलुप्त हुआ , अपने साथ साथ चलता किसी कछुये की खोल सा ..अब था ..अब नहीं ..!


ऐसी बेकार तकलीफ की चादर ओढ़े मैं इंतज़ार करती हूँ रात का .. टीवी पर ‘लिटल वोमन’ देख रही हूँ और याद कर रही हूँ कि जब पहली बार पढ़ा था बचपन में तब उन मार्च बहनों की कहानी पढ़कर कैसी धूप धूली उदासी और खुशी मिली थी ..फिर सोचती हूँ ..यादें भी एक किस्म का ट्रैप हैं , टखने में पड़ी बेड़ी है , उन बेड़ियों की स्मृति हैं , रगड़ खाती है हर वक्त .. चोट देती हैं हर वक्त । फिर भक्क से रात के अँधेरे में धूप का जगमागाता टुकड़ा भी जला देती हैं कई बार । कई कई बार ।

17 comments:

MANVINDER BHIMBER said...

ek pyara sa ahsaas jiska falsafaa bahut gahra hai......bahut sunder

roushan said...

जब सब कुछ बदलता ही जा रहा हो तब कहाँ बच पाती हैं खुशबुएँ.
बस याद रह जाती है पुराने मौसमों की
गाँव छूटे, कसबे छूटे अब तो शहर भी छूट रहे हैं शायद महानगर भी छूटेंगे.........
न जाने कहाँ तक
खैर
आपकी शैली बदल गई! पुरानी वाली ज्यादा अच्छी थी कुछ खोयी खोयी सी एक अनवरत उधेड़बुन जैसी.
हो सके तो उस उधेड़बुन को भी जारी रखियेगा

Anonymous said...

Shayad hindi par pakar majbut ho rahi hai ya paripakwata ka ahsas u hi ho raha hai
chalu rakhiye achha hai

ravindra vyas said...

आप विवरणों को भी सलीके से निभा ले जाती हैं।

Arun Aditya said...

भूली हुई खुशबुओं के प्रति आपकी यह बेकरारी गैब्रिएल गार्सिया मारक्वेज के fragrance of guava की याद दिलाती है।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अजी ऐसा तो मत लिखा कीजिये.....भरा-पुरा अघाया हुआ पेट भी साला दुबारा कुनमुनाने लग जाता है...हजारों किलोमीटर दूर बैठों की नाक भी सूंघ लेती है खाने की सौंधी-सौंधी गंध को.....किसी दिन खाने सहित आप जो गलती से ही मिल गई....तो झपट्टा ही ना मार बैठें हम आपके खाने पर...होशियार...खबरदार....हम जैसे भुक्खड़ हर जगह घुमते हैं......(अन्यथा ना लेंगी !!)

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अजी ऐसा तो मत लिखा कीजिये.....भरा-पुरा अघाया हुआ पेट भी साला दुबारा कुनमुनाने लग जाता है...हजारों किलोमीटर दूर बैठों की नाक भी सूंघ लेती है खाने की सौंधी-सौंधी गंध को.....किसी दिन खाने सहित आप जो गलती से ही मिल गई....तो झपट्टा ही ना मार बैठें हम आपके खाने पर...होशियार...खबरदार....हम जैसे भुक्खड़ हर जगह घुमते हैं......(अन्यथा ना लेंगी !!)

Anonymous said...

kya baat hai? ye padhkar toh mujhe apni mom ke haathon ke aaloo ke parathon ki khusbu yaad aa gayi,aur saath hi stovh par jooki maa ki tasvir bhi aakhon me jhlmila uthi. bahut sunder ahsas hai.

जितेन्द़ भगत said...

रात के सफर में ट्रेन से जाते हुए आपने खाने का जो जि‍क्र कि‍या है, उसकी महक पढ़ते हुए मुझे भी याद आ गई।
आपकी भाषा का स्‍तर साहि‍त्‍यि‍क है और इसलि‍ए मजेदार वि‍वरणों के बीच कुछ व्‍यंजनाओं की गूढ़ता आकर्षक लगी।

neera said...

बहुत ही सुंदर! कितनी सारी समृति की खुशबू ताज़ा हो गई है... जो हमारे बडों को विरासत में मिला हमें नही मिला, जो हमें मिला वो हमारे बच्चों को नही मिलेगा... क्यों दिल को कचोटती है समय की रफ़्तार में विलुप्त दुनिया...

Dr. Sudha Om Dhingra said...

प्रत्यक्षा, स्मृतियों को इतनी सुन्दरता से पिरोया है
कि अमेरिका में बैठे मैं भारत लौट गई--
हमारे पास तो सिर्फ़ स्मृतियाँ ही हैं--उन्हीं के सहारे
यहाँ समय कटता है. स्मृतियों कि महक चारों तरफ़ फ़ैल गई--
बहुत अच्छा लिखती हो---
सुधा

डॉ .अनुराग said...

खुशबु सी है जो नथुनों में भर गयी है....ट्रेन के हिचकोले भी.....लोगो की आवाजाही बस भूल गयी ...आपके लेखन में खाने का सम्बन्ध ....लगता है छूटेगा नही......पर दोपहर में कभी कभी जब भूख लगी हो ये सब भाता नही ...पता नही घर जाकर क्या मिले ?


हम में से हरेक के पास यादो का इक संदूक है....

Geet Chaturvedi said...

रसोई की यादें या यादो की रसोई .
पूरा छप्‍पनभोग है ये तो.

कैसी तो स्‍वादिष्‍ट-सी बेचैनी है. एक करवट और.

Anonymous said...

अतिसुंदर अच्‍छा लगा पढकर

अभिषेक मिश्र said...

सही कहा आपने. कभी भी अचानक भूली हुई यादों का कोई झोंका अचानक से आता है और हमें बचपन की किसी भूली हुई गली में वापस ले जाता है. भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

दीपक said...

यादें खतम कहा होती है !खेत की मेड बारीश स्कुल और डेस्क के उपर जमीं धुल ,बरगद का पेड ,तील के लड्डु सब कुछ याद है !!हाय!अफ़सोस अब वह सिर्फ़ याद ही है !!

योगेन्द्र मौदगिल said...

यादों के बहाने बहुत कुछ याद दिला दिया प्रत्यक्षा जी