12/01/2005

जन्नत यहाँ है

पाँच दिन की भागदौड के बाद सप्ताहांत का इंतज़ार बडी बेकरारी से रहता है. शुक्रवार की शाम से ही लगता है कि अब मुट्ठी में दो दिन का खज़ाना है, जैसे चाहे खर्च करो.
इसबार शनिवार रविवार अच्छा बीता. शनिवार को मेरे बौस की दोनों बेटियों का दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में अरंगेत्रम था. गुडगाँव से दिल्ली जाना, दो बार तो सोचना पडता है पर जब शनिवार की सुबह उनका फोन आ गया तो फिर जाना तय ही कर लिया. मेरी आठ साल की बेटी पाखी को नृत्य और संगीत का बेहद शौक है. बेटा ,हर्षिल, खेल में ज्यादा मन लगाता है. इसलिये जाने वालों में मैं, मेरे पति, संतोष, और पाखी थे.
दोनों लडकियों का भरत नाटयम नृत्य इतना सुंदर था कि तीन घंटे कैसे बीते पता ही नहीं चला. घर आकर पाखी ने एलान कर दिया कि उसे भी नृत्य सीखना है. इसके पहले वह पेंटिंग सीख रही थी और घर भर में उसके कलाकारिता के नमूने बिखरे पडे हैं, कुछ तो दीवारों पर भी. किसी का जन्मदिन हो, कोई त्यौहार हो, कोई उसका प्रिय आया हो,एक मिनट में कार्ड हाज़िर रहता है. कई बार ऐसे ही सुबह सुबह, जब स्कूल की छुट्टी हो, मुझे और संतोष को एक कार्ड मिल जाता है....

"मेरे प्यारे माँ पापा को,आपकी प्यारी बेटी की ओर से जो आपको बहुत प्यार करती है"

ऐसे कई कार्ड हमारे व्यक्तिगत फाईल्स मे संभाल कर रखे हुये हैं. मुझे पता है कि जब वह बडी हो जायेगी तब हमारे लिये ये ही सबसे बडा खज़ाना होंगे.

मुझे याद है मेरे पिता की , बचपन में लिखी हुई एक चिट्ठी. तब शायद वे दस ग्यारह साल के रहे होंगे. कहीं आसाम में कोई जगह टीटागढ, शायद. पत्र में तो उन्होंने टीटाबार लिख रखा था. कोई पेपर मिल था शायद वहाँ. कुछ दिनों के लिये वहाँ थे और वहाँ उनका बिलकुल मन नहीं लग रहा था. उस पत्र में वापस बुलाने की बात लिखी थी. अस्पष्ट सी भाषा और हिज्जे की गलतियाँ. तब हम भी बच्चे थे और उसे पढ कर खूब आनंद लिया था, खूब हँसे भी थे. ये बडा मज़ेदार भी लगा था सोच कर कि पापा भी कभी हमारे जैसे बच्चे रहे थे. फिर कुछ दिनों बाद माँ ने एक तस्वीर दिखाई थी. ग्रुप फोटो था, जिसमें मेरे दादा जी, उनके भाई और कुछ बच्चे. सब पुरुष ही थे उस तस्वीर में. मेरी दादी की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी जब पापा चार पाँच साल के रहे होंगे.
तस्वीर में बडे तो कोट पैट और ब्रिटिश हैट में है. किनारे में एक बेहद मासूम और सुंदर बच्चा ( आज भी बहत्तर साल की उम्र में खासे हैड्सम हैं) कमीज़, धोती और चमचमाते जूतों में खडा. माँ ने हँस कर बताया था कि ये पापा हैं. शायद, जूते नये दिलाये गये थे. ऐसा पापा बताते हैं.

तब उस तस्वीर को देख कर मेरा बालमन अचानक भर आया था. उस बिन माँ के बच्चे और उस गलत सलत हिज्जे वाला पत्र कहीं एक साथ जुड गये थे. पिता पर बहुत प्यार उमडा था. वैसे भी मैं उनके बहुत करीब हूँ. आज भी ऐसे ही कभी कभी अपने बच्चों को दुलार करते पापा की वो बचपन की तस्वीर और उनका 'टीटाबार' वाला पत्र याद आ जाता है.

खैर, शनिवार अच्छा बीता तो रविवार क्यों पीछे रहता. इस बार हम निकल गये सुल्तानपुर बर्ड सैंक्चुअरी की ओर. सर्दी अभी उतनी तो नहीं पड रही पर फिर भी पक्षी कई दिखे. अगले महीने तक शायद और भी आ जायें. जाते वक्त और लौटते वक्त बगीचों से ताज़ा तोडे गये मीठे अमरूद आजभी घर को सुगंधित किये हुये हैं. फार्महाउसेस के दीवारों पर लाल, बैंगनी, सफेद बोगन विलिया के झाड बेहद खुशनुमा लग रहे थे. खेतों में सरसों का पीला गलीचा, खुशगवार मौसम, बच्चों की चहचाहट, नीचे नर्म हरी घास और उपर नीला स्वच्छ आसमान. और क्या चाहिये.


ओमर खय्याम की मशहूर रुबाई याद आ गई. उसका हिन्दी तर्जुमा कहाँ से खोजूँ .शायद बच्चन जी ने किया है. अब खोजूँगी लेकिन एक अदना सा प्रयास मैंने भी किया, पंक्तियाँ सही याद नहीं पर जो भाव याद हैं उनके दम पर ये पेश है.........
(ओमर खैय्याम के प्रसंशकों से क्षमायाचना सहित )

"गीतों की पुस्तक, शाखों के नीचे

मीठा सा पानी ,दो रोटी के टुकडे

पहलू में तुम हो तो वीराना क्या है

मिल जायें ये सब तो जन्नत यहाँ है"



(जिसे कहते हैं लिटरल अनुवाद ,वो नहीं है, बस भाव हैं...और उसदिन की मेरी मनस्थिति को दर्शाते)


लाल्टू जी ने कहा "धन्यवाद प्रत्यक्षा...

8 comments:

Jitendra Chaudhary said...

बहुत सुन्दर...आपको साप्ताहन्त की बहुत बहुत मुबारक बाद, वैसे जब तक आप पढेंगी, दूसरा भी आने वाला होगा। हमारे यहाँ तो सप्ताहन्त गुरुवार की शाम से ही शुरु हो जाता है, शुक्रवार और शनिवार को छुट्टी जो होती है।अब क्या करें जैसा देस वैसा भेस, हम शुक्र शनि मे ही खुश हो लेते हैं। दिल्ली मे जब तक रहा सप्ताहन्त क्या होता है, कभी नही जाना, बस काम काम और काम... अब मौका मिला है, जी लें...

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

प्रत्यक्षा, आपकी बेटी का नाम बडा सुन्दर है...पाखी।
सच कह रही हैं आप, सप्ताहांत का आनंद वही ले सकता है जो काम करता हो। आज कल घर पर रहती हूं तो शनिवार-रविवार को अब सुबह देर से उठने का उत्साह नहीं रहा, बस ये कि कौशिक घर पर होंगे तो संग रहेगा उनका, घूमना फिरना होगा। बेटी की बचपन की चीज़ों को सम्हाल कर रखें। ये बाद में यादों की खुश्बू से महकेंगी।

मिर्ची सेठ said...

प्रत्यक्षा जी,

ब्लॉगिंग का मुझे बहुत फायदा हो रहा है हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि अपना जानने वाला मिल गया। कॉलेज के बाद पहली नौकरी जनकपुरी में थी व रहता था गुड़गाँव में मौसी के पास। मौसी माँ समान होती है इसलिए बहुत यादें जुड़ी है गुड़गाँव से। अभी भी दिल्ली हवाई अड्डे से पहले मासी से मिलना होता है फिर अम्बाला। आप गुड़गाँव के आसपास का लिखती हैं लगता है वहीँ पहुंच गए।

एक और बात बताता हूँ अरंगेत्रम के बारे में। मुझे इसके बारे में यहाँ आ कर पता चला। विचित्र बात है। खैर यहाँ एक दीदी हैं व उनकी दो बेटियाँ। बड़ी बेटी ने करीब ११ साल तक भरत-नाट्यम सीखा व उसके लिए अरंगेत्रम एक कॉलेज को ऑडिटोरियम में रखा था। मैं आयोजक मंडली में था व आयोजन करने में खूब मजा आया। दीदी ने बेटी के ४-५ फुट के कट-आउट मुख्य द्मर पर लगा रखे थे। दर्शकों की सरलता के लिए एक नृत्य मैयो मोही मैं नहीं माखन खायो पर था जो कि अभी भी ध्यान में है।

नारद-भगवन संवाद तो बीच में ही रह गया। शुक्ल जी इंतजार में होंगे।

पंकज

पंकज

अनूप शुक्ल said...

बड़ा बढ़िया गद्य लगा । तमाम कविताओं से (आपकी ही)बेहतर है। इसीलिये कहते हैं कि मेहनत से जी नहीं चुराना चाहिये। लेख लिखते रहना चाहिये।

Kalicharan said...

bhadiya likha hai.

Sarika Saxena said...

बहुत सुन्दर लेख लिखा है।
आरंग्येत्रम जो हमारे देश की इतनी सुन्दर परंपरा है, उसके बारे में हमने भी पहली बार विदेश आकर ही जाना। यहां हमने भी एक पारिवारिक मित्र की बेटी का आरंग्येत्रम देखा। और इतना सुन्दर नृत्य देखकर हमने अपनी बिटिया कांती को भी नृत्य सिखवाने का फैसला कर लिया।

मसिजीवी said...

बधाई। आप भी उन बहुसंख्‍यक पालकों में से हैं जो बच्‍चों की हरकतों को अच्‍छे से ग्‍लेमराइज कर लेती हैं।
आप या कोई प्रतिक्रियाप्रदाता मुझे आरंग्‍येत्रम पर उपयुक्‍त लिंक भेज सकेगा ?

काकेश said...

समय मिलने पर आपके पुराने लेख पढ़ रहा था. उमर की जिस रुबाई का आपने जिक्र किया उसका हिन्दी अनुवाद पं. रघुवंश गुप्त ने कुछ ऎसे किया था. इसके बारे में मैने यहाँ लिखा है.

दो मधूकरी हों खाने को, मदिरा हो मनमानी जो,
पास धरी हो मर्म-काव्य की पुस्तक फटी पुरानी जो,
बैठ समीप तान छेड़े, प्रिय, तेरी वीणा-वाणी जो,
तो इस विजन-विपिन पर वारूँ, मिले स्वर्ग सुखदानी जो