रात की पाली थी । बारह बजते थे लौटते लौटते । फैक्टरी का साईरन दिन में और रात की पाली खत्म होने समय तक कितनी मर्तबा बज जाता था इसका हिसाब फैक्टरी गेट से कुछ दूरी पर पान दुकान की गुमटी वाले बजरंगी को जबानी याद था । ठीक साईरन बजने के घडी भर पहले पता चल जाता । पाली खत्म होने वाला साईरन अलग और शुरु होने वाला अलग । खत्म होने वाले पर बजरंगी की पान बीडी की बिक्री बढ जाती । रेले का रेला , हुजूम का हुजूम विशाल गेट के मुहाने से अजबजाये बाढ की तरह बह आता । साथ साथ आती पसीने ,थकन और ग्रीज़ की खट्टी बिसाई महक । कुछ भीड छिटक कर गुमटी की तरफ सरक आती । कुछ और आगे की टीन टप्पर की दो बेंच वाली चाय दुकान पर जमक जाती । रात पाली के बाद की रुकी ठहरी भीड बडी छेहर सी होती । बस ऐसे ही लोग जो जाने किस वजह घर की बेचैनी में नहीं होते । बीडी का सुट्टा , मुट्ठी में भरे ,छाती धूँकते खाँसते काँखते रहते । दिन भर की बढी दाढी की छाया चेहरे को फीका मलिन कर देती । घडी भर बेंच पर बचैन सिमटते सिकुडते फिर अलस अँगडाई से देह तोडते , झुके कँधों को खींचतान कर सीधा सिकोडते अपने साईकिलों पर हाथ टिकाये अँधेरी सडक को पल भर तौलते फिर ठंडी हवा मुँह से छोडते साँस भरे दम भर को पैडल मार निकल पडते दस पंद्रह की भीड में । हुहुआती सनसनाती हवा में अँधेरे को चीरते बढ जाते अकेली सडकों पर । भीड छँटती जाती , एक एक करके । सेक्टर के मोड पर मालती लता की झाड अपनी महक छाप छाप छोडती तो लगता कि बस अब आ ही पहुँचे । घर में धीमी रौशनी में एक महफूज़ दुनिया इंतज़ार करती है । खाना और गर्म बिस्तर । बदन अब भी टूटता है । नींद उतरती है आँखों और मुँह के रास्ते , खुली बडी जम्हाई में , आँख के निंदाये कोरों के आँसू में ।
दरवाज़ा खुलने में ज़रा सी देर पर मन लहक जाता है गुस्से से । दिन भर की हाड तोड खटाई और ये औरत पैर चढाये फैल से सोती रहे ? दिनभर की खटती औरत , बच्चों से सर फोडती ,चूल्हे से बदन धिपाती अभी घडी भर को ही तो आँख लगी थी ज़रा सी । आँख मलते धक्क से उठती है , धडफडा कर भागती है दरवाज़ा खोलने । पैर लटपटाते हैं छापे वाली साडी में ,चर्र से किनारी फटती है और दरवाज़े पर ही गाली की एक बौछार होती है सो अलग । पर ये तो रोज़ की कहानी है । खाना परोसती है , पँखा झलती है , नींद से झुकती हिलती है ,कुनमुनाते बच्चे को एक हाथ से थपथपाती है । मर्द अलस पड जाता है मसहरी लगे चारपाई पर । औरत निंदायी निंदायी पानी का ग्लास थामे निढाल आती है बिस्तर पर । रसोई समेटना बाकी है अभी , दही जमाना बाकी है अभी , मुन्नु की आखिरी बोतल बनाना बाकी है अभी । गँधाते फलियों और कपडों के ढेर को सरका कर जगह बनाते औरत सोचती है उसकी रात पाली कब खत्म होगी ।
11 comments:
हैर कोई पनी लड़ाई लड़ने मे लगा हुआ है, वो आदमी हो या औरत , एक द्वंड है जो काम से काम इंसान के जहाँ से कभी ख़तम नही होगा ....
किंतु "रात पाली के बाद" मे एक लेख के तौर पैर कल्पनायों का अदभुत संगम है, शब्द-शब्द मे ज़िंदगी है,एहसास है, आपकी की लेखनी मे कुछ ख़ास है है, अनमोल हैं...
बहुत बढिया लिखा है।बधाई।
सही है, जारी रखें।
बढ़िया।
रात भर काम करने के बाद आदमी लगभग जानवर हो जाता है, मैंने बरसों किया है. लगता है किसी पुरापाषाण काल का प्राणी हो जो अँधेरे खोह में रहता हो, वही जीवन हो जाता है. उसकी राह तकती पत्नी की पीड़ा भी कम नहीं होती, और अगर बच्चा हो तो तीनों की पीड़ा सिम्फ़नी बन जाती है जिसे अच्छा कंडक्ट किया है आपने.
जीवन में ये दिन रात की पाली तो यूँही चलती रहेगी, बस जरूरत है इसे सवारने की।
बहुत बढिया लिखा है आपने।बधाई।
आपको पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है। हर संदर्भ में आपकी भाषा सही करवट ले लेती है।
हर शब्द में आप जान ड़ाल देती हैं।
बेहद सजीव चित्रण लगा ये !
औरतों की दुनिया हम मर्दों ने कितनी मुश्किल कर दी। हर दरवाजे बंद कर दिए और कोई निकल आए तो हमीं कहते हैं देखो पहली महिला जा रही है। प्रत्यक्षा औरत के लिए जीवन ही पाली है। काश मेरी पत्नी की तरह सब इस पाली को बदल पातीं। काम का बराबर बंटवारा कर। जो काम नहीं हुआ उसे वहीं छोड़ देने तक।
लेकिन तब भी कहानी पढ़ कर तो लगा ही कि कहीं देखा है। बल्कि रोज रोज देखा है।
....आँख मलते धक्क से उठती है , धडफडा कर भागती है दरवाज़ा खोलने । पैर लटपटाते हैं छापे वाली साडी में ,चर्र से किनारी फटती है और दरवाज़े पर ही गाली की एक बौछार होती है सो अलग......
.........सही कहा रवीश् जी ने.."औरत के लिए जीवन ही पाली है"...
..जिसे हम हर रोज कही न कही देखते है..
सच को अच्छे शब्द दिये है..सीधे सरल सपाट..दिल मे धंस जाने वाले.
सुंदर चित्रण .....
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