पिछले महीने मसूरी गये । शाम निकले , रात मेरठ में । फिर अल्लसुबह मसूरी को ।
मेरठ के आगे चलते चलते अचानक हवा में मीठी ,सोंधी खुशबू । गाडी रोका और पहुँच गये गुड बनते देखने । आव भगत हुई , मतलब बेंत की कुर्सी दी गई , ताजे गुड की भेली ,अखबार के पुडिये में पेश किया गया ।
गन्ने का रस खौलाया जा रहा था बडे हौदों में । नीचे आग तेज़ लहक रही थी । कोई सफेद पाउडर तो डाल रहे थे , रस को साफ करने के लिये । बहुत पूछने पर भी ये नहीं बताया कि ये निर्मा पाउडर है ।
तो ये गुड , गुडगाँव का नहीं यूपी का है । मेरठ के आगे कोई जगह थी बडा प्यारा सा नाम था । ध्यान नहीं आता अब । वैसे नामों के बारे में , दिल्ली के कई जगहों के नाम से ऐसी सिहरन उठती है । लगता है मुगलकाल में पहुँच गये , सराय रोहिल्ला , सराय कालेखाँ , युसुफसराय । साकेत से मेहरौली आयें तो कुतुबमीनार सीधा दिखता है । हरियाले पेडों के बीच खडी मिनार । हरबार उधर से आते वक्त लगता है घोडों की सरपट टाप सुनाई दे रही है । पुराना किला घूमें तो शायद कहीं कोई मुगल बादशाह घूमता नज़र आ जाये या फिर हमाम में नहाती शाहज़ादी । दाफीन दी मौरियर का मगनस लेन और डिक यंग याद आ जाता है ।
नालन्दा घूमते वक्त भी ऐसा ही कुछ लगता था । नालन्दा के आसपास सीहिन नाम के गाँव में ननिहाल था । सो वहाँ घूमते वक्त लगता कि अपने पुरखों पूर्वजों के बीच घूम रहे हैं । देजा वू जैसी अनुभूति होती । रूट्स अब समझ आया । एक्सोडस भी । खैर ये सब प्रलाप फिर कभी ।
ज्ञान वर्धन तो सचमुच हुआ । लौटती वक्त पाखी अपने खास अंदाज़ में जगह जगह किलकती रही , मुझे गुड की सूँघ आ रही है । खेतों में छोटे छोटे गुड के खदकते हौद । कुछ बडे शुगर मिल्स । फिज़ा मीठी थी । बच्चे अब महक से पहचान लेंगे कि गन्ने से गुड बनाया जाता है । नहीं तो बेचारे भोले मासूम अब तक पैकेट में गुड देखते आये थे ,उसे गन्ने से जोडना उन के लिये नामुमकिन ही था ।
हाँ , कैमेरे का इस्तेमाल बढिया हुआ । इस बार मसूरी में एक एंटीक शॉप दिखी लंडूर के रास्ते में । मॉल से दूर ,छोटी सी । ढेर सारी अंग्रेज़ों के ज़माने की चीज़ें , क्म्पास , आवर ग्लास , दूरबीन , तरह तरह की घडियाँ , सौ साल का कैलेंडर । दिखायेंगे , आपको भी दिखायेंगे ,पर अगली बार । तब तक आज यहीं पर बस ।
फताड़ू के नबारुण
1 month ago