8/15/2006

महिला मुक्ति ... किससे मुक्ति , कैसी मुक्ति


कभी बड़ा द्वंद मचता है , बड़ी लड़ाई के पहले का गर्दो गुबार , आखिर महिला मुक्ति मोर्चा की सरगना बनूँ या पतिव्रता भारतीय नारी के घूँघट में चैन की साँस लूँ ।

बचपन से माँ को बाहर नौकरी करते जाते देखते आये थे । कॊलेज में सोश्यालजी पढाती थीं । पर घर की सारी जिम्मेदारी उनकी थी । ये अलग बात थी कि कई बारघर के काम के लिये नौकर ,चपरासी रहते पर कई बार ऐसा नहीं भी होता था । पापा कई घरेलू चीज़ों में माँ का बराबरी से हाथ बँटाते पर, खाना बनाना और घर की तमाम अन्य चीज़ों का लेखाजोखा तो माँ का ही था । हमारे घर के हर पुरुष ( पापा , दोनों भाई ) खाना खाने और पकाने के बेहद शौकीन हैं । फ़िर भी उनका ये काम शौक की ही कैटेगरी में आता । बड़े तामझाम से पापा कभी रसोई में आते , माँ को रसोईनिकाला हो जाता और हम सब भाई बहन पापा के असिस्टेंट्स बन जाते ।कुछ बड़ा शानदार लेकिन अजीबोगरीब सी रेसिपी से खाना बनाया जाता । माँ ताकझाँक करतीं , हैरान होतीं , भविष्यवाणी करतीं कि जिस तरीके का खाना पक रहा हैउसे घर का कुत्ता भी न खाये । पर जब खाना पक कर तैयार होता और खाया जाता तो हमसब ,माँ सहित , पापा की पाक कला और कुछ नये तरीके से खाना पकानेकी कला का लोहा मान लेते । बचपन की कई मधुर यादों में से ऐसे कई वाकये मुझे अब तक याद हैं ,उन पकाये खानों की खुश्बू और स्वाद आज भी ज़ुबान और मन कोभिगा जाते हैं ।

पर ये सब भी एक पिकनिक की तरह होता । रोजमर्रा के खाना बनाने और घर की साफ़सफ़ाई जैसा एकरसता भरा काम तो स्त्री के जिम्मे ही हो सकता था । पापा और माँ जिस संस्कार और समाज में पले बढे थे उसमें पापा का इतना करना ही उन्हें एक लिबरल और समझदार जीवन साथी का तमगा आसानी से दिला देता था । पर बावजूद इसके औरतऔर मर्द का रोल परिभाषित था । ये मेरा काम है , ये तुम्हारा । बात सही भी है , डिविशन औफ़ लेबर तो होना ही चाहिये । पुरुष बाहर जाये कमाये परिवार का पोषण करेऔर स्त्री घर देखे , बच्चों की परवरिश करे ।सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था की नींव मजबूत भी थी और व्यावहारिक भी ।

परेशानी तो तब शुरु हुई जब इस परिभाषित रोल को उठा कर पटक दिया गया । स्त्री घर की चाहरदीवारी फ़लांग कर बाहर की दुनिया में उड़ने की ज़ुर्रत करने लगी ।तब ये कहा गया, ठीक बाहर कदम रख रही हो पर घर की व्यवस्था में जरा सा भी ढील ...न , बरदाश्त नहीं किया जायेगा ।और औरत जी जान से जुट गई घर को संभालनेमें , बाहर की दुनिया अपने पँखों से छूने की, उड़ने की । भागदौड शुरु हो गई थी और ये तो सिर्फ़ शुरुआत थी । साहब बीबी और गुलाम में रहमान का मीना कुमारी को कहना,'गहने तुड़वाओ , गहने बनवाओ', वाला ऐशो आराम ( उसी ऐशोआराम से छुटकारा पाने की तो सारी जद्दोजहद थी )अब कहाँ ?

हम अभी ट्रांसिशन फ़ेज़ में हैं । हमारी माँओं को फ़िर भी आसानी इस मायने में थी कि उन्हें इस बात की इतनी शिद्दत से कमी महसूस नहीं होती कि पति उन के घर की जिम्मेदारियों मे बराबरी का हिस्सेदार नहीं । एक वजह तो ये भी थी कि घर में उनके मददगार कई थे , संयुक्त परिवार भी और नौकरों की कतार भी आमतौर पर । हमारी पीढी सबसेकठिन दौर में है । संयुक्त परिवार डायनासोर की तरह लुप्त हो गये हैं , घर के काम में मदद के लिये लोग आसानी से नहीं मिलते , ऒफ़िस में अपने को पुरुष की बराबरी या कभीउनसे भी बेहतर साबित करना अब भी जरूरी है ।शायद अगली पीढी इस मामले में हमसे ज्यादा भाग्यशाली साबित हो । जब बाहर अपने को हर वक्त साबित करने की होड न हो ,जब घर में पति "मदद " न करे अपना काम समझ कर हिस्सेदारी करे , जब आज़ादी का मतलब बाहर जाकर नौकरी करना न हो बल्कि आजादी का मतलब चुनाव कीआज़ादी हो कि औरत घर में रहे या बाहर नौकरी करे ।

आज भी हमारे पुरुष प्रधान समाज में अगर कोई पुरुष गाहे बगाहे भी घर में खाना पका दे , बच्चों को कभी कभार देख दे , खासकर तब जब उसकी बीवी नौकरी न करती होतो उस पति के पत्नि को एक भाग्यशाली स्त्री का खिताब मिल जाता है ।अगर बीवी नौकरी कर रही हो तो स्थिति बदल जाती है । पुरुष घर में मदद करने लगता है । स्त्री उसके एहसान के तले दब जाती है । ऐसा अपने आसपास कई घरों में देखा है कि बीवी नौकरी कर रही है पर आर्थिक स्वतंत्रता उसकी नहीं है । उसके काम का दायरा बढा दिया गया है पर फ़ैसले लेने की जवाबदेही का सुख उसका नहीं ।

ऐसी स्थिति में जब अपने घर में नज़र दौड़ाती हूँ तो सुखद आश्चर्य होता है । संतोष की सबसे बड़ी खूबी इस मामले में ये है कि खाना पकाना (संतोष बहुत बढिया खाना पकाते हैं ) या घर का और कोई भी काम ,वो सिर्फ़ मेरा नहीं समझते । अगर मैं दो घँटे किचन में बिताती हूँ तो संतोष अपराधबोध से ग्रसित हो जाते हैं ।उन्हें लगता है कि ऒफ़िस की भागदौड़ के बाद रसोई में फ़िर समय देना मेरे साथ ज्यादती है ।ये और बात है कि खाना पकाना मुझे बहुत अच्छा लगता है । अन्न्पूर्णा की तरह अपने प्रियजनों के लिये स्वादिष्ट भोजन बना कर उन्हें खिलाना बड़ी तप्ति का एहसास दिलाता है । इस मामले में शायद भगवान ने ही हमारे साथ नाइंसाफ़ी करदी है कि ये सब किये बिना हमें चैन नहीं आता । कितना भी बाहरी दुनिया में भागदौड़ करलें घर का सुख बार बार हमें खींच कर अंदर कर देता है ।तो जब तक हमारे मेंटल मेक अप की रीवाईरिंग नहीं होती हम लाचार हैं ट्रेडमील पर दौड़ते रहने के लिये ।

तो आप ही बतायें हमने क्या अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली है ? घर से हम छूटना नहीं चाहते , बाहर की दुनिया में अपने आप को साबित करने की उबलब्धि का रस हमने भी चख लिया है । हम जायें तो कहाँ जायें ? शुक्रिया भगवान छोटी बड़ी दयानतदारियों के लिये । शुक्रिया ऐसे जीवनसाथी के लिये जिसके साथ घर और बाहर की दुनिया में सन्तुलन बनाना साथ साथ सीखा है और ये भी सीखा है कि शादी शुदा जीवन , जिम्मेदारियों का सी-सौ नहीं है । संतुलन बीच बीच का बनाया जा सकता है , आसान नहीं लेकिन असंभव भी नहीं । तो कभी जब महिला मुक्ति मोर्चा का सरगना बनना होता है , तब हमारे ऊपर सति सावित्री सवार हो जाती है । जब पतिव्रता पत्नि बनना होता है तो म. मु. म. का विद्रोह गीत फ़ूटने लगता है ।जीवन में बड़ा द्वंद है , कुछ अपना कुछ औरों का ।

फ़िलहाल तो सीज़फ़ायर है लड़ाई के मैदान में ।संतोष की वजह से म. मु .म. ने एक बहुमूल्य सदस्य खो दिया है।

7 comments:

उन्मुक्त said...

आपने बहुत अच्छा लिखा है पर नारद से आने पर Error ४०४ दिखाता है आपके चिट्ठे को ढ़ूढना पड़ा फिर आकर यह टिप्पणी की| पहले ईमेल से यह बताना चाहा पर आपकी ईमेल नहीं मिली इस लिये यह टिप्पणी की|

Udan Tashtari said...

अच्छा लिखा है, बहुत गहराई है बात मे.

-समीर

Ashish Gupta said...

मध्य की लिखने-सोचने वाली महिलायें कम ही होती है। आप के विचार सटीक हैं, हालाँकि अधिकता आज की महिलायें शायद इनसे सहम्त ना हों।

ई-छाया said...

आज तेजी से स्थिति बदल रही है, पर भारत में उसे यूरोप जैसा होने में कुछ और वक्त लगेगा, जहां मैने कितने ही मर्दों को घर रहकर बच्चे पालते या खाना बनाते देखा है और स्त्रियों को नौकरी करते।

Sunil Deepak said...

शायद यह समय बीच का ही है और नये ज़माने में आने वाली पीढ़ी इसको नयी दृष्टि से देख पायेगी. अगर पत्नी का काम करना शौक नहीं मजबूरी हो और पति को इसका अहसास हो जैसा आजकल अक्सर होता है, तो सामाजिक मानदंड भी बदलेंगे. यहाँ इटली में भी नारी पुरुष की क्या ज़िम्मेदारियाँ हैं यह धीरे धीरे बदल रहा है पर उतना नहीं जितना सोचता था. परम्परागत रुपों को बदलना, नारी मुक्ती ही नहीं, पुरुष मुक्ति भी है, पर इस रास्ते को सदियों से चली आ रही परम्पराओं से जूझना है जो आसान नहीं है, अपने नारी या पुरुष होने की नयी परिभाषाएँ लिखने में और उन्हें समाज से मान्यता मिलने का रास्ता लम्बा है.

अनूप शुक्ल said...

समय की मांग के अनुसार भूमिकायें बदल रही हैं। कहीं तेज तो कहीं धीमें।खासतौर पर वहाँ जहाँ दोनों काम करते हैं। अब पति भी बच्चे संभालना,खाना बनाना सीख रहे हैं(चाहे पराठे जले ही बनायें)। कई जगह घरेलू महिलाओं के पति भी पत्नियों से ज्यादा बडे़ किचन वीर हैं। लेकिन यह सब अभी भी अपवाद स्वरूप सच सा है। अभी भी तमाम जगह महिलाओं की स्थिति जस की तस सी बनी हुई है। ऐसे में सिर्फ अपने अनुभवों के आधार पर महिला मुक्ति मोर्चा से पल्ला छुड़ा लेना अच्छी बात नहीं है।

Pratyaksha said...

महिला मुक्ति की बजाय पुरुष मुक्ति ज्यादा सार्थक लगता है ।पुरुष अपनी मानसिकता से मुक्ति पा लें , स्त्रियाँ अपने आप आज़ाद हो जायेंगी । जो अनुभव अपने लिखे हैं काश वो हर किसी के अनुभव होते तो किसी भी मुक्ति मोर्चा की जरूरत नहीं रह जाती । ऐसा होने में पहला कदम पुरुषों की तरफ़ से ही होना चाहिये । कहाँ हैं किचन वीर , अपनी सँख्या बढायें ।