1/19/2006

बचपन के दिन भी क्या दिन थे

बचपन में मैं किताबें खूब पढती थी. जो कुछ हाथ लग जाये दीमक की तरह चाट जाती. हमारे स्कूल की अच्छी सी लाईब्रेरी थी और कई बार मैं अपने दोस्तों को पटा कर उनके नाम पर भी किताबें ले लिया करती. फिर नियत दिन तक वापस करने के पहले प्रति शाम एक किताब से ज्यादा हो जाता. मेरे बचपन की ये सबसे बडी त्रासदी थी कि रोज़ के खाली 1-2 घंटे में दो किताबें कैसे खत्म की जाय.

उन दिनों टेलीविज़न नहीं था और रात सवा नौ में बिजली बंद कर दी जाती. सवा नौ से साढे नौ तक रेडियो पर हवा महल सुनते और उसके बाद सोने के अलावा और कोई चारा न था. तेज़ पढने के लिये मैंने स्पीड रीडिंग सीखने की कोशिश की. चूँकि पढाई में हमेशा अव्वल रही इसलिये मेरे ऐसे फितूर को माँ पापा नज़र अन्दाज़ कर देते. ज्यादा पढने के क्रम दूसरी भाषा सीखने का भी धुन सवार हुआ था. बँगला सीखना चाहती थी ताकि अनुवाद न पढना पडे. रूसी भाषा भी कुछ सीखी. ये सब बचपन के शौक रहे.

उन्हीं दिनों पिता का तबादला उत्तरी बिहार के एक शहर मधेपुरा में हुआ और हम अब तक जो राँची में कानवेंट में पढ रहे थे, हमारा नाम अब वहाँ के किसी मुफ्फसिल स्कूल में, हमारे तेज़ी को मद्देनज़र रखते हुये 2 क्लास आगे लिखा दिया गया. यहाँ हमारी मस्ती हो गई. मिशन स्कूल में नंस के कठोर अनुशासन के बाद यहाँ रामराज्य था. गाहे बगाहे स्कूल किसी भी फालतू वजहों से बंद हो जाता और हम सब (पडोस में रहने वाले पिता के सहकर्मी के बच्चे ,सुनिल और गुडिया ) हँसते मुस्कुराते बैरंग वापस. पर ये मौज़ ज्यादा दिन नहीं चली. 3-4 महीने में ही हमारे विकास दर को भाँपकर हमें चाचा के साथ रहने वापस राँची भेज दिया गया जहाँ सिस्टर रोज़लिन ने स्कूल का नियम भंग करते हुये बीच सत्र में मुझे वापस ले लिया

खैर , जितने भी दिन हम वहाँ रहे हमने भरपूर आनंद उठाया. खूब खेले और खूब पढे, पाठ्य पुस्तक नहीं कहानी की किताबें. पिता के सहकर्मियों के बच्चे, हम सब हम उम्र थे. घरों के पीछे लंबे चौडे हाते. बगीचे, बस ऐश थी. यही जगह थी जहाँ हमने लीची खाई पेडों की शाखों पर बंदरों की तरह लटके हुये, धान के खेतों में लुका छिपी खेली, ट्यूबवेल की मोटी धार के नीचे खडे नहाये, आम के पेड की लचीली डालियों पर रस्सी बाँध कर घुड सवारी की , कच्चे अमिया को काटकर, नमक मिर्च बुरक कर रूमाल में लपेट कर खूब नचाया और फिर चटकारे ले कर सी सी करते खाया, गुल्ली डंडा खेले, पिट्टो खेला , पतंग उडाया. एक खेल और खेलते थी, चॉक से लाईन खींचना जितने सतह मिलें दीवारों पर, फर्श पर, संदूकों पर, बर्तनों पर, मेज़ों पर. विरोधी गुट को सारी लाईनों को खोज कर क्रॉस करना पडता. ये खेल जल्दी ही छूटा, हम सबों को मातापिता की सामुहिक डाँट और पूरा घर सफेद लकीरों से पाट देने के बाद.

उन्हीं दिनों की याद में शामिल हैं कमरु भैया. घर के पास ही उनकी किराने की दुकान थी. वहाँ तक जाने का अधिकार हमें मिला हुआ था. कमरु भैया तब शायद 25-26 के रहे होंगे,पर उन दिनों वो सिर्फ कमरु भैया थे और उम्र का उनकी हमारी दोस्ती से कुछ लेना देना नहीं था. आज बहुत याद करने पर अनुमान लगा पाई कि शायद 25-26 के तब रहे होंगे. वास्तव में कम या ज्यादा कुछ भी हो सकते थे. कमरु भैया दुकानदारी करते लगातार पढते रहते. ये हमने भी जान लिया था कि उनके पास कॉमिक्स और किताबों का भंडार थे. हमारे खूब चिरौरी करने पर किसी बिस्किट के या चावल के टिन के अंदर से वो किताबें निकालते. कई बार खदेड कर भागाया भी जाता . पर किसी दोपहरी को जब बोरियत का राज रहता, हम दो तीन बच्चे पहुँच जाते कमरु भैया की दुकान पर. बाकी लोग टॉफी और बिस्किट खरीदते, मैं बोलती,
" कमरु भैया , कमरु भैया, कोई किताब दीजिये "

और अगर मेरी किस्मत अच्छी रहती, कमरु भैया कोई किताब दे देते. कभी वेताल, फ्लैश गॉर्डन या फिर बच्चों की कोई बाल पॉकेट बुक्स.
उन्हीं दिनों चंद्रकांता संतति पढी, मृत्युँजय पढी, जय सोमनाथ भी पढी. धर्मयुग और हिन्दुस्तान में धारावाहिक.. शिवानी की श्मशान चँपा, कैंजा, मन्नु भँडारी की आपका बँटी, यशपाल की झूठा सच, मेरे तेरी उसकी बात..एनिड ब्लाईटन की फेमस फाइव, मैलोरी टावर्स , सेंट क्लेयर्स, हिचकॉक, अगाथा क्रिस्ती , अलिस्टेयर मैक्लीन, मॉम, हार्डी, लौरेंस सब पढ डाली. कभी किसी ने नहीं टोका कि जो पढ रही हो वो काफी कुछ तुम्हारे उम्र के आगे का है. ये बडा वरदान रहा माँ बाप का.
घर में खूब पढने का माहौल रहता. शायद स्वाभाविक था क्योंकि माँ पापा दोनों पढने और लिखने वाले लोग थे. माँ की कई कहानियाँ सालों पहले सारिका, माया में छपती रहीं, पापा भी कई साल पहले हास्य व्यंग की पत्रिका निकालते रहे.

खैर किताबों की वजह से कमरु भैया याद रहे. बहुत बाद, जब कॉलेज में थे तब पता चला कि कमरु भैया कई साल पहले ट्रेन दुर्घटना में दुनिया छोड कर जा चुके थे.
किताबों की वजह से उनदिनों कुछ और लोग याद आ रहे हैं...प्रसाद दम्पति. ये भी पापा के सहकर्मी थे. यूपी के खत्री थे. खूब ठस्से से रहते. बडा टीम टाम. विशाल अल्शेशियन कुत्ता जैकी , फियट गाडी पर गर्मी के दिनों में खस की टट्टी , वगैरह वगैरह . ये लोग भी पढने के शौकीन थे और जब पहली बार मिले तब मेरा परिचय ऐसे ही कराया गया कि अगर किताबें हो तो इसे दीजियेगा, ये पढती बहुत है .

उन लोगों से भी खूब किताबें माँग कर पढी. चंद्रकाँता इनके से ही लेकर पढी थी. शायद देवकी नंदन खत्री से दूर की कोई रिश्तेदारी भी निकलती थी उनकी. आजकल पिछले हाल जानने तक रेकी मास्टर बन गये थे अवकाश प्राप्ति के बाद.
पढने के क्रम में कई लोग मिले, पर मधेपुरा प्रवास में जो मिले आज उनको याद किया.



नये नकोरे किताब की खुशबू
अगर तुमने चखी
शब्दों और अक्षरों को
अगर तुमने छुआ
उँगलियों से,
दिल से, दिमाग से
सफेद पीले पन्नों को
पोरों से सहलाया
फिर मुस्कुराये
जैसे
कोई खज़ाना अचक्के
मिल गया तुम्हे
किसी सुदूर दुनिया में
कुर्सी पर बैठे
घूम आये तुम
घुटने मोड कर
हरी घास पर
दूब चबाते
तितलियों का उडना देखते रहे
किसी जेठ की दोपहरी में ,
आँखों में नीला सपना भरे
अलसा कर जब उठे
तो अलस्त हाथों से
गिर गई किताब
पर
रह गया मन में
किताबों का
नया नकोर गंध
और अंदर एक
गडा खज़ाना ,चुपका सा
सिर्फ तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा


8 comments:

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

बचपन के दिनों के साथ तो जीवन के किसी भी और दिनों की तुलना ही नहीं हो सकती। आप का लिखा अच्छा लगा।

Anonymous said...

किताबे पढना तो मेरा भी शौक है. मेरी एक आदत है जिसकी वजह से आजतक डाटं पडती है वह है कुछ भी खाते समय कुछ ना कुछ पढने चाहिये. मुझमे पढने की आदत मेरे पापा ने ही डाली, मेरे पापा जरूर गणित विज्ञान के शिक्षक थे, लेकिन साहित्य मे अच्छी खासी रूची थी. बचपन मे हर माह नंदन चंदामामा और बालहंस तो पढ्ते ही थे, साथ मे पंचतंत्र, जातक कथाये भी पढी. बाद मे मानसरोवर , राबिन्सन क्रुसो, गुलीवर और ना जाने क्या क्या पढा....

मेरे घरवाले कहते भी है, इसे किसी पुस्तकालय मे बन्द कर दो, और जीने भर लायक खाना पिना का इंतजाम कर दो, कभी बाहर नही निकलेगा.

Pratyaksha said...

सही कहा, आशीष
बचपन में अगर कोई पूछता, बडी हो कर क्या बनोगी, मैं कहती तपाक से ,लाईब्रेरियन.
अब सोचती हूँ अवकाशप्राप्ति के बाद एक किताब की दुकान खोल लूँ :-)

प्रत्यक्षा

अनूप शुक्ल said...

यादें तो जैसी हैं हैं ही।लेख की भाषा का प्रवाह बड़ा बढ़िया है। प्रवाहमान ।कोई नाका नहीं बीच में
ठहराव का।किताबें का क्या कहें!हमें अगर आज ही दुनिया छोड़ने को कहा जाये तो सबसे
बड़ा अफसोस यही होगा कि तमाम कालजयी किताबें बिना पढ़े जा रहे हैं।

Pratik Pandey said...

प्रत्‍यक्षा जी, आपने अपने बचपन के दिनों का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। मुझे भी आपकी ही तरह बचपन से किताबें पढ़ने का बहुत शौक है, मैंने अपने निजी पुस्‍तकालय में दो-ढाई हज़ार किताबें इकट्ठी कर रखी हैं। हाँलाकि पाठ्यक्रम की किताबें मुझे हमेशा से नापसन्‍द रही हैं। अगर पढ़ने का चस्‍का एक बार लग जाए, तो हाथ में आयी कोई किताब बिना खत्‍म किये छोड़ने की इच्‍छा ही नहीं होती।

Sarika Saxena said...
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Sarika Saxena said...

बहुत खूब लिखा प्रत्यक्षा जी! आपके जैसे बचपन में इतनी मस्ती तो नहीं की, हां किताबें जरूर बहुत पढीं हमने भी। और जब हम किताबें पढ रहे होते थे तो हमें आस-पास क्या हो रहा है कुछ पता नहीं होता है। सब हमारी इस आदत पर हंसते थे।
रूसी किताबों से याद आये मक्सिम गोर्की। उनके तीन आत्मकथात्मक उपन्यास( मेरा बचपन, जीवन की राहों पर और मेरे विश्वविद्यालय) बचपन में कई बार पढे। आज भी जब कभी घर जाते हैं तो निकाल कर कुछ पन्ने पढे बिना नहीं रहते। सच किताबों की दुनिया ही अलग होती है।

Anonymous said...

प्रत्यक्षा जी, आपको "टैग" किया जाता है!!