परसों ,बडे अरसे बाद कनॉट प्लेस जाना हुआ. ये जगह मुझे हमेशा एक मज़ेदार और दिलचस्प भूल भुलैया लगती है . कभी खुद से गाडी इस तरफ नहीं चलाई सो सडकों का ज्ञान नहीं हुआ. वैसे भी जब संतोष चलाते हैं तब मैं ऐश से बैठती हूँ. फिर सडकों से मेरा क्या वास्ता. मुझे और कई चीज़ें करनी होती हैं, मसलन गाने सुनना , गप्पे मारना , आसपास के दृश्य को देखना. खैर कनॉट प्लेस घूमने में खूब मज़ा आया. जनपथ पर कपडॆ , गलियारों में रंगबिरंगे दीवार पर टाँगने वाले कपडों की वाल हैंगिंग्स , सफेद मेटल के गहने , जूतियाँ तरह तरह की ,ऐंनटिक पीसेस, किताबें किताबें..
बडे दिनों बाद ऐसा कुछ किया. खूब विंडो शॉपिंग , खिडकी खरीदारी ? . सौ रुपये में दो टीशर्ट खरीदे, के एफसी में दिन का खाना खाया. आवारा गर्दी की और थक कर चूर हुये. लौटे राजमार्ग 8 से . एक्स्प्रेसवे का कुछ हिस्सा तैयार हो गया है और आम जनता के लिये खुल चुका है. तो इस स्ट्रेच पर सौ की रफ्तार से चलते हुये कुछ त्रिवेणी जैसी तीन लाईनों की कविता सोची. भूल जाऊँ इसके पहले उन्हें टाईप कर लूँ .
अब गुलज़ारसाहब की त्रिवेणी से प्रेरित हूँ यह कहना भी हिमाकत होगी.उनकी तरफ देख भर सकते हैं हम. बस इतना कह सकती हूँ कि हाइकू से ज़रा आगे बढकर तीन पंक्तियों में कुछ शब्द चित्र बनाने की कोशिश की है , बस इतना ही
हाँ , शब्द चित्र से याद आया , अभी विज के ब्लॉग पर ये देखा . देखकर सुखद आश्चर्य हुआ.मेरी ये कविता पुरानी है. विज की पेंटिग्स बहुत सुंदर होती हैं. रंगों का संयोजन आकर्षित करता है.
पेश हैं कुछ शब्द चित्र जो रास्ते में सोचे गये.........
तुम्हारी उँगलियाँ बात करती हैं मेरी हथेली से
उफ! ये चिकोटी
आखिर लड ही पडी न तुम ?
चन्द शराबी गिलासों की धीमी गुफ्तगू
प्यालियों और चम्मचों की रंगीन खनखनाहट
मेहमानदारी के दौर के बाद
अलगनी पर टंगा अबरकी दुपट्टा
खींच देता है फिज़ा में एक गुलाबी लकीर
तुम्हारी याद ! मैं मसल देता हूँ सिगरेट पाँव तले
सडक पर बेतहाशा गिरते हैं पत्ते
पैरों के नीचे चरमरा जाते हैं
तुम्हारे खत की ऐसी ही चिन्दियाँ बिखेरी हैं आज
कुकुरमुत्ते कतार से
उतर जाते हैं पहाडी ढलान पर
बरसात ! बरसात ! आखिर तुम आ ही गये
पोखर की मछलियाँ डुबकी मार जाती हैं
मछुआरों की आहट पर
वे नाव पर , फूँकते हैं बीडी ,सब्र से
लाल मोरम की मिट्टी और फैले साल वन
आओ तलाशें जंगल जंगल
याद के कस्तूरी मृग को
चाशनी सी टपक जाती है याद
मधुमक्खी का छत्ता भर गया है रस से
आओ मिल बैठें और बाँटे कुछ यादें
रस्सी पर कपडों से टपकता है पानी
पके हुये फल सी चू जाती हैं यादें
तुमने पूछ लिया जो आज, कैसे हो तुम ?
रात भर रोता रहा तन्हा चाँद
सुबह फिर गीली थी ज़मीन
सूरज से पूछो , माज़रा क्या था ?
दो लडकियाँ सर जोडे बतियाती हैं धूप में
खट्टी मीठी रुसवाईयाँ
गौरेये का जोडा चौंक कर फुदक जाता है आसमान में
फताड़ू के नबारुण
1 month ago
9 comments:
वाह,वाह टाइप कमेंट करने का मन कर रहा है त्रिवेणी जैसा सा पढ़ने के बाद। बहुत बढ़िया लगा कि इस तरफ प्रयास किया गया और जम के किया गया। इसका श्रेय आवारगी को दिया जाय या हमारे त्रिवेणी लिखने के उकसावे । आशा है कि आगे भी त्रिवेणी-स्नान होता रहेगा। गौरैया,सिगरेट,शराब चलती रहेगी,शहद टपकता रहेगा।
वाह,वाह टाइप कमेंट करने का मन कर रहा है त्रिवेणी जैसा सा पढ़ने के बाद। बहुत बढ़िया लगा कि इस तरफ प्रयास किया गया और जम के किया गया। इसका श्रेय आवारगी को दिया जाय या हमारे त्रिवेणी लिखने के उकसावे । आशा है कि आगे भी त्रिवेणी-स्नान होता रहेगा। गौरैया,सिगरेट,शराब चलती रहेगी,शहद टपकता रहेगा।
त्रिवेणियों का बेहतरीन गुलदस्ता पेश किया हे आपने। ये त्रिवेणियाँ तो खास तौर पर मन को छू गईं !
तुम्हारी उँगलियाँ बात करती हैं मेरी हथेली से
उफ! ये चिकोटी
आखिर लड ही पडी न तुम ?
सडक पर बेतहाशा गिरते हैं पत्ते
पैरों के नीचे चरमरा जाते हैं
तुम्हारे खत की ऐसी ही चिन्दियाँ बिखेरी हैं आज
रात भर रोता रहा तन्हा चाँद
सुबह फिर गीली थी ज़मीन
सूरज से पूछो , माज़रा क्या था ?
प्रत्यक्षा जी, कुछ भी कहना छोटे मुँह बडी बात होगी, फिर भी कहता हूँ "बहुत सुंदर"।
बहुत, बहुत, बहुत ही सुन्दर ..
त्रिवेणी की 'नब्ज' को बहुत खूबसूरती से पकड़ा है,
ज़रा और लम्बी ड्राइव पर जाया करे ना ।
यह संदेश पढ़ कर, क्नाट पलेस का सोच कर, मेरी यादों की चाशनी भी चूने लगी. गुफ्तगू के लिए धन्यवाद.
त्रिवेणी में डुबकी लगाने के बाद ,
भटक रही हूँ शब्दो के उपवन में
खोजने उपयुक्त प्रशंसा पुष्प
आपसबों को बहुत शुक्रिया
मुझे यह कहाँ ले आई आप मेरे ही घर की गलियों में मन भटक गया मेरा
त्रिवेणी आपकी मेरे मन को अति भाई !!
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