7/05/2007

तब भी मस्त थे और आज ?

हमारे एक रिश्तेदार हैं । पांच साल वाशिंगटन रहकर लौटे । यहाँ आकर जिस चीज़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुये वो बेसमेंट पार्किंग और दूसरा, हल्दीराम में दास्ताने पहने गोलगप्पे सर्व करते वेटर्स । पैकेट में बन्द गोलगप्पे , सफेद कटोरों में इमली पानी और मसाला । सब अलग । चम्म्च से मसाला खुद भरिये , पानी डालिये और गप्प से अंदर । कितना हाईजिनिक , सच । सब कुछ एकदम क्लिनिकल । मज़ाल है कोई कीटाणु आसपास भी फटक सके ।

पर गोलगप्पे जिसे हम बचपन में फुचका या गुपचुप कहते थे , उसे पत्ते के दोनों में पानी गिराते , कम मुँह में और ज़्यादा कपडों पर , आहा , उसका मज़ा ही क्या ? कॉलेज की दीवार के पार गुपचुप वाला ठेला । लडकियों की कतार । दीवार में एक चौखुटा छेद था जिसके पार से एक एक करके , पहले पत्ते का दोना और फिर फुचका पास किया जाता । कैम्पस की सुथरी कफेटेरिया में मक्खियाँ भिनकतीं और इधर भीड का रेला उमडता । ठेलेवाले की पानी से ठुर्रियाई उँगलियों पर मेरे जैसे बिदकने वाले विरले ही थे । क्या स्फूर्ति से शीशे के खुले जार से फुचके निकलते , अंगूठे से एक छेद कुरकुराया जाता ,दूसरा हाथ मसाला भरता , आलू और चना , और फिर एक डुबकी मटकी के अंदर इमली पानी के तालाब में ।

या फिर ट्रेन से राँची जाते वक्त पता नहीं कौन से स्टेशन पर ,(शायद मुरी ?) काले चमकते जामुन पर नमक छिडक कर पत्तों के दोनों में ,टोकरी में करीने से सजाये आदिवासी औरतें । शादी ब्याह पर पंगत में बैठे पत्तल पर फैले चावल के ढेर पर उँगली से ठीक बीचोबीच एक गोल कूँआ बनाना , दाल की बाल्टी ,कलछुल से हिलाते बजाते ,परोसने वाले के पहुँचने के पहले और फिर उस कूँयें में दाल के भरते जाने का बचपने का सुख , खासकर तब जब चावल का किनारा टूट जाता और दाल बह कर पत्तल के बाहर फर्श तक फैल जाता । सब किचाईन हो जाता , डांट पडती सो अलग । पर मज़े का क्या कहना ।

पत्तल की याद खूब ताज़ा है अब भी । याद है पहली बार पत्तल के प्लेट्स देखे थे तब अचरज हुआ था । मुडे हुये किनारों से अब दाल और रसे वाली तरकारी बह जाने का मज़ा छिना , ऐसा तो नहीं लगा । हाँ ये लगा था कि अब ज्यादा सुविधाजनक हुआ पत्तलों पर खाना । अब ऐसे प्लेट्स भी वर्षों से दिखाई नहीं दिये हैं । पेपर प्लेटस , पेपर ग्लास , प्लास्टिक की कटोरियाँ , नैपकिन्स , प्लासटिक के चम्मच और फोर्क्स , टेट्रापैक्स और डिस्पोज़ेबल कंटेनर्स ... ये कहाँ आ गये हम ? चुक्कड और कुल्हड , पत्तल और दोने की सोंधी महक कहाँ है ? लकडी की खपच्ची से दोने की मलाई , रबडी खाने का आहलाद कहाँ है ? चलती ट्रेन में हिलते डुलते कुल्हड से चाय सुडकने की परम तृप्ति किधर है ?और चाय खत्म होने पर कुल्हड को खिडकी की सलाखों के पार बडे कला कौशल से तेज़ भागती पटरी के बीच की गिट्टियों पर छन्न से टूटना देखना , मुँह सटाये लोहे के सलाखों से , आँखें दम भर तिरछी किये । ओह ! भले ही गर्दन टेढी हो जाये ऐसे कवायद से और आँख में कोयले का कोई कण पडे सो अलग ।

और जानते हैं , सबसे बुरा क्या ? अगर कुल्फी खायें तो चुक्कड में मिलेगा । मिट्टी का चुक्कड नहीं भूरे प्लास्टिक का । उफ्फ ! सब फेक है ,फेक । ऐसे ही पता नहीं कितने रास्तों से गुज़र कर हम नैचुरल से फेक के मंजिलों को हँसी खुशी तय कर रहे हैं । दुनिया सचमुच मस्त कलंदर है । तब भी मस्त थे और आज ?

12 comments:

चंद्रभूषण said...

अजी खाने की वह कचरमकूट ही अब कहां है? अघाए मन से पत्तल में खाओ या प्लास्टिक में, क्या फर्क पड़ता है?

अभय तिवारी said...

प्रत्यक्षा जी ऐसी बातें न करिये.. समय के साथ बदलती रहिये.. प्लास्टिक को अपनाईये.. भूल जाईये कुल्हड़ आदि का ज़माना.. नये ज़माने के साथ चलिए.. जवान बनी रहिये..

Kavi Kulwant said...

प्रत्यक्षा जी! आपको पहली बार पढ़ा! अच्छा लगा। यह तो जिंदगी है..करवट लेती रहती है..बहुत सी चीजें बदलती रहती हैं.. लेकिन दुनिया गोल है। घूम फिर कर कई बार वहीं आ जाती है। लालू जी ने तो कुल्हड़ भी दुबारा शुरु करवाए थे। साउथ में चले जाइए अभी भी लोग केले के पत्तों पर ही खाना खाते हैं.. बहुत सी बाते हैं। आपकी तरह तो मै नही लिख सकता.. क्योंकि मै तो कविताएं और गीत लिखता हूँ। कभी समय लगे तो देखकर प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए..
कवि कुलवंत सिंह
http://kavikulwant.blogspot.com

Yunus Khan said...

अभी भी मेरी पत्‍नी इलाहाबाद में जाकर कुल्‍हड़ वाली चाय और कुल्‍हड़ के गुलाब जामुन, लस्‍सी और रबड़ी खोजती है । अभी तक वहां ये सब उपलब्‍ध है । पर भगवान जाने कब तक मिलें । अभय ने सच कहा कुल्‍हड़ भूल जाईये, यही ज़माना है अब ।

Udan Tashtari said...

अभी पिछली भारत यात्रा के दौरान इलाहाबाद और मिर्जापुर में यह सुख प्राप्त करके लौटा हूँ. मुट्ठीगंज में गुपचुप अभी भी पत्तल में ही खिलाता है और फिर सुलाखी के बाजू में कोसे में रबडी--वाह!! मगर शाम को थोड़ी तबियत नासाज सी हो गई थी. तब लगता है थोड़ा कम स्वाद ही सही, यही हल्दी राम का सिस्टम ही ठीक है. शायद झेलन क्षमता में कमीं आ गई है. :)

-अच्छा लगा पुराने दिनों की यादें, खासकर रेलयात्रा के दौरान कुल्हड की आवाज सुनना!! बड़ा जुड़ा हुआ सा अनुभव है.

pawan lalchand said...

madam ji, purana jayka kam to zaroor huva par nirash na hoiye abhi poori tarah se kasla bhi nahi huva hai. bas pahle ki tarah ab iske dhikane kam huye lekin khojne par svad milta hai..

Sagar Chand Nahar said...

मैं अभी पिछले हफ्ते ही राजस्थान में मेरे गाँव से लौटा हूँ, पाँच दिन में कम से कम १४ जगहों पर दावत में जाना पड़ा होगा, परन्तु एक भी जगह बूफे सिस्टम नहीं था, एकदम खालिस और ठेठ देहाती अंदाज में जमीन पर बैठ कर पत्तल में खाना खाया। और बाद में दूसरे लोगों को परोसना (परोसगारी करना) भी पड़ा।
आहा!!क्या आनन्द मिला उसमें , दाल-बाटी, चूरमे और बूंदी के पतले रायते (छाछ जैसे) का स्वाद दोने पत्तल के बिना नहीं आता।
कौन कहता है कि सब कुछ हाईटेक हो गया है गाँवों में जाईये आज भी कुछ नहीं बदला है।
बाकी एक बार मैने भी वह हल्दी राम के तरीके वाली पानी पूड़ी (गोल गप्पे) खाई है पर सचमुच बिल्कुल मजा नहीं आया।

Anonymous said...

abhaytiwaree ne jawan bane rahne kaa order diyaa hai aapko. jab in tippanikartaaon ko maaloom hogaa ki aap to pahle se hi jawan hain to kee karange? fotu se confujan kyon ho raha?

Anonymous said...

बढि़या है। ऐसे ही स्वाद लेती रहिये। पाठकों की दुआओं का असर हो। :)

Anonymous said...

कुल्हड़ मे माटी कि महक है आज भी उस शोंधी खुशबू का कोई मोल नही ,आपकी पोस्ट ने यादों का एक सिलसिला चल निकला जो बचपन से अब तक के किस्सो को तजा किये देता है ..........यकीनन सुन्दर कल्पना,
साढ़े शब्द .........आप साधुवाद कि हक़दार है..................

Divine India said...

लौटो अपने ज्यादे रश्मों के करीब…।
सच कहा…लिखते रहे…

अनूप भार्गव said...

अब हल्दीराम के हाइजनिक Water Balls (हां शायद अब यही कहते हैं उसे) में वो मजा कहाँ जो गली के नुक्कड़ पर ठेले वाले के पसीने से भीगे गोलगप्पों में आता था ।
घेरे में खड़े हो कर अपनी बारी का इन्तज़ार करना, एक मज़ा था ।