11/04/2007

ईवनिंग ब्लूज़


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
सड़कों पर साँझ उतर रही है । आसमान धूसर मटमैला है । नीचे एक भूरी बिल्ली उदास आँखों से छज्जे को देखती , झाड़ियों में बिला जाती है । पंछियों का लौटना भी जैसे उदासी का ही कोई राग हो । जैसे खत्म होने को दोहराता हुआ । लौट जाना भी जैसे खत्म होना होता होगा । पेड़ों के पत्तों पर से अँधेरा गहराता है । कुछ देर में नीचे शाखों से होकर ज़मीन तक फैल जायेगा ।

मन उदास बेचैन है । पचास चीज़ें उभचुभ कर रही हैं ,जी किसी में नहीं रम रहा । सामने के घर के छोटे लॉन में कुर्सियाँ लगी हैं । बगल में मेज़ पर क्रिस्टल ग्लासेज़ हैं , वाईन की बोतल । शायद कोई छोटी सी पार्टी । धीमा संगीत उठकर ऊपर मुझ तक आता है । अँधेरे में चुप बैठे सोचती हूँ कितने काम करने हैं , कितने बिलकुल नहीं करने । करने न करने के बीच मन यो यो जैसा डोलता है । कितना पढ़ना , कितना सीखना , कितना संगीत सुनना , कितना खाना चखना पकाना । कितनी दुनिया देखनी है । कितनी यायावरी , कितना पागलपन, कितना मिलना कितना छूटना । कितना कितना करना । मैं चुपचाप ढ़लती साँझ में बिना कुछ किये बैठी समय का बीतना महसूस करती हूँ । एक नशे में धुत्त पागल ऐडिक्ट वेटिंग फॉर अ फिक्स ?

12 comments:

काकेश said...

दूर शिखर कोरों से
मस्त मस्त मदिर मदिर
उतर रही सांझ ....
उतर रही सांझ ....

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया उड़ान है।

Atul Chauhan said...

जिंदगी कभी-कभी उदासीन हो जाती है। मगर कुछ देर के लिये………यदि मन और कहीं लगा लिया जाये तो शायद कभी-कभी हल निकल आता है। आपके विचारों कि मैं कद्र करता हूं।

Unknown said...

मैं तो समझ रही थी कि कि मैं अकेली इस बिमारी से पीड़ित हूँ....

ब्लू भी बड़ा कलरफुल है।

अजित वडनेरकर said...

दुविधा सनातन है-

ये करें और वो करें
ऐसा करें , वैसा करें
ज़िंदगी दो दिन की है
दो दिन में हम
क्य-क्या करें ?

सादगी से कहा आपने भी....

अनूप शुक्ल said...

इतना उदास कि पोस्ट भी छोटी कर दी। :)

sanjay patel said...

अपने से मुलाक़ात है ये
शब्द के सपने से मुलाक़ात है ये
पलट रहा हो पन्ने जैसे कोई ज़िन्दगी के
मौन में अपने से बात है ये

Udan Tashtari said...

सही फ्लाईट.

अविनाश वाचस्पति said...

आपकी मेल नहीं मिली इसलिए यहीं पर धन्यवाद।

Yunus Khan said...

इस शाम तक देर से आया । ये निर्मल वर्मा वाली शाम लगी ।
वैसी उदास शाम जैसी मुंबई में हम समंदर के किनारे गुज़ारते रहे हैं ।
इसी शाम पर शायरों ने कितना कुछ कहा है । हम अपने को रोक नहीं पा रहे कुछ शेर ठेलने से--

यूं तो हर लम्‍हा तेरी याद का बेकल गुजरा
दिल को महसूस हुई तेरी कमी मगर शाम के बाद ।।

दिन तो दुनिया के ग़मों से फारिग़ नहीं होता
दिल को महसूस हुई तेरी कमी मगर शाम के बाद ।।

सरेशाम उदास हैं तो क्‍या नाउम्‍मीद तो हम नहीं
जिंदगी हम जैसों को ज्‍यादा ना ठुकरा पायेगी ।।

आखिरी शेर कहने की हिमाकत इसी बंदे ने की है ।

सुनीता शानू said...

प्रत्यक्षा दीदी क्या बात है इतनी उदासी क्यों...वैसे आपने सच ही लिखा है जब मन बोझिल नजरों से ताकता है सांझ का धुधलापन और घेर लेता है...यह अंतर्द्वंद सभी के साथ चलता ही रहता है मगर....फ़िर भी जीना है जिन्दगी को एक खूबसूरत कविता की तरह जो सभी के दिल पर राज करती है...

आप १२ तारीख को सादर आमंत्रित है...आईयेगा...

सुनीता(शानू)

Amit Anand said...

पद्मा सचदेवजी की एक कविता है -

" कितनी बंधन मुक्त हो जाती है वो शाम
जब घर जाने का मन नहीं करता
कितनी अपनी हो जाती है
कोलतार से लिपटी हुई वो सड़क
जब उस पर चलने वाला
कोई भी मुझे नहीं पहचानता.. "

मुझे माफ करें कि इससे आगे अभी याद नहीं है लेकिन ईवनिंग ब्लूज़ ने मन के उस कोने को छेड़ दिया, जिसे हम सब सभी एक-दूसरे से छुपाते भी हैं और एक-दूसरे को सुनाते भी हैं । धन्यवाद आपको