1/03/2009

अब जंगली हरियाले तोते शोर मचाते नहीं उतरते आम के पेड़ों पर

आम के बगीचे के पास रास्ता पक कर धूसर हो गया है , घास ऐसे उड़ गई है जैसे अब इस पत्थर से सख्त ज़मीन पर कोई दूब उगेगा नहीं । लोगों के पैरों की चाप ने ऐसी गत कर दी है । जब उस ज़माने में दीवार मज़बूत थी तब परिंदा नहीं फटकता था बगीचे में । बगल वाले बरामदे में खटिया पर बैठे ईया यही देखतीं है । चाय का गिलास तक उठाते हाथ काँपते हैं अब । सब त्वचा झिंगुर कर सिकुड़ गई है , बाल सन से सफेद । तब हरियाले तोतों का झुँड पेड़ की फुनगी पर आ बैठता था । जंगली तोते । सुनहरे पिंजरे में कैद मीठू राम कैसा शोर मचाता था तब । कैसे पँख फड़फड़ाता था बेचैन अकुलाहट में कि डर में ?

पिछवाड़े वाली खपड़ैल छप्पर अब आधी ढह चुकी । जंगली घास और झाड़ उग आये हैं । पिछली बरसात तो एक करैत निकल गया था शाम को । पेट्रोमैक्स की रौशनी में डंडों से उसका हाँका गया था । फिर दीना उसका कुचला निर्जीव शरीर पतली लम्बी छड़ी पर लटकाये सबको दिखाता फिरा था ।
बड़ा ज़हरवाला साँप था हुज़ूर , उसकी काली आँखें चमकीं थीं । कितने दिनों तक , अरे वही दिन जब करैत मारा था , के संदर्भ से बात करता रहा था दीना ।

आँगन के छोर पर चाँपाकल वाला चबूतरा भी टूट चला । जब से पानी का नल लग गया , उसकी पूछ कम गई । अब कभी चलता भी है तो कैसा लोहराईन , गंदला भूरा पानी निकलता है । पाईप में जंग लग गया होगा जरूर । बच्चे कभी हो हल्ला करते हुमच हुमच कर चलाते हैं तब छेहर सी पानी की मरियल धार निकलती है । चबूतरे के टूटे कोने पर पुदीने की बेल कैसे लहक कर फैली है और उसके एक ओर मेंहदी की झाड़ । पिंकी जब तब कटोरी भर पत्ता सिलौट पर पीस कर जिस तिस को पकड़ कर मनोयोग से हथेली पर अठन्नी जैसा गोला और तीनपत्तिया फूल काढ़ती है । बीस साल की दुबली पतली मैट्रिक पास पिंकी जिसको पिछले छह महीने से ससुराल वाले नैहर ठेल आये हैं । दोपहर को सर झुका कर सरसों के झोल वाली मछली पकाती है , मूड़ी तलती है । जब तक मछली सरसों तेल में तलता है , पीढ़े पर बैठी , घुटनों पर बाँह धरे , लकड़ी के आग को देखते जाने क्या क्या सोचती है ।

अम्मा कहती हैं , लम्बी साँस भरकर , सिलाई स्कूल में नाम लिखा दें ? इस साल बरसात के पहले छत भी छवाना है , नया छाता खरीदना है , मिंटू के स्कूल का फीस भरना है , बाबुजी के लिये नया प्रिंसकोट बनवाना है , और और पिंकी के ससुराल भी तो जाना चाहिये न एक बार ? आखिर कोई कारण तो बताये ? ऐसे बेबात लड़की को छोड़ देता है क्या ? किसी अंदेशे से उनकी छाती धौंक जाती है , हथेलियाँ ठंडी हो जाती हैं । बाबुजी अचानक अलगनी से लटका बंडी उतारकर पहनते हैं और बिना कुछ बोले निकल जाते हैं । अब जाने कब लौटेंगे । जब से सस्पेंड हुये हैं तब से एकदम चुप्पा हो गये हैं ।


ईया झुकी कमर को सहारा देतीं खटिया से उठती हैं । निहुर कर अपनी कोठरी में घुसती हैं । बाहर की चकचक धूप के बाद आँख एकदम अँधिया जाती है ..अंदर ठंडा अँधेरा है , बांस की अलगनी पर कथरी और चादर मोड़ कर लटका है , चौकी के बगल में थूकदान और हुक्का , चीकट तकिये के ऊपर पूरी बाँही का ब्लाउज़ और किनारी वाली धोती , सीट कर चपोत कर तहाया हुआ । भूख लग गई है । पुकारती हैं , पिंकी पिंकी ..


सामने एक तस्वीर टंगी है फ्रेम में । घर के मालिक शेरवानी अचकन पहने , सर पर टोपी धारे कुर्सी पर बैठे हैं , दोनों हाथ नक्काशीदार छड़ी की मूठ पर टिकाये । बगल में ईया , तब की तीस साल की , सीधा पल्ला साड़ी और बालों की काकुलपत्ती के बीच शरमाती हँसती आँखों से सामने देखतीं और पैर के पास दो गदबद बच्चे और किनारे एक अदद झबरीला कुत्ता । पीछे डाकबंगला नुमा विशाल घर के सामने का हिस्सा पीछे के बैकग़ाउंड में घुलता फ्रीज़ होता है ।


अब जंगली हरियाले तोते शोर मचाते नहीं उतरते आम के पेड़ों पर ।

15 comments:

Anonymous said...

achcha likha hai.

विधुल्लता said...

yaadon ke jangal main ..ek khoobsurat khayaali picture..

Unknown said...

परिवर्तन ही संसार का नियम है....जो आज है वो कल नही और जो कल है वो परसों नही...बस यादें रह जाती है....

अजित वडनेरकर said...

ओस भीगी, हरियल यादों के पिटारे को सहेज कर रखना बहुत जरूरी है...आपने तो बखूबी रखा है...
जै जै

ghughutibasuti said...

पता नहीं जंगली हरियाले तोते कहाँ और क्यों चले जाते हैं। चले जाते हैं तो साथ यादों को भी क्यों नहीं ले जाते ?
घुघूती बासूती

डॉ .अनुराग said...

शानदार कहना अब मैंने छोड़ दिया....पर अच्छा लगा आज एक लेखिका जब ब्लॉग में दिखी......अपने पूरे रूप में

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

प्रत्यक्षा,
नव वर्ष मेँ अनेकोँ शुभकामनाएँ
तथा आपकी लेखनी
यूँही नित नये कैनवास चित्रित करती रहे
यह शुभकामना सहित
बहुत स्न्हे सहित
आपकी ही,
- लावण्या

कंचन सिंह चौहान said...

आपकी कहानी अहा जिंदगी में पढ़ी..... बहुत ही अच्छी थी..।!
बधाई..बहुत बहुत बधाई...!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

ऐसा लगा जैसे "इया"..........मेरे सम्मुख से ही कहीं आ-जा रही हो....अपना काम निपटाते....हिदायतें देते.....बच्चों से कुछ बतियाते....प्यार से देखो ना....तो बूढे बच्चों से भी ज्यादा प्यारे मालूम पड़ते हैं.....सच....आपने जो वर्णन किया काबिले-तारीफ़ है....मैं ब्लोगों पर ज्यादा आ नहीं पाता....और जो अच्छी चीज़ पढ़ ली तो फिर जा नहीं पता.....सच.....!!

Ashok Kumar pandey said...

यह नास्टेल्जिया छू गयी कहीं भीतर तक।
पहले भी पढता रहा हूँ आपको।
अगर कविताओं में रुचि हो तो आये मेरे ब्लाग पर्।
http://asuvidha.blogspot.com

अजित वडनेरकर said...

हमेशा की तरह बेहतरीन...

अजित वडनेरकर said...

हमेशा की तरह बेहतरीन...

neera said...

न जाने कितने सारे धूंदले पड़ते इया और पिंकी
किस कदर सजीव वो उठे अब..

"अर्श" said...

सरल और जबानी शब्दों से लिखी एक बेहतरीन लेख... जो यादों को बेतरतीब सजाया है , बहोत खूब लिखा है ...
ढेरो बधाई आपको आपके ब्लॉग पे पहली दफा आया हूँ ये लेख पढ़ा के मज़ा आगया

अर्श

Bahadur Patel said...

bahut achchha likha aapane. kitane ese jeevan hamare aaspaas bikhare pade hai. aapaki drishti un jagahon par jati hai to karamat karati hain aap. badhai.
aapaki kahani abhi-abhi naya gyanodya me aai hai. kahani bhi achchhi lagi badhai sweekaren.