नीता
,जो
व्यतीत है , दोहराई
जा रही है रात और दिन में । श्यामल उसके लिये एक सीमा है जिसके बाद सब गैर और
अनैतिक है । दक्षिणेश्वर , बेलूर
, काली
माँ का मंदिर , विक्टोरिया
मेमोरियल , ज़ू
और म्यूज़ियम में इतिहास जीवित है । श्यामल इतिहास के पृष्ठों से गुज़र रहा है ।
नीता इन जगहों की धूल में अपना इतिहास खोज रही है जो श्यामल से पहले बीत गया है
,जहाँ नीता अव्यतीत है ।
अतीत
के पत्थर पर खुदी दो मूर्तियाँ - पुरुष और नारी - जो मिलते मिलते जड़ हो गये सदा
सदा के लिये ।बारिश से नहाई सड़्क पर तेज़ी से फ़िसलती हुई अनगिनत गाड़ियाँ , व्यस्त चेहरों का प्रवाह ,झिझका हुआ अँधेरा, बेशुमार जलते हुये लट्टुओं की हँसी ,सब हल्की फ़ुहारों से गीले । और नीता ,
सड़क के धुँधले आईने में इनकी भागती हुई
प्रतिछाया देखती है । यह सड़क जो समय के जंगल से गुजरती आ रही है , अतीत के पहाड़ को काटती हुई वर्तमान के
समतल मैदान में ।
वक्त
नक्शा बदल देता है ,फ़ंडामेन्टल्स
हर हालत में जीवित रहते हैं , जो
शाश्वत हैं -स्थान और काल सभ्यता और संस्कृति से बिलकुल अछूते -एक कुँवारी लड़की
की तरह । कुछ ख्यालों ,व्यक्तियों
और घटनाओं में वक्त कैद हो जाता है । नीता आज अपने मन के द्वार पर किन्ही बिसरे
हुये ख्यालों की दस्तक सुन रही है जो एक व्यक्ति और अनेक घटनाओं को जगा गई है ।
अनेक घटनाएँ और अनेक ख्याल जिसमें एक व्यक्ति
जीवित
है , ऊँची
इमारतों को चूमने वाली किरणों की तरह और उसपर नृत्य करती हुई हवा की तरह ।
शहर
जी रहा है , गीत
से स्पंदित है , पल
भर का विश्राम नहीं । श्यामल गति को पकड़ रहा है । नीता पीछे छूट जाती है । वह मुड़
मुड़ कर गुज़रे वक्त के पास रह जाती है । लाल पीले , हरे नीले रिबनों की तितलियाँ , जीन्स , स्कर्ट
, शलवार
, दुपट्टों
और साड़ियों की इन्द्रधनुषी रंगिनियों की परेड , सागर और घटाओं को मिलाने वाला संगीत , झरती हुई बूँदों की सिम्फ़नी और आत्म विस्मृति का अनंत सागर जो
उन दोनों पर लहरा रहा है । चीनी ,ईरानी
,इंगलिश
और भारतीय होटलों और रेस्त्रांओं में विभिन्न संस्कृतियों, लिबासों और भाषाओं का कॉकटेल, यह कलकत्ता है, एक कॉस्मोपोलिटन
शहर
, जहाँ
संस्कृतियाँ एक दूसरे को छूती हैं , टकराती हैं और एक दूसरे पर असर डालती हैं ।
अब
वे दोनों चौरंगी के सायादार फ़ुटपाथ पर चल रहे हैं । नीता बेहद थक गई है । श्यामल
ताज़ा और चुस्त हैं । उसका कहना है , "किसी शहर को देखने और समझने के लिये पैदल चलना आवश्यक है कि
आँखें थक जायें टैक्सी से भागते हुये शहर को न हम आँखों से पकड़ सकते हैं न मन से ।
नीता
की नज़र श्यामल पर है । श्यामल के घुँघराले बालों में बारिश की बून्दें मरकरी की
उजली रौशनी में मोतियों सी चमक रही है । सस्ते बैगों , कंघियों , फ़ाउन्टेन
पेनों और व्यवहार में आने वाली ऐसी अन्य छोटी चीज़ों के ढेर फ़ुटपाथ के दोनों बगल
लगे हैं । बडे बडे फ़ूलों के स्कर्ट में एक जान्डिस सी पीली लड़की श्यामल को घेर रही
है । उसके हाथ में फ़ाउन्टेनपेनों से भरा एक थैला है । इस हुजूम में कौन किसके साथ
चल रहा
है ,
समझना मुश्किल है । या तो सब साथ हैं या
सब अकेले । श्यामल को उसने अकेला समझा है । वह श्यामल के हाथ में एक पेन थमा देती
है । वह बहुत धीरे धीरे कुछ अँग्रेज़ी और बँगला में कुछ कह रही है जो शायद पेनों की
बात नहीं है । नीता कुछ आगे श्यामल के लिये ठहरी है । वह उस लड़की को समझने की
कोशिश कर रही है । लिबास और भाषा से नहीं जाना जा सकता कि वह किस देश की है ,
चेहरा भी
शुद्ध
मंगोल नहीं है । देश चाहे कोई भी हो पर भूख है जो काल और देश को नहीं बाँधती ।
श्यामल मुस्कुराता हुआ नीता के पास लौट आता है ।
"नीता
, पेन
बेचने वाली लड़्की को देख रही हो न ? पोशाक और बोलचाल से कितनी सभ्य लग रही है । मैंने बड़ी मुश्किल
से पिंड छुड़ाया है । वह एक गलत तरह की लड़की है"।
"आपने
पेन खरीदा ?"
"वह
पेन कहाँ बेच रही थी । उसका व्यापार पेनों का नहीं शरीर का है । वह चंद सिक्कों पर
बिक सकती है किसी भी अदना चीज़ की तरह । वह मेरे या किसी के भी अकेलेपन को दूर कर
सकती है
, एक
रात के लिये ही सही ।"
ग्रैन्ड
होटल आ गया था । वे दोनो वहाँ ठहरे हैं। बड़ा सा डाईनिंग हॉल , सुर्ख गुलगुला गलीचा , पीतल के चंद गमलों में कैद बहार ,हर मेज़ पर सर उठाये सफ़ेद नैपकिनों के
बगूले । प्लेटों और चम्मचों , काँटों
और छुरियों की ऑरकेस्ट्रा के बीच डूबे हुये नीता और श्यामल और युनिफ़ॉर्म में
मुस्तैद बओरे जो हर क्षण हुक्म की तामीली को प्रस्तुत हैं ।
नीता
का ध्यान खाने में कम है । उसकी निगाह हर मेज़ को छू रही है । एक मेज़ अभी खाली है
।वह उस लड़की का इंतज़ार कर रही है जिसको वह लगातार तीन दिनों से देख रही है ,
जिसके गालों पर सुर्ख गुलाब की आभा रहती
है और जिसकी ऐंठी हुई पिपनियों पर हँसी डोलती रहती है , जिसकी हर अदा अनमनी नज़रों को भी ठहरा लेती है और जिसके साथ
कीमती सूट और बो में एक स्मार्ट लड़का रहता है । शायद उनका एन्गेज़मेंट हो गया है ,
शायद कोर्टशिप का स्टेज हो । खाने में
तल्लीन श्यामल नीता को भला लगता है बिलकुल शिशु की तरह सरल और निश्छल । वह उसे माँ
की ममता से देखती है ।
खाना
समाप्त कर वे दोनों उठ रहे हैं । वह लड़की आ रही है , रुक रुक कर चलती हवा की तरह । लड़का आज उसके साथ नहीं है । आज
उसकी अदा में बिजली की चपलता नहीं है । चेहरे पर डूबती हुई शाम की खामोशी है और
उजड़े हुये बाग की वीरानी । ठहरी हुई हवा की तरह वह कुर्सी पर स्थिर हो जाती है ।
नीता और श्यामल अपने कमरे में वापस आ जाते हैं ।उस लड़की की उदासी नीता को छू गई है
। उसे अजय की याद आती है और उस बंगालन लड़की की , जो अब आम रास्ते की तरह है जिस पर जो चाहे गुज़र जाये बेझिझक ।
ग्रैन्ड होटल , ये
कमरा , नीता
पर श्यामल नहीं अजय , दो
साल पहले का कलकत्ता । अतीत दुहराया जा रहा है वर्तमान में । अजय के साथ वह
दक्षिणेश्वर गई थी । अजय ने कहा था
," नीता
, कलकत्ता
मैं कई बार आया हूँ , दक्षिणेश्वर
देखने की साध लेकर लौट जाता रहा हूँ । दक्षिणेश्वर देखने की चाह जैसे युग युग से
मेरे अन्तर्मन में उमड़ती रही है , आज
शायद तुम्हारे पुण्य से यह इच्छा पूरी हो सकी है ।"
नीता
पुलकित थी । आज मन मोरनी की तरह नृत्यमगन था । अजय परमहंस के कमरे के सामने भाव
मग्न आत्मविभोर खड़े थे । नीता देख रही थी , पल भर के सन्यास से प्रभावित अजय को ।
नीता
को महसूस हुआ , प्रेम
, सपने
और अभिलाषायें विराग से धुलती जा रही हैं , और अजय पत्थर की मूर्ति की तरह जड़ थे । सिर्फ़ आँखों में गति थी
, आँखें
जो भक्ति सागर में तैर रही थीं । नीता को एहसास हुआ , अजय दूर बहुत दूर चले गये हैं और वह बिलकुल असहाय और अकेली रह
गई है ।
नीता
ने दो एकबार उन्हें पुकारा पर वे ख्यालों की घाटी में इस तरह खो गये थे जैसे बाह्य
दुनिया से
संबंध के हर तार फ़्यूज़ हो गये हों । एक मुग्ध भाव उनकी आँखों में तैर रहा रहा था ।
नीता ने फ़िर उन्हें लगभग झँझोड दिया तो उन्हे चेतना हुई । चौंक कर बोले ,
"नीता
मेरा तो जी चाहता है कि यहीं इस पवित्र धरती पर , जिंदगी के शेष दिन गुज़ार दूँ । कितनी मोहक और रमणीक जगह है ,
गंगा के पावन तीर पर दक्षिणेश्वर ,
एक पूर्ण विकसित कमल की तरह और उस तीर
पर चन्दन की मीठी खुशबू की तरह बिखरा हुआ बेलूर मठ !"
नीता
को कुछ अच्छा नहीं लग रहा था । वह बेमन ही बारह शिवों के बीच एक ग्रह की तरह परिक्रमा करती रही और हर
शिव में उसे एक ही चेहरा नज़र आ रहा था , अजय का । वे दोनों कुछ देर गंगा तीर पर बैठे रहे । फ़ूल,
सिंदूर , बेल पत्र , धूप
और चंदन के गंध से आच्छादित वातावरण और श्रद्धा से नतमस्तक अनगिनत पुरुष नारियाँ ।
अजय सोचता रहा , क्या
था परमहंस में ? जिन्होंने
अनगिनत पुरुष नारियों के सर झुका दिये अपने कदमों में । और नीता सोच रही थी ,
परमहंस की पत्नी शारदा देवी की बात जो
अपने पति के सन्यास को खुशी खुशी झेल गई । नीता अजय के साथ बेलूर और दक्षिणेश्वर
में बिखरे छोटे बड़े मंदिरों में घूमती रही ।
उस
शाम जब नीता और अजय होटल वापस आये तो नीता बहुत थक गई थी अपने मन से । उसे बराबर
यही लगता रहा कि अजय अपने आप में खूब उत्फुल्ल है और नीता से उनका कोई लगाव नहीं
है। नीता की उदासी अजय की प्रसन्नता के वाटरप्रूफ पर फिसल फिसल जा रही थी । वे कमल
के पत्ते की तरह अप्रभावित थे । कपड़ा बदलने से बिस्तर पर आने तक की क्रियाओं में
वे बराबर रामकृष्ण के एक प्रिय भजन को गुनगुनाते रहे ..”मन चल निज निकेतन “ ।नीता कटी हुई शाख की तरह बिस्तरे पर गिर गई। अजय ने नीता को
बड़े प्यार से अपनी बाँहों में बाँध लिया ।
“आज
मैं बहुत खुश हूँ । जानती हो नीता , दक्षिणेश्वर में मैंने अपने लिये क्या माँगा है , क्या कामना की है ?”
“सन्यास
की कामना की होगी “
”धत
! तुम बिलकुल नहीं समझ सकीं। मैंने तुम्हे माँगा है ॥ तुम कहती हो न नीता ,
कि छिपकर कलकत्ता आना , फिर पति पत्नी की हैसियत से होटल में
ठहरना । तरह तरह के बहाने और झूठी बातें अंतरमन को मान्य नहीं होतीं। पर एक बड़े
सत्य की रक्षा के लिये अनगिनत झूठ क्षम्य हैं । मैंने तो यही जाना है। क्या यह सच
नहीं कि हम दोनों एक दूसरे को संसार की किसी भी चीज़ से बढ़ कर प्यार करते हैं ?
नीता , तुमने भी कोई वर शिव से माँगा ? मैं तो ऐसा भाव विह्वल हो गया था कि एक क्षण के लिये सबकुछ भूल
गया । सच कहता हूँ , तुम्हें
भी भूल गया था ।“
“जानती
हूँ । आपका वह एक क्षण मेरे लिये अनगिनत सदियाँ थीं जिनमें मैं असहाय , अकेली भटक रही थी । आप ही मेरे शिव हैं
। मेरा अंतर्मन क्या आपसे छिपा है ।“
अजय
नीता की प्यार भरी बातों को सुनते रहे अमर संगीत की तरह और देखते रहे मुग्ध होकर
ताजमहल की तरह ।
“लेकिन
नीता , मैंने
जान लिया है कि मेरे मन के किसी कोने में सन्यास छिपा बैठा है जो एक दिन मेरे भोगी
और लोभी मन को जीत सकेगा । एक ऊँचाई पर भोग और योग के बीच की विभाजक रेखा मिट जाती
है और दोनों एकाकार हो जाते हैं सम्पूर्ण में । कोणार्क के मंदिर पर पुरुष नारी के
सम्भोग के अनगिनत आसन धर्म की नज़र में अश्लील नहीं हैं । धर्म की ऊँचाई पर नैतिक
अनैतिक के भेद का अंत हो जाता है । अंतर सिर्फ देखने का है ।
“तुमपर
मुझे अगाध विश्वास है नीता । एक राज़ जो मेरे सीने में नज़रबंद है उसे तुम तक पहुँचा
देना चाहता हूँ । मुझे भरोसा है कि तुम मुझे हर रूप , हर स्थिति में इसी तरह प्यार करती रहोगी ।“
और
अजय अपने अतीत के बखिया को उधेड़ने लगे..... ”तब मैं कोई अठारह उन्नीस साल का रहा होउँगा । पढ़ाई के सिलसिले
में मैं एक बंगाली परिवार में पेईंग गेस्ट होकर रहने लगा । सारा परिवार मुझ पर
विषेश तौर से मेहरबान था । मकान मालकिन की कई लड़कियाँ थीं । सबों ने लवमैरिज किया
था । एक मँझली लड़की को छोड़कर जो पता नहीं अब तक क्यों अविवाहित थी । शायद उसे कोई
उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला था । वह एक अत्यंत भावुक किस्म की चुप सी लड़की थी जिसका
दिल शीशे की तरह नाज़ुक और कमज़ोर था । उसकी बड़ी बड़ी आँखों में एक अजीब सी उदासी
थिरकती थी । उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में दो आँखें ही महत्त्वपूर्ण थीं ।
जिन्होंने मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया । धीरे धीरे वह मुझसे खुलती गई और मैंने
उसके तन मन के सारे बँधन खोल दिये । तुम्हें अपनी समस्त चेतना से छू कर कहता हूँ
कि नीता , न
तब मुझे उससे प्यार था न अब । महज एक उत्सुकता थी आविष्कार की । पता नहीं उसने किस
भरोसे पर अपना सब कुछ लुट जाने दिया था । शायद वह उस बँधन का इंतज़ार कर रही थी
जिसमें मैं बँध पाता ।“
“और
एक दिन उसने बतलाया कि वह माँ बनने वाली है । मैं घबरा गया । दरासल अंजाम मैंने
सोचा ही न था । उसे मैंने किसी डॉक्टर से सलाह लेने की बात समझाई पर वह उसके लिये
एकदम राजी न थी । पूरी रात को वह आँसुओं से भिगोती रही । वह जो चाहती थी उसके लिये
मेरे मन में हिम्मत न थी । बात उसके परिवार पर खुल गई । उसके पिता डरा धमका कर
मुझे शादी के लिये बाध्य करना चाहते थे । पर उस आत्माभिमानी ने सबको चुप करा दिया
। मैंने उनलोगों का घर छोड़ दिया । कुछ दिनों के बाद मुझे मालूम हुआ कि उसके पिता
ने उसको भी घर से निकाल दिया है । अब वह कलकत्ते के टेलीफोन एक्सचेंज़ में काम करती
है और अपना तथा अपने बच्चे की परवरिश करती है । मुझे उससे सहानुभूति थी । मैं अपनी
भूल महसूस करता था । इसलिये कई बार मैंने रुपये पैसों से मदद करनी चाही थी पर हर
बार उसने मनी ऑर्डर लौटा दिया । कुछ दिन पहले सुना अब उसने इज़्ज़त की नौकरी छोड़ दी
है और किसी न किसी मालदार व्यक्ति के साथ घूमा करती है । अब मेरे मन में उसके लिये
घृणा के सिवा कुछ नहीं है , सिर्फ
उस लड़के की बात सोचता हूँ । उसके प्रति एक अजब खिंचाव का एहसास मुझे होता है । वह
जो किसी को अपना पिता नहीं पुकार सकता , करीब दस साल का होगा । उसे देखने की इच्छा कभी कभी प्रबल हो
उठती है पर मैं उस इच्छा को कुचल देता हूम ।“
नीता
अजय की बाँहों के घेरे से मुक्त हो गई । उसे ऐसा लगा था कि उस घेरे में उसका दम
घुट जायेगा । वह ठीक समय पर सँभल नहीं गई होती तो उसके इर्दगिर्द पड़ी बाँहों के
नाग उसे डँस लेते और वह उस ज़हर में तड़पती रहती सारा जीवन । सन्यास की बात ,
रामकृष्ण से प्रभावित होने की बात ,
सुहाने सपने और अनगिनत वायदे सब हवा महल की तरह विलीन
हो गये । उसे लगा कि अजय के चेहरे पर एक नकाब था जो उतर गया । अजय जो नीता को
असाधारण लगते थे और जिनको वह प्रेम से ज़्यादा श्रद्धा और इज़्ज़त करती थी ..अब नीता
की नज़र में किसी भी मामूली कमज़ोर पुरुष की तरह थे जो वासना की ज्वाला में अपने
सिद्धांत , अपने
आदर्श होम कर देता है ।
सारी
रात नीता तनी रही , अजय
उसे झुकाते रहे ..पर नीता थी कि टूट सकती थी , झुक नहीं सकती थी ।
“नीता
क्या तुम मुझे मेरे दोषों के साथ स्वीकार नहीं कर सकतीं ? प्रेम जीवन में एक बार किया जाता है और वह मैंने तुमसे किया है
, विश्वास
करो । वह लड़की तुम्हें मिले तो पूछना कि क्या मैंने उसे कभी प्रेम का आश्वासन दिया
था ? धोखा
मैंने उसे दिया नहीं और न मैंने उससे कोई वायदा ही किया ।“
नीता
खामोश थी । उसे लग रहा था वो नीता नहीं है , बंगालन लड़की है और ये सारी बातें अजय उससे ही कह रहा हो ।
उसे
अजय से कुछ कहना नहीं था ।
“नीता
क्या मेरे सन्यास का वक्त आ गया है ?”
नीता
ने सोचा ये सारी बातें न जाने कितनी बार , कितनों के सामनी की गई होंगी और आगे कहीं जायेंगी । दूसरी सुबह
वह कलकत्ता से अकेली ही लौट आई थी ।
दो
साल बाद फिर कलकत्ता आई है श्यामल के साथ । श्यामल पहली बार आया है और नीता जो
एकबार कलकत्ता देख चुकी है उस कलकत्ता को भूल जाना चाहती है ।
खिड़की
के शीशे पर बून्दों का नृत्य खत्म हो चुका है ।घटायेंजो आखिरी बून्द तक बास चुकी
हैं..अब खामोश हैं । श्यामल के हाथ में सिगरेट है । नीता जानती है आखिरी कश के बाद
श्यामल कुछ कहेगा । और श्यामल ख्यालों के घाटी में भटकती नीता को छेड़ता नहीं । वह
धैर्य से इंतज़ार करता है ।
“नीता
तुम कभी कभी मूडी क्यों हो जाती हो ? क्या तुम्हें कलकत्ता आकर्षक नहीं लगा ?” ”हाँ श्यामल “, और नीता श्यामल की बाँहों के घेरे में समा गई । इन बाँहों के
घेरे में उसे कितनी शांति मिलती है । अब उसे कुछ सोचना नहीं है । व्यतीत को वह
स्पर्श नहीं करेगी । आज उसके सामने श्यामल है जो उसका वर्तमान है ..श्यामल जो उसके
लिये एक सीमा है जिसके आगे सब गैर और अनैतिक ।
“नीता
, कल
हम कलकत्ता छोड़ देंगे । मैं जानता हूँ कलकत्ता तुम्हें अच्छा नहीं लगा । हम कहीं
और चलेंगे ।“ और
प्यार से वह नीता को थपथपाता रहा
आँधी
की तरह एक ख्याल नीता के मन में आता है और उड़ जाता है कि अजय की मंजिल कहीं वही तो
न थी । शायद अजय अब तक भटक रहा हो ..भटकता रहेगा ज़िन्दगी भर ?
( वीणा
सिन्हा )
ये
कहानी 1963 में
मनोरमा में छपी थी । माँ की ये कहानी अब भी कितनी कंटेमप्ररी है . मैं पुलक भरी हैरानी , गर्व और खुशी से भरी हुई हूँ .