कैसी खुशबू उड़ती थी जानमारू ! कितनी बार तो झाँक झाँक गये । टोह में । पर कोई सुनगुन न कोई नामोनिशान । बल्कि हर बार खदेड़ दिया गया बाहर बाहर से ही । एक ही बार आना जब बुलायें । यूँ दिक न करो । ठिसुआये मुँह बैरंग वापस । मन ही मन पक्का निश्चय करते कि अब न आयेंगे । पर उड़ती खुशबू खींच लेती और तमाम पक्के कच्चे इरादे छन्न से भाप बन उड़ जाते । जाने सुबह से क्या आयोजन हो रहा था । भूख पेट में सेंध मारती थी गुपचुप । नहाये धोआये पीढ़े पर बैठे थे कब बुलव्वा हो जाने । अम्मा ईया , चाची फुआ यहाँ तक कि दिदिया और बदमाश मनी भी भी कहाँ अंदर गायब थी । मनी तक को बुलाओ तो अभी नहीं बाद में कह फिर अंदर गायब । लाल पीले पाड़ की साड़ियाँ , बड़ी बड़ी लाल लाल बिंदी , छमछम चूड़ी । दिदिया कैसी सुंदर सलोनी लगती है । मनी तक छोटके चाचा के ब्याह में सिलाया हरा लहंगा पहन इठला रही है , बदमाश कहीं की ।
बाहर बरामदे पर बैठे डल्लन के घर की मुर्गियाँ निहारने के आलावा और क्या करें । कारू ही आ जाये तो लट्टू ही खेल लें कुछ देर । आज अम्मा कहाँ मना करेगी । मेरी फुरसत हो तब तो । नीचे का होंठ मान में लटक गया । ये पीला कुर्ता और उजला पजामा अलग जी का जंजाल है । अम्मा ने खास चेताया है , खबरदार जो गंदा किया । बाबूजी बाबा बड़के चाचा सब ऐसे तैयार बैठे हैं जैसे कहीं जाना हो । पर खटारा गाड़ी तो पीछे के शेड में बन्द है , फिर ? ऐसे भी गाड़ी में कुनबा निकले तो कारू और मंगल , हरि और राघव सब मुँह छिपाये खटारा फियेट पर हँसते हैं ऐसा डर हर बार सताता है । बड़ी शरम आती है तब । इससे अच्छा तो रामजीत का रिक्शा है । कैसी फरफर हवा मिलती है । और हैंडल से लगा बड़ा सा आईना जिससे जाने कितनी ललरिया फुदनिया लटकती है , उसमें अपना चेहरा कैसा बुलंद भी तो दिखता है । सारी दुनिया का नज़ारा दिखता है सो अलग । पूछ लें क्या बाबा से , निकलना है क्या, बुला लायें नुक्कड़ से रामजीत को ? पर पहले कुछ खा तो लें । कब बुलायेंगी जाने ये अम्मा भी ।
पीछे के दरवाज़े से अंदर आँगन में घुसते ही दिखती हैं परात में लाल लाल खस्ता कचौरियाँ । एक उँगली धरो तो ऊपर का हिस्सा कुरमुरा के टूट जाये । आलू मटर की रसेदार तरकारी के साथ अभी मिल जाये तो क्या कारू से जीती हुई गोलियाँ ? फुआ की नज़र उस पर पड़ जाती है । उफ्फ अभी फिर निकाल बाहर करेंगी । पर नहीं । अबकी फुआ हँस कर उसे भीतर खींच लेती हैं । एक तरफ आँगन में गोधन की कुटाई हुई है , पूजा का सब सामान अब भी पड़ा है । आ रे .. सुमी और मनी टीका लगा लें , प्रसाद खिला लें । अम्मा हाथ में धरती हैं सिक्का , टीका लगायें तो हाथ पर रख देना बहनों के । दिदिया को दें सो तो ठीक पर मनी को ? कैसे इतरा रही है । बाद में इसी सिक्के से जलायेगी उसे । लड़की होने के कितने फायदे हैं ।
कचौरी का पहला गस्सा दिदिया उसके मुँह में डालती हैं । खा लेगा अपने से ? थाली अपने गोदी में खींचते कहता है , खा लेंगे , तुम सिर्फ बाद में मिठाई खिला देना हाँ । दिदिया उसके बाल बिखेर देती है फिर सटा कर छन भर , हँस कर परे धकेल देती है । माथे पर अक्षत और रोली का टीका चुनचुनाता है सूखकर ।
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
12 comments:
ग्रेट!!
आप सिर्फ़ शब्द चित्र ही नहीं खीचती बल्कि शब्दों का सटीक प्रयोग और वह भी खास माटी से जुड़े शब्दों का प्रयोग करना सिखा देती है!!
बहुधा समझ ही नही पाता कि क्या टिप्पणी करूं, बस आता हूं मोहित हो कर पढ़ता हूं और चला जाता हूं
bahut khuub...ek ek shabd sahi jagah fit hua saa laagey hai.
बहुत ही अचछी कहानी । कितनी सहज प्रवाहित कहीं रुकने का मन नही होता । बधाई इतनी सुंदर कहानी के लिये ।
संजीत जी ने सही कहा... आपके लेखन की खुशबू खींच लाती है ... आनन्द लेते हैं और उसी आनन्द में ही लौट जाते हैं...
अपने ब्लॉग पर कुछ चिट्ठों के लिंक मैंने दे रखे हैं, आपके ब्लॉग का लिंक भी देना चाहता हूं. यदि आपको एतराज नहीं हो तो सहमति प्रदान करें. कहानी अच्छी लगी.
सुंदर...पर लगता है कि आपने अचानक ही रोक लिया इस कथा को...
बीमार को दिक् करने को खस्ता कचौरी और मिठाइयों के जिक्र का पोस्ट लिखा है? दिदिया का उच्चारण जीवन में कितनी दफे किया है?
आह ये भाषा. दिक करना, ठिसुअना .... और भी कई. और ये तथा इस जैसे अन्य expressions : ठिसुआये मुँह बैरंग वापस । मैं जिस दुनिया में रहता हूँ उसमे ये भाषा और ये प्रयोग सुनने को मिले, नामुमकिन है. कमाल है. Do you write ? Or sketch ? Or ... better still - paint ??
चुका दिया उधार। प्रमोदजी का सवाल जबाब का इंतजार कर रहा है।
संजीत , पारुल , मीनाक्षी जी , आशा जी , मनीष .... आप लोगों के स्नेह भरे शब्दों के लिये क्या कहें ? बस बहुत अच्छा लगता है ।
पर्यानाद , नेकी और पूछ पूछ
प्रमोद जी कुम्हड़े का सूप पी पीकर मन अघाया न रहे इसलिये कम से कम आभासी कचौड़ी और मिठाई खायें । और हाँ कभी भी दिदिया किसी को भी नहीं कहा । तो ?
मीत , पेंट करती हूँ but aweful ones :-)
अनूप जी उधार अभी भी बाकी है ।
Aweful ! Or whatever. Let the beholder decide. You, meanwhile keep churning out such beauties ...
Pratyksha
bahut hi sajeev shabdon mein man ko choo lene wale ahsaason se bharpoor yeh kahani bahut achi lagi.
daad ke saath
Devi
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