5/07/2008

उलट पलट कोलाज किधर

लाल लाल मिट्टी ... सब लाल ... सुबर्नरेखा ... सर्पीली धार ... अलस्त ... मस्त... मुर्गा लड़ाई... मड़ई ... बढ़ई ... हड़िया ...बासी भात ... सूखी मछली ... बिसाईन बिसाईन गँध ... फिर लाल लाल मिट्टी ... सूखे पत्ते ... टेसू के फूल ... फूलगेंदवा चमके ... सफेद सफेद दाँत.. काले सुच्चिकन चेहरे ... फक्क फक्क हँसी ... अब भी अब भी ...रात भर ... दिन भर ... तेज़ कटार धूप ... झुलसा ... धरती ... आँगन ... मन ... हाय रे मन

हरा सब ... सब ... सब ... बीड़ी की लौ ... रात अँधियारी ... पूनम की रात ... बोलता सियार ... अझल देहात ... ट्रेकर पर लाउडस्पीकर ... नगपुरिया गीत .... वोट दो ... वोट दो ... निर्मला मुंडा को ... वोट दो वोट दो ... चर्च का क्रॉस ... गॉस्नर कॉलेज .. चोगे में फादर ... खुली जीप ... अमरीकी डॉलर ... ऑवर लेडी फातिमा ... निर्मल हृदय .. सचमुच !

जंगल ... जंगल ... चीत्कार ... हाहाकार ..बन्द पिंजड़े में ... कैद ... कौन ... पानी में मछली ... जंगल में शेर ... शेर शेर बब्बर शेर... फिर जलता अलाव ... भुनता है मुर्गा ... नारंगी बोतल में ... देसी ठर्रा ... हड़िया में हड़िया ... झूम झूम नाच ... लाल पाड़ साड़ी ... छापे की साड़ी ... टेरलीन का बुशर्ट ... प्लास्टिक की चट्टी ... सोनमनी सोनमनी ... ओ सोनमनी ... चल मिल के गायें ... गोदना रचायें ... किधर गया घोटुल ... इन्द ... मेला ... ओझा गुनी .. पीसे पत्ते और जड़ी बूटी ... कादो सटे पैर की बिवाई ... फक्क फक्क फतिंगा ... छाती पर चक्कर ... घूमा माथा ... मंदिर पर काहे गाये ... जय माता दी ... छाती फटी ...दुनिया हटी ... सूरज देवता ... ओ देवता ... तू भी गया ... बिसार दिया सब ... बुझ गया ... आखिर ... अंतिम धुँआ

अंत में ... अंत में .. सिर्फ पैर नीचे ... चुरमुर सूखी झरी पत्ती ... सिर्फ सूखी झरी ... सन्नाटे ... दोपहर में ... बंसी की ऊपर नीचे होती लड़ी ... जोहार ... जोहार


Get this widget | Track details | eSnips Social DNA

11 comments:

Anonymous said...

लाल जोहार

कुश said...

ये कोलाज तो बड़ा दिलचस्प है..

पारुल "पुखराज" said...

sadaa saa...adhbhutt..

Anita kumar said...

बड़िया

Udan Tashtari said...

हम्म!! उलट पलट-शब्द ही शब्द-एक मंथन!!!

Manish Kumar said...

बड़ी अच्छी पकड़ है आपकी झारखंडी संस्कृति की !

अनामदास said...

इ त हमरेन कर छोटनागपुर हेके...

Batangad said...

मस्त

Anonymous said...

भई......कम झारखंडी नहीं हैं.......ब््लॉगिंग की दुनिया में....जय येसू...:)
वैसे बस महुअा, करमा अौर सखुअा के फूल रह गये...नहीं पलाश, मांदर अौर भगत का मंतर....रहने दें...चित््र अच््छा है....अब तो जिंदगी ने ये हालत कर दी है कि विश््वास नहीं होता कि यह रंग उसी मिट््टी का है... जिस पर घुटने छिले थे अौर हाथ टूटा था....किसी दिन...शायद किसी दिन...:(

डॉ .अनुराग said...

सचमुच हमेशा की तरह जुदा अंदाज........

अनूप भार्गव said...

विश्वास है कि इन्ही शब्दों को अगर डिब्बे में डाल कर हिलाया जाये और जिस क्रम में आयें उसी में रखा जाये तो इतना मज़ा नहीं आयेगा ।

शब्दों को सलीके से सजाने का भी तरीका होता है । :-)