8/31/2006

मास्टर जी

बचपन में तस्वीरे‍ बनाने का शौक था पर कभी ऐसी स्थिति नहीं आई कि सीख सकूँ । जब कॉलेज में थी तब एक बार नाज़िर बाबा (इनके बारे में यहाँ पढिये ) आये । मेरी कुछ आड़ी तिरछी लकीरें देखी और कहा , चलो तुम्हें एक जगह ले चलें । हमारे घर से लगभग १० मिनट की दूरी पर एक लड़्कों का सरकारी स्कूल था , काफ़ी बड़ा (आम सरकारी स्कूलों से भिन्न )बहुत बड़ा कैम्पस ,शि़क्षकों के क्वार्टस वहीं अन्दर । मास्टर जी इसी स्कूल में आर्ट टीचर थे । नाज़िर बाबा के परिचित ।" ये तुम्हें सिखायेंगे " , उन्होंने परिचय कराते हुये कहा । मास्टर जी बड़े शान्त स्वभाव के लगे । दुबला पतला इकहरा शरीर , साँवला रंग , घुँघराले बाल कँधे तक बढे हुये । उनकी पत्नी बाहर आई , गोरी , गोल मटोल , चौड़ा आकर्षक चेहरा और चेहरे से अंकवार ले लेने वाला अपनापन मुस्कान से भी ज्यादा खिलता हुआ ।

आम , जामुन और बेर के पेड़ों के बीच घिरा हुआ दो कमरे काक्वार्टर , बाहर वाले कमरे में कैन्वस , रंग , कूची ,तमाम चित्रकारी के अल्लम गल्ले , कुछ बेहद सुंदर पोट्रेट्स , आँगन में खटिया पर बच्चों के कपड़े,थोड़ा सा जो बरामदा दिख रहा था वहाँ रसोई के कुछ इंतज़मात, अलगनी पर टंगे कपड़ो‍ का ढेर , धूप में मर्तबान में पकते अचार ।सब एक नज़र में देखा।तय हुआ कि अगले इतवार मास्टर जी घर आयेंगे ।देखेंगे हमारी चित्रकारी के नमूने फ़िर आगे कैसे सिखाना है इसपर विचार होगा । मेरा ख्याल था कि मास्टर जी लिहाजवश मना नहीं कर पाये । वरना उनकी बातों से लगा कि बहुत व्यस्त रहते हैं । ये बाद में पता चला कि लोगों के आग्रह पर पोर्ट्रेट्स अपने खर्चे पर बनाते हैं,वक्त और पैसे दोनों जाता है पर लोगों को इन्कार नहीं कर पाते ।

इतवार आया और साथ में बिलकुल समय पर मास्टरजी । बाहर धूप में चाय की दौर चली । मैंने अपनी बनाई एक स्केच उनको दिखाई । एक ब्रिटिश पत्रिका आती थी 'विमेन एंड होम ' , उसी से देखकर नकल उतारी थी , हाथ में मशाल लिये दौड़ते हुये एक पुरुष की जिसके एड़ियों पर पंख लगे थे ।मास्टरजी ने देखा और कहा " हम सिखायेंगे "
उनके एक इस वाक्य से मुझे कैसा खज़ाना मिला था । लगा अब मुराद पुरी हुई । आँखों के सामने खूबसूरत पेंटिग्स एक एक करके लहरा गई , पैलेट,कूची हाथ में लिये ,ऑयल कलर्स के रंगीन धब्बों से सुसज्जित एप्रन पहने मैं कैन्वस के सामने सपनीली आँखों से रंगों की दुनिया में विचर रही थी । बस अब ये सब हाथ बढाकर मुट्ठी में भर लेने लायक दूरी पर ही तो था ।
अगले इतवार हम उनके घर पर थे । पहली सीख ये दी कि अभी खूब पेंसिल स्केचेज बनाऊँ श्वेत श्याम तसवीरों की । किन पेंसिल से चित्र बनाना है ये बताया । घर लौट कर सब सरंजाम किये । घर पर दो मोटी मोटी चमकीली कागज से सजी हुई फोटोगराफी की किताबें थीं । उनमें कई श्वेत श्याम फोटोज़ भी थे । सब धीरे धीरे मेरे पेंसिल के कैद में आकर अपना चेहरा बिगाड चुके । एक लडकी की तस्वीर तब बनाई थी , फिर उसी पत्रिका 'वीमेन एंड होम ' से , कहानी के साथ ये स्केच था । कहानी का नाम अब तक याद है ,'द फ्लावरिंग डिसेम्बर ' , एस्सी सम्मर्स का लिखा हुआ ।

अनामिका
पहली क्लास के बाद करीब दो हफ्ते बीत गये । मास्टरजी फिर एक दिन आये । मेरे स्केचेज़ देखे , कुछ सुधारा , कुछ गल्तियाँ बताई । फिर रंगों के बारे में बताया । कुछ बेसिक रंग खरीदने को कहा और कैनवस बनाने की प्रक्रिया समझाई । कहा कि पहले कैनवस खुद से बनाऊँ । प्लाई , मार्किन का कपडा , सैंडपेपर और शायद ज़िंकपाउउडर । पहला कैनवस पीसी मॉनिटर जितना बडा रहा होगा ।प्लाई पर मार्किन चिपका कर , पाउडर का घोल लेप करके रगडना सैंडपेपर से । ये प्रक्रिया तीन चार बार करनी थी । मेरा कैनवस तैयार होता तबतक N.T.P.C. से चिट्ठी आ गई कि मेरा चयन हो गया है । चित्रकारी सीखना कोल्ड स्टोरेज में चला गया । वो तब था और आज भी ये अरमान अधूरा ही है । देखें भविष्य में कुछ जुगाड बैठता है या नहीं ।बाद में , कई साल बाद जार्जिया ओ कीफ की पेंटिंग "पॉपीज़" की नकल बनाई थी उसी अपने हाथों से बनाये कैनवस पर । अब ये चित्र कहाँ है पता नहीं , शायद खो गया कहीं घर बदलते रहने के चक्कर में ।एक और बडी सी पेंटिंग बनाई थी दौडते हुये घोडों की ।ये भी कहीं खो गई ।
मास्टर जी से फिर मुलाकात नहीं हुई । पटना छूट गया । मास्टरजी की एक बात और याद आई । कहते थे कि उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थे , क्रांतिकारी थे । जेल में थे रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ।

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए- कातिल में है"

ये मशहूर शेर उनके पिता का लिखा हुआ था , न कि बिस्मिल जी का । अपने पिता की बात करते करते मास्टरजी जोकि आमतौर पर बेहद शांत , सौम्य और नफासत से बोलने वाले थे , एकदम आवेश में आ जाते । कहते कि ये साबित कर के रहूँगा कि यह शेर मेरे अब्बा का लिखा हुआ है ।आज मास्टरजी कहाँ हैं , कैसे हैं कुछ पता नहीं पर जब अपने स्केचेज़ और वाटर कलर्स निकाला तो उनकी याद आई । दुआ करती हूँ कि जहाँ भी हों स्वस्थ हों , सुखी हों

मेरी कविता .........................

रंग

मन था, कोरा सफेद कैनवस,
कुछ आडी तिरछी लकीरें
कुछ अमूर्त भाव
कुछ मूर्त कल्पनाएँ

उँगलियाँ कूची पकडे
काँपती थीं
उत्सुकता से..
आज नया क्या सृजन हो
जो खुद को भी कर दे
चमत्कृत

रंग बिखरे थे, गाढे, चटक,
कुछ हल्के, सपनीले…
सफेद कैनवस पर
लाल सूर्य सा,बिंदी गोल
मन वहीं टँक जाता है

सृजन का ये पहला रंग
हर बार पीडा देता है
और खुशी भी, जैसे
गर्भस्थ शिशु की
पहली चीख , माँ के कानों में,
इस दुनिया में आने पर….

6 comments:

Manish Kumar said...

सृजन का ये पहला रंग
हर बार पीडा देता है
और खुशी भी, जैसे
गर्भस्थ शिशु की
पहली चीख , माँ के कानों में,
इस दुनिया में आने पर….

बहुत सुंदर पंक्तियाँ लगी यें और मास्टर जी का परिचय भी !

Anonymous said...

प्रत्यक्षा जी ,कविता बहुत अच्छी लगी.आपके "यहाँ" के लिँक से होते हुए कुछ और पोस्ट तथा कविताएँ भी पढीँ "एक चिडिया मेरे अन्दर" बहुत पसन्द आई..

अनूप शुक्ल said...

मुझे तो कविता से ज्यादा लेख अच्छा लगा और उससे भी अच्छा स्केच! इसे फिर शुरू किया जाये।

Udan Tashtari said...

बहुत बढियां चित्र है. लेख और कविता भी सुंदर है.
बधाई.

-समीर लाल

राकेश खंडेलवाल said...

कैनवस पर टँगा था क्षितिज सामने
रंग की प्यलियां भी भरी थीं रखी
तूलिका थी प्रतीक्षित मिलें उंगलियां
सांझ के चित्र मे रंग जो भर सकें

Shuaib said...

आडी तिरछी लेकीरें ही चित्र हैं प्रत्यक्षा जी, वोह इस लिए के मैं ने आपका चित्र देखा ही नही :( खैर मुझे आपकी कवीता बहुत पसंद आई, आपकी कवीताओँ मे बहुत असर होता है