9/13/2007

हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं

हमारी बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स में छोटे मोटे काम करने वालों की एक मोबाईल फौज़ है । घर में काम करने वाली बाई से लेकर साफ सफाई वाले कर्मचारी , माली , रोज़ाना कूडा उठानेवाले , सेक्यूरिटी गार्डस , दूध बाँटने वाले लडके , लौंड्री वाला छोकरा , पेपर बाँटने वाले दो तीन लडके , रोज़ सुबह सवेरे फूल पहुँचाने वाला बालक । कितने लोग हैं । इतने दिन बीतने पर सब चेहरे जाने पहचाने । सवेरे की चाय पीते नीचे झाँकते गेट से एक फौज़ साईकिल चलाकर आने वाली औरतों की होती है । जवान , अधेड , बांगला साडी में , सलवार कुर्ते में अपने अपने गेटपास पकडे तेज़ चाल दौडती भागती औरतें ।

ज़्यादातर बंगाली औरतें । ठीक से हिंदी नहीं बोल पाने वाली फिर भी हँस कर इशारे इशारे में टूटी फूटी हिन्दी में बांग्ला मिलाकर काम निकालने वाली औरतें । कुछ दिन पहले मैंने दरयाफ्त किया अगर कोई खाना बनाने वाली मिल जाय , साफ सफाई वाली मिल जाये । गेट पर गार्ड को कहा । अगली सुबह दो औरतें हाज़िर हुई । मैंने नाम पूछा । अधेड उम्र की औरत ने बताया आशा और उसकी पच्चीस छब्बीस साला शादीशुदा बालबच्चेदार बेटी ने बताया ,मंजू । दोनों काम पर लग गईं । काम ठीक ठाक चल रहा था । पर एक चीज़ मुझे परेशान कर रही थी । जब भी मैं आशा या मंजू पुकारूँ कोई रेस्पांस नहीं । शायद माँ बेटी कम सुनती हैं ऐसा विश्वास होने लगा था । भाषा की समस्या तो थी ही । कुछ पूछने पर पता नहीं किस तरह के आँचलिक बंग्ला में भगवान जाने क्या बोल देतीं । जोड जाड कर कुछ अपनी समझ से मैंने एक नक्शा उनके रहन सहन का खींचा था । बंगाल के किसी अझल देहात के सिकुडते बँटते खेत और मछली के सूखते पोखर , कर्ज , गरीबी , बडे शहर के कमाई के असंख्य मौकों की मरीचिका कितना सब तो था जो इनको खींच कर यहाँ लाया था । ज़्यादातर , घर के आदमी रिक्शा चला रहे थे , गाडिय़ाँ धोने का काम कर रहे थे और औरतें दूसरे घरों में खाना पका रही थीं , झाडू पोछा बर्तन कर रही थीं । गाँव से बेहतर कमाई हो रही है , सेकेंडहैंड साईकिल खरीद लिया है , साडी छोड सलवार कुर्ता पहनना शुरु किया है , साडी साईकिल में फँसती है , ऐसा मंजू एक लजीली मुस्कान से कहती ।

फिर एक दिन गेट पास की समस्या हुई । नया बनवाना था । तब मैंने देखा कि आशा तो आयेशा थी । मंजू मेहरू । दोनों बांग्ला देशी रिफ्यूज़ीज़् शायद । पर अब भी कहती हैं नहीं बांग्ला देशी नहीं हैं । नाम क्यों छुपाया पर सीधा जवाब , कि मुस्लिम समझ कर खाना पकाने का काम कोई नहीं देता । अगर देते भी हैं तो पैसे कम देते हैं । तो उनके बुलाने पर अनसुना करने का राज़ खुला । मैंने कहा मुझे फर्क नहीं पडता । ये और बात है कि अब मुँह पर आशा और मंजू नाम चढ गया है और उन्हें भी अब तक इस नये नाम की आदत हो गई है । ईद की छुट्टी वो लेती हैं , दीवाली की मैं दे देती हूँ ।

बहरहाल इस पूरे प्रसंग से मुझे अजीब तरह का डिज़ोनेंस हुआ । अब भी लोग इन बातों को मानते हैं , छुआ छूत में विश्वास करते हैं । और ये सब किसी गाँव देहात में नहीं बल्कि तथाकथित कॉस्मोपोलिटन , पढे लिखे अपवर्डली मोबाईल लोगों के समाज में हो रहा है । इस बात का ज़िक्र मैंने कुछ लोगों से किया । किसी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई । एकाध ने ये भी पूछा , आप अब भी उनसे खाना पकवा रही हैं ?

मुझे क्षोभ और ग्लानि हो रही थी । और जिस मैटर ऑफ फैक्ट तरीके से आशा मंजू और उनके अन्य साथिनों ने इसका हल निकाला था ,उस मैटर ऑफ फैक्टनेस से भी मुझे समस्या हो रही थी । जैसे कि इससे ज़्यादा और नैचुरल बात क्या होगी कि उनसे खाना कौन पकवायेगा । इस बात का अक्सेपटेंस उनकी तरफ से सहज था । तुम्हें गुस्सा नहीं आता , ऐसा पूछने पर सयानों की तरह मंजू ने कहा था , ऐसा तो होता ही है दीदी , इसमें गुस्सा कैसा । फिर सोचने पर लगा कि उनकी तरफ से और किस तरह के प्रतिक्रिया की मैं उम्मीद कर रही थी । उनके सामने दो वक्त की रोटी की समस्या है , और चीज़ों की चिंता का वक्त और उर्ज़ा कहाँ से लायें । पर जिनके पास रोटी की चिंता नहीं है , जिनके पास कुछ हद तक वक्त है , उर्जा है वो क्या सोचते हैं इस विषय पर । ये किस तरह की शिक्षा है , हम कैसे शिक्षित हैं , कैसे सभ्य सुसंस्कृत हैं जो कई मूलभूत मुद्दों पर , ” ऐसा तो हमारे बाप दादा के ज़माने से होता आया है , तो कुछ सही ही होगा , हम क्यों बदले , या हम ही क्यों बदलें “ वाले जिद पर अडे हैं ।

आप क्या सोचते हैं ? क्या हम वहीं के वहीं आज भी खडे हैं ? किसी मानसिक विकास पथ के यात्री हम क्यों नहीं हैं ? एक बेसिक सहृदयता , तार्किकता , संवेदना क्यों हमारे जीवन में ऐसी दुर्लभ कमोडिटी है ? अब हो गई है या हमेशा से थी ? आप , सच क्या सोचते हैं ?

8 comments:

Unknown said...

दूरी (distance)काफी तय की है पर विस्थापन (displacement) शून्य है।

Dr Prabhat Tandon said...

बदलाव की प्रक्रिया भले ही धीमी है लेकिन है तो सही ! जैसे आपने प्रत्यक्षा जी इस बदलाव को अपने अन्दर महसूस किया है , वैसे और भी हैं ।

Udan Tashtari said...

आप जिन्हें पढ़ा लिखा कह रही हैं वह आदमी और औरतें हैं. उनमें और इंसानों में जो भेद होता है वही आप तलाश रही हैं इस कथनी के माध्यम से.

राकेश खंडेलवाल said...

अपने ही खींचे घेरे हं जो बांधे रखते हैं हमको
अंधियारे में रह जाती हैं रश्मियां तोड़ कर दम उस पल
यदि रेखाओं को तोड़ें हम तो सीमा पार सहज करके
मधुमास ज़िन्दगी के आंगन में फिरता है होकर चंचल

Yunus Khan said...

संयोग देखिए । एक वाक्‍य आपका है--संवेदना क्‍यों एक्‍सपेन्सिव कमोडिटी हो गयी है । महानगरों में
संवेदना है भी, इसकी पड़ताल करनी होगी । कभी कभार दिख जाए तो भरोसा जागता है । इसी हफ्ते
इसी मिज़ाज का दूसरा वाक्‍य सुना-ओ.पी.नैयर की पुरानी रिकॉर्डिंग सुन रहा था । वो कह रहे थे
सेल्‍फरिस्‍पेक्‍ट एंड इंटेग्रिटी आर एक्‍सपेन्सिव कमोडिटीज़ नाउ । एंड आई हैव पेड द प्राईज़ फॉर देम ।
अब इन सब बातों को जोड़ लीजिए । मायानगरी मुंबई में (या किसी भी महानगर)में संवेदना,सच्‍चाई और
और आत्‍म-सम्‍मान...ये तीनों चीज़ें मिल जाएं तो समझिये कि आप भाग्‍यशाली हैं । जैसे भगवान सबको
नहीं मिलते, जैसे पैसा सबको नहीं मिलता, जैसे किस्‍मत सबकी नहीं चमकती...वैसे ही हमारे शहरों में
अब संवेदना,सच्‍चाई और आत्‍मसम्‍मान को सभी बचा नहीं पाते ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

ऐसे ही कई मुद्दोँ के बारे मेँ मुझसे मेरे नये अमरीकन मित्र सवाल पूछा करते हैँ
क्यूँकि अमरीकन पुस्तकोँ मेँ भारत मेँ " Caste system " का प्रचलन है ऐसा सिखाया जाता है -
वे अक्सर कहते हैँ, " Our Genetors would be Untouchables in your view ? "
जेनेटर्र्स अक्सर स्कूल की इमारत तथा बाथरुम इत्यादी की सफाई करते हैँ ~~
और मैँ हमेशा उत्तर देती हूँ कि " स्थिती मेँ बदलाव आ रहे हैँ --

अनूप भार्गव said...

प्रगति हो रही है लेकिन उस गति से नही जितनी सम्भव है और जिस की हम अपेक्षा करते हैं ।
शिक्षा का उद्देश्य तभी पूरा होता है जब वह हमें एक बेहतर इन्सान बनाने में मदद करे ।

आभा said...

दीवाली की छुट्टी देकर अच्छा करती हैं