अभी हाल में निर्मल वर्मा की 'एक चिथडा सुख' पढी । दोबारा पढने के लिये सहेज कर रखा है । इसकी समीक्षा लिखने की सोच रही थी फिर याद आया कि उनपर एक लेख लिखा था जो शब्दाँजलि में छपा था । फिर से यहाँ डाल रही हूँ । कोशिश रहेगी कि अगले भाग में 'एक चिथडा सुख ' पर कुछ लिखूँ बाँटू ।
निर्मल वर्मा को पहली बार पढा जब स्कूल में थी । घर में किताबों की भरमार थी और मैं एक किताबी कीडा . जिस किताब पर हाथ लगता उसे पढ डालती . तो कई ऐसी किताबें भी उन दिनों पढी जो बडो के पढने की थी. ये बात और है कि अब बडे होने पर भी कई ऐसी किताबे पढती हूं जो बच्चो के लिये होती हैं.
खैर, जब उन दिनो उनको पढा था तब कई कहानियाँ समझ में नहीं आई थी. शायद कथा प्रधान नहीं थी . फ़िर बीच बीच में जब कभी उनकी कोई किताब हाथ लगी तो पढती गई और उनको पढने का आकर्षण प्रबल होता गया .उनकी एक किताब "लाल टीन की छत ", कालेज के ज़माने मे पढी थी . तब ऐसा लगा था कि कहीं बहुत दिल के पास पास की सारी बाते हैं. वो अनुभूति आज़ तक ताज़ा है.
निर्मल वर्मा का जन्म शिमला में हुआ था . उनकी कई कहानियां और उपन्यासों में पहाड के जीवन का छाप स्पष्ट दिखता है. बचपन की मनस्थिति का जो सहज चित्रण उनकी लेखनी मे दिखता है, कहीं से पाठक को खींच कर अपने बचपन में लौटा ले जाता है. उनके लेखन की सफ़लता शायद यही है.
साठ के दशक मे पूर्वी यूरोपिय देशो के प्रवास के दौरान लिखी गई कई कहानियाँ वहाँ के जीवन और प्रवासी ह्दय के अकेलेपन की पुकार को दर्शाता है. उनकी कुछ बेहद बारीकी से आँकी गई, खूबसूरत उदासी में लिप्त लँबी कहानियाँ और बेह्द उम्दा उपन्यास ,मन को मोह लेते हैं.खुद उनके शब्दो में ,
"लम्बी कहानियों के लिये मेरे भीतर कुछ वैसा ही त्रास भरा स्नेह रहा है, जैसा शायद उन माँओ का अपने बच्चों के लिये, जो बिना उसके चाहे लम्बे होते जाते हैं, जबकि उम्र मे छोटे ही रहते हैं"
उनकी कहानियों की दुनिया अपने आप में मुक्क्मल होती है, शान्त ठहरी हुई, कुछ सोचती हुई सी (रिफ़्लेकटिव ). शब्द अपनी जगह खुद निर्धारित करते हुये- बाहर की बजाय अंदर की तमाम तहों को परत दर परत खोलते हुये, एक बेचैन उदासी के साये में लिपटे, जैसे पुराने फोटोग्राफ़, जो उम्र के साथ पीले पड जाते हं, सीपीया रंगो में, और जिन्हे कभी आप यूँ ही देख लें तो तस्वीर मे बंद चेहरे आपको खीच कर उस समय और जगह पर ले जाये जिन्हे आप पोर पोर पर महसूस कर सके, जिसका तीखा उदास स्वाद आपको धीरे से सहला दे, आपकी चेतना को थपकी दे कर सुला दे.
अभी उनकी ग्यारह लंबी कहानियों का संग्रह पढ रही थी जब उनके निधन का खबर पढा."परिन्दे" , "अँधेरे में ", " पिछली गर्मियों में ", " बुखार ", "लन्दन की एक रात " .................
इन सब को एक बार पढा, फ़िर दोबारा और अब भी बगल के मेज़ पर पडा है. रात को कई बार बस बीच बीच से कहीं भी एक कहानी पढ लेती हूँ.
हाँ , मुझे लगता है, निर्मल वर्मा को पढने के लिये कोई उम्र नहीं होती. हर उम्र मे उनको पढने का मज़ा कुछ और होता है. कोई नया तह खुलता है फ़िर से,कोई नई मायावी दुनिया फ़िर आपको बुलाती है .
(अनूप जी से एक बार बात हो रही थी । तब उन्होंने ज़िक्र किया था कि उनके पास निर्मल वर्मा के साथ तस्वीरें हैं । ये उन्होंने भेजा था । तस्वीरों की कहानी ,आगे उनसे गुज़ारिश है , उनकी ज़ुबानी )
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
16 comments:
अच्छी जानकारी! दिल्ली के करौल बाग में जहां मेरा स्कूल था, निर्मल जी उसी के पास रहते थे, मगर कभी उन्हे देख या मिल नहीं पाया।
मुझे निर्मल जी का नॉन फ़िक्शन ज्यादा पसंद है. उनसे दो-तीन बार मिलने का मौका मिला . एक बार तो उनका एक छोटा-सा साक्षात्कार भी लिया था जो कोलकाता से प्रकाशित पत्रिका 'समकालीन सृजन' के 'दो हज़ार सैंतालीस का भारत' नामक अंक में प्रकाशित हुआ था .
वैसे तस्वीर में निर्मल वर्माजी के साथ हैं श्री मनोहर श्याम जोशी, श्री अनूप भार्गव और मैं भी. यह तस्वीर उनके फिलाडेल्फिय साहित्य गोष्ठी के अवसर की है.
तुम्हारा लेख अच्छा लगा, अब तुम्हारी समीक्षा का
इंतज़ार है.
निर्मल वर्मा जी के विषय में जानकारी देता यह लेख अच्छा लगा। आगे भी इसी तरह की जानकारियां देती रहें। किताब की समीक्षा का इंतजार तो है ही!!
आशा है आप निर्मल वर्मा की रचनाओं पर जल्द ही कुछ विस्तार से समीक्षा लिखेंगी।
18वें जन्मदिन पर उपहार में मिली थी 'एक चिथड़ा सुख' खूबसूरत उपन्यास है। शहर (बाहर का शहर और भीतरी भी) इस उपन्यास में शिदृत से उकेरा गया है। .....बिना खंडहरों के शहर ऐसे ही हैं जैसे बिना नींव के मकान।
हर उम्र में पढ़े जा सकते हैं निर्मल.... उतना आश्वस्त नहीं (शायद इसलिए कि मैनें जो रचना पिछले माह पूरी की है वह- अंतिम अरण्य)
एकाध बार भेंट भी हुई थी निर्मल से पर दुर्भाग्य से सर्वाधिक गहरे अंकित है उनके अंतिम संस्कार के क्षण ।
आप पूरी समीक्षा जरूर लिखें।
'एक चिथड़ा सुख' वाकई एक सुंदर उपन्यास है। निर्मल जी के बारे में जानकारी बहुत पसंद आई।
बढ़िया लेख लिखा है। आगे एक 'चिथड़ा सुख की समीक्षा' का इंतजार रहेगा। प्रियंकरजी, अनूप भार्गवजी, राकेश खंडेलवालजी भी अपने संस्मरण लिखें।
निर्मल जी को मैने ज्यादा नहीं पढ़ा । और जिस उम्र में पढ़ा उतना उसे समझ भी नहीं पाया। आपकी समीक्षा का इंतजार रहेगा।
जैसा कि चित्र पर लिखी तारीख दिखा रही है , निर्मल वर्मा जी से २००३ में मिलना हुआ था । उन्हें ज़्यादा पढा नहीं है इसलिये उनके साहित्य के बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन इंसान बहुत ही अच्छे लगे । यदि कहूँ कि बिल्कुल देवता समान तो शायद अतिशयोक्ति लगे लेकिन उस समय उन से मिल कर ऐसा ही लगा था । एक सीधे सादे भले इन्सान , बहुत ही विनम्र , भीड़ से अलग हट कर बैठे हुए थे ।
तुम्हें मलिकार्जुन मंसूर पसन्द हैं (मुझे भी) . निर्मल वर्मा जी से मिल कर ऐसा ही लगा जैसा मलिकार्जुन मंसूर को सुननें के बाद लगता है ।
आपका भाषा पर अधिकार प्रशंस्नीय है..
Abhi abhi "Ve Din" padh kar rakhi hi thi ki apke blog ka link mil gaya, aur ek baar fir Nirmal Vema samne aa gaye. Ve din shayad unka pahla upanyaas thaa, aur main issi se chamatkrat hun.
Apki baat sun kar thoda santosh hua ki sameeksha ke liye "Ek chithada sukh" dubara padhne vali hain aap. "Ve din" padh kar bhi aisa hi lag raha tha mujhe par apni adat se majbuur dobaara utha nahi paa raha tha. Dhanyavad.
प्रत्यक्षा जी, ये जानकारी शेयर करने के लिए आपका धन्यवाद - काफ़ी अच्छे अंदाज़ मे लिखा आपने
मुझे बहुत ही अफ़्सोस है कि मैं कभी निर्मल जी से नहीं मिल पाया क्योंकि वे उन सहित्याकारों में से एक है जिन्होने मुझे बहुत प्रभाव किया। क्योंकि मैं सीखते हए पढ़ता हूँ, इसलिए मुझे बहुत सावधान से लेखक और लेख चुनना पढ़ता है: लेकिन मैं ज़रुर विश्वास कर सकता कि जो भी निर्मल जी ने लिखा है, वह पढ़नेलायक है। उनकी शैली मेरे मन में रख गई है... प्रत्यक्षा जी, आपकी स्मृति के लिए बहुत धन्यवाद, अभी और पढ़ना चाहता हूँ।
प्रत्यक्षा जी लेख अच्छा है निर्मल आज के सशक्ततम साहित्यकार हैं उनकी कहानियाँ भीतर की दबी उदासी को बाहर ले आती हैं भीड में एकाकी आधुनिक मनुष्य की सारी पीडा सघन होरर उमड पड्ती है
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