9/08/2006

कुछ मेरे हिस्से की धूप .....जुगलबंदी

धूप पर कुछ कवितायें ...... राकेश खँडेलवाल , हिमानी भार्गव अनूप भार्गव और मेरी साथ में एक पेंटिंग भी

धूप के रंग



"रोशनी धुली धुली सी लगती है
स्वर्णमय गली गली लगती है
श्याम घन केश हटा दो मुख से
रूप की धूप भली लगती है "

(राकेश खँडेलवाल )


धूप के रंग में
उँगली डुबाकर
खींच दिया मैंने
तेरे होठों पर
वही उजली सी हँसी
हथेलियों पर तभी से
खिलता है रंग मेंहदी का
कैद हैं जब से
मेरे हाथों में
स्पर्श
तेरे होठों की हँसी का

(प्रत्यक्षा )



तेरी हँसी की शरारती खनक
ऐसी
जैसी
सरसों की बालियों की धनक
झरिया में छनती कनक
मकई की रोटी की महक
तंदूर की आग की धमक
अब समझी
क्यों चूल्हे पर बैठी
अपने आप ही
मुस्कुराती रहती हूँ मैं

(हिमानी भार्गव )



मैं भी अब समझ
जाता हूँ , तुम्हारा यूँ ही बेबात
मुस्कुरा देना
कभी आँखों से
तो कभी होंठों के
कोनों को ज़रा सा
दबा देना

मैं भी तो
यूँ ही , ऐसे ही
मुस्कुराता रहता हूँ
तुम्हारी धूप सी हँसी में
अपने हिस्से की धूप
देखा करता हूँ


(प्रत्यक्षा )



कब तक बन्द किये रखोगी
अपनी मुट्ठी में धूप को
ज़रा हथेली को खोलो
तो सवेरा हो


(अनूप भार्गव )



एक सूरज रहा मुट्ठियों में छुपा
रोशनी दीप के द्वार ठहरी रही
धुंध के गांव में रास्ता ढ़ूंढ़ती
भोर से सान्झ तक थी दुपहरी रही
इसलिये मैने खोली हथेली नहीं
स्वप्न आँखों के सारे बिखर जायेंगे
लेके निशिगंध संवरे हुए फूल ये
रश्मियाँ चूम ऊषा की मर जायेंगे

( राकेश खँडेलवाल )



याद रखना
फिर मुझे
दोष न देना
अगर सवेरा हो जाये
धूप मुट्ठी से निकलकर
बहक जाये......

( प्रत्यक्षा ).



भूल गया था
तुम्हारी मुट्ठी में
धूप के साथ
मेरी उँगलियाँ भी कैद हैं
सवेरा ही रात के आलिंगन
की परिणिति भी होगा


(अनूप भार्गव )


तभी तो
हथेली पर
खुश्बू है धूप की
रात भर
तुम्हारी उँगलियाँ
कांपती हैं
उस अनजानी तपिश से.
अब मुझे जरूरत नहीं
चाँद की..

.(प्रत्यक्षा )



ऐसा लगा
तुमने मुझे धूप नहीं
मुट्ठी भर
विश्वास सौंप दिया हो
हर प्रश्न आसान
और
गंतव्य सहज
लगता है

(अनूप भार्गव )



अँजुरी में भर कर
तुम्हारा विश्वास

माथे पर लगाया
अरे !
कब इस माथे पर
सूरज का
टीका उग आया !!!

(प्रत्यक्षा )



उसी सूरज की
एक नन्ही सी
रश्मि किरण
मेरे ललाट पर
चमक जाती है
और मुझे
ज़िंदगी को जीने का
सलीका सिखा जाती है
अच्छा ही किया
जो तुमने मुट्ठी
खोल दी


(अनूप भार्गव )



मेरी आँखों में
ये चमकते हुए सितारे
शायदउसी किरण का
प्रतिबिम्ब हैं
और मैं इन्हें
मुट्ठी में समेट लेने
को फिर
आतुर हो उठा हूँ

(राकेश खँडेलवाल )



ये गजब न करना
ये मुट्ठी फिर
बंद न करना
ये रौशनी जो
फैल गयी थी
अब फिर
अँधेरा न करना....

(प्रत्यक्षा )

18 comments:

अनूप शुक्ल said...

बढि़या है.क्या जुगल बंदियां हैं! फोटो भी कम नहीं है.अब पता चला लोग प्रत्यक्षा जी को सम्भावनाशील काहे मानते हैं.

Anonymous said...

वाह!! आप सभी की कविताएँ अच्छी हैँ! चित्र भी बढिया है..

Anonymous said...

अच्‍छी जुगल बन्‍दी है
प्रमेन्‍द्र

Anonymous said...

बहुत खुब. तस्वीर भी और कविता(एँ)भी.

Sunil Deepak said...

प्रत्यक्षा जी, इतनी सुंदर कविताओं को पढ़ कर आनंद आ गया, सबको साथ जुटाने का काम बढ़िया किया है, लगता है जैसे कोई राग है जिसमें वही स्वर अलग अलग रंग ले कर सामने आते हैं. आप का चित्र भी बहुत अच्छा लगा.

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर और बेहतरीन कवितायें हैं.
पेंटिंग भी गजब की है.

सभी को बधाई.

राकेश खंडेलवाल said...

अब जब पूरा चिट्ठा लिख ही दिया है तो बाकी क्यों रह जाये

धूप:

जब उतर कर गुम्बदों से आई है अँगनाईयों में
धूप देखो घुल गई है, काँपती परछाईयों में
ओढ़ कर बादल का घूँघट, एक दुल्हन के सपन सी
धूप नग्मे लिख रही है प्रीत के, शहनाईयों मे
सांझ की कोमल थकन और मीत की करते प्रतीक्षा
चांदनी सी ढल रही है, धूप अब अँगड़ाईयों में
रात की तारों भरी चादर सिरहाने से लगा कर
धूप सपने बुन रही है नैन की बीनाईयों में
रूप के लहरा रहे कुछ कुन्तलों को तूलिका कर
धूप गज़लें लिख रही है आज फिर पुरबाईयों में

Anonymous said...

कब तक बन्द किये रखोगी
अपनी मुट्ठी में धूप को
ज़रा हथेली को खोलो
तो सवेरा हो

(अनूप भार्गव )
इस पर जाने क्यों मेरी कलम फििसल गई थी--

बीते चन्द रोशन पलों से
मिलाती है यह धूप
ज़माने की सर्द हवायों से
बचाती है यह धूप
कैसे जाने दूँ मुट्ठी से इसको फिसल
कहीं आत्मा न जाए इस देह से निकल
इसी से है मेरे जीवन में सवेरा
इसी से छंटा गहन काला अंधेरा
न मागों मुझसे मेरी इकलऔती भोर
मेरी मुट्ठी में इसके सिवाए कुछ न और।।

Udan Tashtari said...

बिटिया को जनम दिन की मुबारकबाद हमारी तरफ़ से दे दें और ढेरों आशिष...

-समीर-साधना

Jagdish Bhatia said...

बिटिया के जन्म दिन की बहुत बहुत बधाई। बहुत ही खूबसूरत नाम है पाखी।

Anonymous said...

Convay my love to your daughter.

Anonymous said...

तसवीर देख नही पाया :( मगर कवीत दिल को भागई :)

बाकी राकेश भाई और रत्ना जी ने बहुत ही सुंदर अंदाज़ से निखारा

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

क्या ख़ूबसूरत बन पड़ी हैं सभी की पंक्तियाँ, विशेषकर आपकी और अनूप जी की जुगलबंदी ने तो बहुत सुंदर समां बाँधा ...वाह!

अनूप भार्गव said...

चलो आगे बढाते हैं
----

अब अँधेरा ही भला लगता है,
तेरा चेहरा मन की आंखों से देख लेता हूँ,
अब धूप का क्या है
उगे या न उगे !!!

अनूप

बिखरी कडियों को पिरोनें के लिये प्रत्यक्षा को धन्यवाद

अनूप भार्गव said...

रत्ना जी के लिये ....
---
मैनें तुम से तुम्हारे हिस्से की
धूप कहाँ माँगी थी
बस उसे कैद कर के न रखो
शायद वही धूप
जब मेरे ज़िस्म से टकरा कर
तुम तक पहुँचे
तो कुछ अधिक भीनी लगे .....

Pratyaksha said...

कवितायें पसंद करने के लिये आभार ।

राकेशजी , रत्ना जी और अनूप जी , क्रम को इतने खूबसूरती से बढाने के लिये शुक्रिया ।

और सबसे बडा शुक्रिया पाखी की ओर से । आपसबों का आशीर्वाद उसे ऐसे ही मिलता रहे ।

मसिजीवी said...

संयोजन सुंदर बन पड़ा है।

पर ये तो बताऍं कि ये काव्‍य संवाद था या पहले से लिखी गई पंक्तियों से तैयार कोलाज़ ?

राकेश खंडेलवाल said...

मसिजीवीजी

यह सारी रचनायें ekavitaa पर संवाद रूप में चली थीं. अब प्रत्यक्षाजी से कहूँगा कि अगली बार चाय-पुराण भी तैय्यर कर भेज दें