लड़की झुकी थी । बाल उसके गिरते थे चेहरे पर । बार बार कानों के पीछे करने पर भी फिर मिनट भर बाद गाल पर गिर आते । ट्रेन के रफ्तार से हिलती डुलती पढ़ती जाती थी लड़की । ट्रेन गीत गाती थी । उसके चक्के एक बीट पर घूमते थे , छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । सलाखों से नाक सटाये लड़का गाता था , सपनीली आँखों से देखता था , भागते हुये संसार को , दूर सुदूर किसी धुँधलाये सुबह के कुहासे में डूबा मेंड़ पर एक अकेला छतनार पेड़ , रहट पर पानी उलीचता किसान , भागते हुये धूँये उड़ाती रेल को भौंचक पनीली आँखों से ताकती गाय, बछड़े की बजती घँटी , कोई नया नया संसार । लड़का गाता था । लड़की पढ़ती थी । छिटके धूप में दौड़ लगाते सूरज की रेलगाड़ी से रेस । किसी गुमटी पर पल भर धीमी होती ट्रेन को ताकता खेत का बिजूका , उठंगी छींटदार फ्रॉक पहने बिखरे बालों वाली टोकरी उठाये लड़की , उजबक लड़का और गोबर पाथती औरत ।
फिर रफ्तार पक़ड़ती रेल , पीछे सब छूट जाते , सब । कभी न दिखने के लिये । मन का एक छोटा हिस्सा कैसा टूट मरोड़ जाता । एक बार , सिर्फ एक बार फिर । गले की थूक घोंटता लड़का आँखें बन्द कर लेता है सिर्फ उतनी ही देर तक जितनी देर रेल गुमटी से पार हुई थी । लड़की इस सब से बेखबर , पढ़ती जाती है । रेलगाड़ी भागती है छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा । गले की थूक अटकती है अंदर के संसार में , बाहर के संसार में ।
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
11 comments:
बात तो अच्छी है पर "ट्रेन तो गाती थी ना" आज "गाने लगा" और "ड़" कब से "ड" होने लगा वो भी सब जगह.ध्यान दें हमें ऎसे ही ज्ञान दें.
प्रत्यक्षा बहुत खूब लिखा है,रेलगाड़ी के सफ़र की याद आ गई,अंदर की भी और बाहर की भी.
अच्छा शब्दचित्र है।
सही कर दिया सर । आज तक नुक्ता मुझे मिलता नहीं था सो ड़ को ड लिखती थी और ये सोचती थी कि लोगबाग उस नुक्ते की कमी को नज़र अंदाज़ कर पढेंगे । फिर आज आपकी टिप्पणी देखकर थोडी कवायद की और यूरेका ! आज खोज ही निकाला , तो ड़ ज़िंदाबाद !
शुक्रिया काकेश ।
प्रत्यक्षा बहुत खूब लिखा है,रेलगाड़ी के सफ़र की याद आ गई,अंदर की भी और बाहर की भी.
रजनी भार्गव
बहुत दिनों के बाद आपको पढ़ा है, बिल्कुल वही बात वही अंदाज़, बहुत सुंदर
एक मकड़ी के जाले के तार सा अदृष्य सूत्र लड़के के गाने और किताब के पन्ने के बीच जरूर रहा होगा.
आपको पढ़ती हूँ तो ऐसा लगता है आप हाथ पकड़ कर किसी सफर में ले गई....इस तरह से बाँधना गलत बात है ....स्क्रीन के सामने इस तरह खोने की इजाजत नहीं है।
अति सुन्दर चित्रण-काफी पुरानी यादों में गया!!
छुक छुक छुक छुक एक पैसा एक पैसा ।
वाह!!
शब्दचित्र बहुत हद तक सटीक है, किन्तु विचारणीय है कि लडकी नामक केन्द्रविन्दु ! कुल वर्णन इशारा करता है कि -
१) शायद वह इन्टरव्यू देने जा रही हो ,तैयारी अधूरी है .
२) यात्रा मे पढना उसका प्रिय शौक हो पर यह शौकिया नही लगता.
३) यदि शौकिया पाठन होता तो वह बाल के लटो को ठीक करते हुए इधर उधर नज़र अवश्य दौडाती
४) एक प्रबल दावेदारी लडके की भी दिखती है, शायद उससे नज़र बचाने के लिये ही लडकी लगातार पढने का अभिनय कर रही हो
५) आपने लिखा है " लडका गाता था - लडकी पढती थी .", क्या गाता था भला जो लडकी को इतना बेखबर किये जा रही थी .गोया लडकी मोनालिसा के मुस्कान सरीखा रहस्य ओढे हुए बैठी हो
६) यह सामान्य तो नही ही लगता कि ज़वान लडके - लडकी एक दूसरे से इतना बेखबर से हो कि एक दूसरे को देख भी नही रहे
यदि बात को बेवज़ह ही तूल दिया जा रहा दिखता हो और यह महज़ एक ट्रेनयात्रा का निष्कलुष वर्णन मात्र है
तो फिर एक सर्वहारा क्यो नही , इसके केन्द्रविन्दु मे लडकी ही क्यो ? कम से कम यहा भी लडकी पडोसने वाली उपभोक्तावाद की मानसिकता तो आपकी नही ही होगी, प्रत्यक्षा जी ?
रजनी जी , अनिल जी , सजीव जी , समीर जी ..शुक्रिया
बेजी स्क्रीन के पार आपको देख रही हूँ :-)
ज्ञानदत्त जी आपने उस अदृश्य तार को देख लिया ।
अमर जी , इस श्ब्दचित्र के केन्द्र में न तो लड़की है न लड़का बल्कि कुछ अबूझ अदेखा सा छूट जाने का दर्द है । लड़का, शायद मेरे मन में, दस ग्यारह साल का छोकरा है और लड़की उसकी बड़ी बहन जो खूब डूब कर पढ़ती है और लड़के के गाने की इतनी आदी है कि उसे फर्क नहीं पड़ता कि वो गाता है या नहीं तब तक जब तक कि उसके पढ़ने में कोई खलल न पड़े ।
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