9/20/2005

सपनों की वह सोनचिरैया

मोर पँख से रंग सजे थे
नभ नीला भी गाता था
पलकों पर सपनों सा तिरता
एक ख्याल सो जाता था

नींद भटकती रात की गलियाँ
सूरज भोर जगाता था
अँधकार की चादर मोडे
दिवस काम को जाता था

तब मैं याद तुम्हारी लेकर
मन ही मन में गुनती थी
इंतज़ार के इक इक पल में
तेरी याद के मोती चुनती थी

सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी

सपनो की भर घूँट की प्याली
मन मलंग बन उडती थी
याद को तेरी फिर सिरहाने रख
चैन की नींद सो जाती थी

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

काफी अरसे के बाद पूरी कविता पढने को मिली.कविता तो बहुत अच्छी लगी
लेकिन खासकर ये पंक्तियां बहुत अच्छी लगीं:-

सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी

ऐसे ही बढिया-बढिया लिखती रहें.

Kalicharan said...

very nice poem. Easy to read, easy to comprehend, pleasing to the mind and easy to praise.

Manish Kumar said...

सपनों की वह सोनचिरैया
छाती में दुबकी जाती थी
उसकी धडकन मुझसे मिलकर
बरबस मुझे रुलाती थी
bahut khoob Prtyaksha ji!