3/15/2007

पत्थर का चूल्हा , लिट्टी चोखा और गोर्गोंज़ोला पास्ता

नहीं इसबार फोटो नहीं है । पर पिछले चिट्ठे को अमल में लाते हुये हम पहुँच गये ‘स्टोन अवन “ यानि पत्थर के चूल्हे में । मेट्रो मॉल के फूड कोर्ट में एक रेस्त्रां है । दावा करते हैं कि इनका इतलियन खाना इनके इतैलियन रसोईये श्री अंतोनियो देत्त्रियो पकाते हैं श्री पीटर मिल्लर के साथ और इनके खाना पकाने का तरीका दो हज़ार साल पुराना है ,रोमन साम्राज्य के पाक कला सा स्वाद । अब हमें नहीं पता रोमन राजा क्या खाते थे । रोमन लोगों के बारे में हमारी जानकारी अस्टेरिक्स और ओबेलिक्स के कॉमिक्स में बेचारे रोमन सैनिकों की बेवकूफियों तक सीमित रही । बाद में जुलियस सीज़र पढकर थोडा ज्ञान में इजाफा हुआ पर बहुत ज्यादा नहीं ।

हमने ऑर्डर किया गोर्गोंज़ोला पास्ता । मज़ा आ गया सच । एकदम गरम भाप उडाता हुआ । फिर दूसरी टेबल पर दो लोगों को कुछ और खाते देखा । उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफेद कैसे या फिर घास हमेशा दूसरे के बाडे में हरा नज़र आता है जैसी कई लोकोक्तियों मुहावरों को सच साबित करते हुये हम अपना खाना छोड दूसरे का देख ललचाते रहे । फिर नहीं रहा गया तो पूछा और मँगाया , सीज़र्स सलाद । जितना सुन्दर देखने में था उतना ही खाने में । ये एकदम ठंडा था । भीतर तक तरावट वाली ठंडक और लेटस के पत्तों का करारापन । आजमाईये आजमाईये ।

लेकिन मज़े की बात कि घर लौटने पर अपना खाना याद आता रहा । लिट्टी चोखा पर हमेशा सत्तू का पराठा बाजी मार ले जाता है । फिर भी पटना में एकबार स्टेशन के पास किसी ढाबेनुमा जगह पर गये थे । संकरी सीढियों से ऊपर । खुली छत , घी में तरबतर लिट्टी और बैंगन टमाटर का गर्मागरम चोखा । आह ! क्या स्वाद ।

प्रमोद ने पिछली पोस्ट पर एक शब्द का इस्तेमाल किया था , “भकोसना” । अब पता चला कि इन अजदक और कस्बा और मोहल्ला वालों की पोस्ट पढकर मज़ा क्यों आता है । बिहारी बाबू और शशि जी की भोजपुरी पर बाँछे क्यों खिल जाती हैं । गुडगाँव आकर बिहारी हिन्दी क्यों इतनी प्यारी लगती है । प्रियंकर ,आपने लिखा है न केदार नाथ जी की कविता अपने चिट्ठे पर

जैसे चींटियां लौटती हैं बिलों में / कठफ़ोड़वा लौटता है काठ के पास …….
ओ मेरी भाषा !
मैं लौटता हूं तुम में
जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है मेरी आत्मा ।

तो अब पता चला कि मेरी आत्मा भी अपनी भाषा सुनने के बगैर अकड रही थी । अब जा कर कुछ तरावट आई है । एक लिस्ट बनानी है ऐसे शब्दों की जो छूट गये थे , भुला गये थे । अपने इलाके के शब्द ,जैसे आलू के चोखे में पका हुआ लाल मिर्च ।

4 comments:

Bhupen said...

एक बार मुझे भी एक दोस्त इटालियन कोपोचिनो पिलाने ले गई थीं. बहुत कड़वी थी. तब मुझे भी अपने हिमालय की ऊंचाईयों में मिलने वाली हर्बल टी याद हो आई थी. माफ कीजिए उसका पहाड़ी नाम मुझे याद नहीं आ रहा. वजह ये हो सकती है कि उसे हिमालय की ऊंचाईयों में तपस्या जैसा कुछ करने वाले बाबा लोग पीते और पिलाते हैं. आम पहाड़ी घरों में वो बहुत कम मिलती है. ट्रैकिंग के दौरान एक बार पीने का मौक़ा मिला था. अपने इतिहास-भूगोल की याद दिलाने के लिए आपका शुक्रिया.

SHASHI SINGH said...

बिल्कुल ठीक फरमाया आपने... अब देखिये न, आपका यह पोस्ट पढ़कर आज फिर दिल गार्डेन-गार्डेन हो गया। हालत तो यह थी कि नारद पर लिट्टीचोखा की बात हुई और हम लार टपकाते आ धमके आपकी यह स्वादिष्ट पोस्ट पढ़ने। - शशि सिंह

Anonymous said...

आप तो खाने के पीछे ही पड़ गई :)

अनूप शुक्ल said...

सही है। एक बार हमारे फ़ैक्ट्री में कुछ लकड़ियां मंगाई गईं। लकड़ियां कड़ी थीं और काम में आने लायक नहीं थी। साहब हमारे नाराजगी से बोले- अरे ये लकड़ियां नहीं हैं धन्नी हैं ,धन्नी। हम उनकी नाराजगी से बेपरवाह उनके फड़फड़ाते चेहरे को ताक रहे जहां से सालों बाद सुनाई देने वाला शब्द निकल रहा था- धन्नी( छतों को टिकाने के लिये लगाई जाने वाली लकड़ी)। भकोसना एक शब्द है जिसका मतलब ठूंस-ठूंस के खाना होता है। भकोसा या भकोसवा एक व्यंजन भी होता है जिसे दाल भरकर बनाया जाता है।