12/31/2010

सोचें खुशी

रंग अक्रिलिक , नृत्यरत
शाम के उदास फीकेपन में
किसी गीत का बजना जैसे
ये सोचना कि
उदासी का रंग हर सिंगार क्यों है
उमगती खुशी क्यों नहीं
जैसे बच्ची हँसती है , अनार खाती है
उसके अनार से दाँत में फँसी हँसी हँसती है
कानों के पीछे खुँसा जबाकुसुम का फूल ढलकता है
कैलेंडर पर कतार में नीले हाथी चलते हैं
सूँड़ उठाये
रसोई से उठती है महक हींग की
और कहीं बाहर से आता है स्वर
रेडियो सीलोन का
रात के बारह बजे हम गले लगते हैं
और थक कर सोते हैं नींद में
सब सपनों को फिलहाल मुल्तवी करते
मुकेश का गीत कभी इतना मार्मिक
पहले नहीं लगा था जैसे इस वक्त
शाम की उदासी में लगता है
जबकि हम कहते रहे एक दूसरे को
खुश रहो खूब खुश रहो
जानते हुये कि ऐसा कहना
अपनी सब सद्भावना देना है लेकिन
खुशी निश्चित कर देना नहीं
फिर भी ऐसा कहना अपनी ओर से
कोई कमी नहीं छोड़ना है

कैलेंडर के हाथी मालूम नहीं इकतीस दिसंबर के बाद
कहाँ जायेंगे
मालूम नहीं अनारदाँत लड़की बड़ी हो कर
कितना दुख पायेगी
मालूम नहीं उदास गाने क्यों न हमेशा के लिये बैन कर दिये जायें
क्यों नहीं किसी भी चीज़ के खत्म होने के खिलाफ कड़े नियम बनाये जायें
क्यों नहीं तुम मेरा हाथ पकड़ कर भाईचारे में सूरज की तरफ उठे चेहरे
की खुशी के पोस्टर बनाओ
और ये न कहो कि कागज़ चारकोल से गंदे करो
जबकि मैं पानी के रंग की खुशी चाहूँ
जबकि मैं गाने बिना शब्द के गाऊँ
जबकि मैं आग में पकाऊँ बैंगन का भरता
और अपने लिये खरीदूँ नई किताबें
और कहूँ तुमसे , सुनो तुम को मेरी सब सद्भावना
और ये संगीत तुम्हारे लिये
और ये शब्द तुम्हारे लिये
और ये रंग तुम्हारे लिये
और चाहूँ कि तुम भी चाहो यही सब
मेरे लिये
यही सब सबके लिये
कि भीड़ में खड़े हम सब
आमने सामने खड़े गायें कोरस में
कि भाषा के पहले भी प्यार था भले वो
उस लड़की के दो चोटियों और मनुष्य के जानवरों की नकल में था
शायद खलिहान में लगे उस कनकौव्वे में या फिर उस पाजी की गुलेल में था
लोर्का की कविता और चवेला वार्गास के गीतों में था या फिर बाउलों की संगत में था
किसी फकीरी फक्कडपने का ठसक भरा राग था
या किसी बीहड़ महीनी का अंतरंग रंग था
जो था सब था
तुम्हारी आँखों के सामने जस था
रूठे बच्चे की आधी सिसकी था
किसी के भय का खट्टा स्वाद था
कहीं दूर सुदूर से आते साईबेरियन क्रेन सी उड़ान था
किसी टीवी चैनेल पर जोश उन्माद भरा बीच बहस
किसी जोकर का रसरंग था
इस चिरकुट सी दुनिया के भ्रष्ट अफसाने और
व्हाई इज़ लाईफ सो ब्लडी अनफेयर का रिफ्रेन था

सुनो अब भी , इतना सब होने पर भी हम कहते रहे
दॉन कियोते न बन पाये कोई साँचो पाँज़ा ही बन गये होते
क्यों हम कभी अल बेरुनी फहियेन या मार्को पोलो न बन सके
कभी सोचा कि अलेक्सांन्द्र या कोलम्बस होना क्या होना होता होगा
कि शब्दों की नौका पर सवार अटलांटिक ही घूम आयें ? या फिर
अफ्रीका की धूपनहाई धरती पर एक झँडा , न सही आर्कटिक
और ग्रीनलैंड , न सही एस्कीमो या ज़ुलु या फिर कोई मुंडा ओराँव भी चलता
किसी टोटेम की पूजा और पत्तों पर खाना , जँगल के जँगल
की पहचान
कितने प्रश्न हैं , लेकिन तुम कहते हो सोचा मत करो
मैं सोचती नहीं , न हरसिंगार न जबाकुसुम
मैं सोचती हूँ , खुशी
सोचने से मिलती है चीज़ें जैसे किसी साईंस फिक्शन या फंतासी साहित्य में
पढी  गई कहानी , जो हर होने को सँभव बनाती हैं
तो आज के दिन , जो कि हर किसी और दिन की तरह खास है
आओ हम मिलकर सोचें , खुशी
और सोचें उम्मीद
और सोचें , उस सोच को जो हर इन एहसासों को मूर्त करता है
जैसे बच्ची के चेहरे पर हँसती मैना
जैसे गाने का कोई भूला मुखड़ा
गोगां के पैलेट का कोई चहकता रंग
या फिर हमारी साझी हँसी का तरल संसार
इन टैंगो , ईवन इफ इट इज़ द लास्ट वन
क्योंकि इस विशाल विस्तृत संसार में सुनियोजित है
हमारा इस तरह कभी उदास होना और
कभी तरल , कभी कहना बहुत और सुनना और ज़्यादा
कभी तुम होना और कभी मैं
और हमेशा , अकेलेपन , तीव्र अकेलेपन के बावज़ूद
उड़ान लेना किसी पक्षी के जोड़े की तरह , इन टैंडेम
वाल्ट्ज़िंग इन द इनर स्काई
अपने भीतर के संगीत की संगत में
होना
ऐसे जैसे इस भरपूर संसार में खुद से बेहतर और कोई न हुआ
खिली धूप , नीले आसमान में सबसे सफेद
सबसे खूबसूरत परिन्दा

12/21/2010

स्टिल लाईफ

कुछ सिलसिलों में इधर चीन पर बहुत कुछ सामग्री पढ़ने देखने में गुज़री । यांगत्से पर एक डॉक्यूमेंटरी , फिर जिया ज़ांगकी  की स्टिल लाईफ । थ्री गॉर्जेस डैम पर बहुत सारे आलेख । नदी की कहानी , शहरों की कहानी , बाढ़ से विस्थापित लोगों की कहानी , चीनी सभ्यता की कहानी , उनका खान पान , इतिहास , संगीत .. बहुत कुछ । उतना सब जो चीन घूम आने के बावज़ूद नहीं दिखा था , नहीं देखा था ।
स्टिल लाईफ , दो लोगों के थ्री गॉर्जेस डैम की पृष्ठभूमि में अपने जीवन साथी की तलाश  की कहानी है , साथ ही कलाकार लियू ज़िअओदांग पर बनी वृत्त चित्र दान्ग साथ साथ चलती है ।

यांगत्से डॉक्यूमेंटरी एलेन पेरी ने बनाई है और फिल्म में ऐसे बहुत मौके हैं जब नदी की महिमा अपने पूरी गरिमा में दिखती है । नदी के किनारे रहने वाले लोग जिन्हें बाँध की वजह से विस्थापित किया गया , नदी में भयानक बाढ़ के दृश्य , चीनी सरकारी पक्ष , बाँध की वजह से होने वाले नुकसान और नफे की कहानियाँ , सरकारी भ्रष्टाचार के किस्से , उनके आँकड़े , आम आदमी की सोच , स्थानांतरित लोगों की तकलीफ , बहुत बड़े बड़े आँकड़े , पश्चिमी नज़रिया ..कहते हैं थ्री गॉर्जेस डैम इज़ अ मॉडेल फॉर डिज़ास्टर किसी सीसमिक फॉल्ट लाईन पर बना बाँध कभी भी भीषण विपदा का कारण बन सकता है । जैसे कैलीफोर्निया के सियेरा नेवाडा पहाड़ियों की तलहटी में बना ओर्वील डैम । या फिर जिसे कहते हैं रिज़रवायर इंडूस्ड सीस्मिसिटी । इतना जल कि उसके दबाव से भूकंप आ जाये ।

इन सब आँकड़ों की बौछार के परे यांगत्से और स्टिल लाईफ में हम वही दुनिया देखते हैं जो बहुत कुछ हमारी ही दुनिया है ।स्टिल लाईफ् का नायक हान सान मिंग पूरी फिल्म में एक बनियान में दिखता है । उसके चेहरे पर बिना किसी नाटक के अथाह दुख है । फिल्म के पात्र फुंगशी के विरान ढहते हुये शहर में बिना जड़ों के घूमते दिखते हैं । शहर बाँध बँधने की वजह से बाढ़ की प्रत्याशा में ध्वस्त किया जा रहा है । फिल्म मलबों के ढेर से गुज़रती , छोटे घरों के सफेद मटमैले चूने लगी दीवारों और काठ के दरवाज़ों से गुज़रती नदी तक पहुँचती है । ये दृश्य भारत के किसी भी छोटे शहर का हो सकता है , बिलासपुर , चक्रधरपुर , चाईबासा , कहीं का भी । और हान सान मिंग भी यहीं कहीं का हो सकता है । जिसके चेहरे के निर्विकार स्वरूप में तकलीफ को झेल लेने की असीम शक्ति दिखती है । फिल्म शेन हॉंग की कहानी भी है जो अपने दो साल से गायब पति की खोज में फुंगशी पहुँची है । ऊँचे पहाड़ और विशाल नदी की प्राकृतिक सुंदरता के बीच मनुष्य द्वारा बनाया ध्वस्त शहर के मलबे की विलोम दुनिया है , एक बच्चे का गीत है अपने बालपन की निर्दोष आवाज़ में , हान सान मिंग की पत्नी के भाई हैं जो उसके सामने पतली सी जगह में अड़से नूडल खाते हैं बिना उससे आग्रह किये हुये और हान है , वापस शाँग्सी लौटने के पहले साथियों में सिगरेट बाँटता , एक साथी हाथ जोड़ कर विनम्र मनाही करता है , शेन हॉंग अपने पति के कँधे से लग कर नदी के किनारे , डैम की पृष्ठभूमि में नृत्य करते फिर कुछ हैरत से अलग होते , हमेशा के लिये अलग होने और शहर के घरों की दीवारों पर अंकित जल स्तर की ग्राफिति कि यहाँ तक शहर जल प्लावित हो जायेगा ।
यांगत्से इन्हीं कहानियों को आँकड़ों और तर्क के साथ पेश करती है । किसी भी आधुनिक औध्योगिक परियोजना को बनाने में नैतिक , पर्यावरणीय , अर्थशास्त्रीय और राजनैतिक मूल्यों के इर्द गिर्द उसका निष्पक्ष आकलन कर लेना आसान नहीं होता ।

स्टिल लाईफ और यांग्त्से में जो दुनिया है वो हमारी दुनिया है , उतनी ही कंगाली और भुखमरी की दुनिया जबकि यूरोपियन सिनेमा में गरीबी भी हमारी नज़र में एक रूमानी गरीबी है जैसे ज़्यां द फ्लोरेत में जेरर्द देपारदियू वाईन पीते दुखी होता है कि इस मौसम अगर बरसात न हुई तो वो तबाह हो जायेगा । उसके कपड़े , जूते , हैट तक सलामत साबुत होते हैं , उनकी गरीबी में भी एक किस्म की डिगनिटी होती है । हनी अबु असद की पैराडाईज़ नाउ में भी सईद का घर , जिसे वो कहते हैं कि यहाँ रहने से मर जाना बेहतर है , नाब्लुस में रहना किसी जेल में रहने जैसा है , भी हमारे यहाँ किसी मध्यम वर्गीय रहन सहन जैसा दिखता है । मजीदी की सॉंग ऑफ स्परोज़ में भी ऐसी बदहाल गरीबी का आलम नहीं होता या फिर बरान में भी अथाह गरीबी के आलम में भी बरान के पैरों में जूते होते हैं । जबकि हमारे यहाँ गरीबी माने शरीर को सही तरीके से ढकने को कपड़ों का न होना , दो जून भोजन का न होना , मौसम की मार बचाने को सलामत घर का न होना ।अलग सभ्यताओं में गरीबी की परिभाषा भी अलग होती है ये समझना मुश्किल नहीं फिर भी किसी भोलेपन में इस फर्क को देख लेना हैरान करता है ।

ऐसी और कितनी फिल्में होंगी जो जाने कितनी अलग दुनिया के वितान बुन रही होंगी । जिया की फिल्म अपने दिखने के बाद छाती में उस संगीत की तरह धँस जाती है जो आपकी ज़ुबान पर अटका रहता है , आप चाहे उसे लाख भूलें कोई धुन आपके भीतर बजती है । हो सकता चीन पढ़ते पढ़ते उसकी दुनिया भीतर फैल गई हो , पिछले दिनों किसी तिब्बती मार्केट में सुना संगीत भी कहीं अपना लगा था , हो सकता है किताबें और सिनेमा आपके साथ यही खेल करती हों कि जो दुनिया अपनी न हो वही खूब खूब अपनी लगे , कि कोई बू सान या ली फेन किसी दिलीप हेम्बरम या राफेल तिग्गा जैसा अपना लगे , कि कोई चॉंगचिंग की गली में चाईबासा का रास्ता दिख जाये और यांग्त्से देखते ऋषिकेश के भी ऊपर चढ़ते गँगा की विशाल धारा की याद आये और यांगत्से में चलते नावों को देखते कोथाय पाबो तारे के मुर्शेद गाज़ी की याद आ जाये ।

सिनेमा लगभग एक कविता की तरह चलती है , धीरे धीरे , क्षय और पतन की कविता , उम्मीद और निराशा के बीच सहज मानवीय उष्मा का जनमना और लाख मुसीबतों के बावज़ूद ज़िंदगी किसी भरोसे के बल पर गरिमा से जी लेना ।  

किसी भी अच्छी किताब और अच्छी फिल्म की संगत आपके साथ यही करती है कि आप बहुत बाद तक एक गुफ्तगू में उसके साथ बँधे होते हैं जैसे किसी अंतरंग का साथ आपको अमीर करता है ठीक वैसे ही .. जैसे इस फिल्म के साथ या जैसे अभी खत्म की गई वाईनसबर्ग ओहायो पढ़कर पानी में धीमे बैठ जाने की अनुभूति हो , वैसे ।