रोज़ मर्रा के जीवन का मौन
निमंत्रण ???
रात को बोलती थी
वनपाखी
तब जब चाँद्
टहनियों से होकर
घुस जाता है
कमरे में
तब मैं याद करती हूँ
उस सुबह को
कई साल पहले
जब भोर उगता ही था
हम निकल पडे थे
खेतों में
टमाटर, हरी मिर्चॅ
दquot;र धनिये की क्यारियों
के बीच
मैंने मेंड पर से एक
जँगली पीला फूल
टाँक दिया था
तुम्हारे सफेद मलमल
के कुर्ते के काज़ में
दquot;र बदले में
तुमने दिया था
फूल नहीं
गिनकर
तीन टमाटर, दस हरी मिर्च
दquot;र एक मुट्ठी हरा धनिया
मेरे साडी के
पसरे आँचल में
उस दिन उसी मिर्च दquot;र
धनिये की चटनी से रोटी
का निवाला तोडते
तुमने हँस कर कहा था
हमारा प्यार
हमेशा ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक
ज़ुबान से लेकर
शिरादquot;ं तक झनझनाता रहे...
आज मुद्द्त बीते
रसोई में
बेंत के डलिये में
रखा ट्माटर, मिर्च दquot;र धनिया
मुझे ले जाता है
उसी सुबह की दquot;र
मैं सोचती हूँ
क्या आज भी तुम
चटनी खाकर
कहोगे
हमारा प्यार
ऐसा ही
तीखा, चरपरा, चटक ........?
शायद तुम
आज भी
मेरे मन के
इस मौन आग्रह को
पहचान लोगे......!!!
वक़्त की पीर बखानती कविताएँ : मंगलेश डबराल
2 weeks ago
No comments:
Post a Comment