skip to main |
skip to sidebar
कान्हा
नीले डंठल पर गुलाबी पँखुडियाँ सूखे पत्तों पर गिरा एक मोर पँख कहीं सुदूर वन में बाँसुरी की मीठी तान कौतुक से कान पाते भयभीत मृगों का जोडा खो जाता है कहीं वन में पद्मासन में मेरा शरीर गूँजता है ब्रह्मनाद से मन के अंतरतम कक्ष में युगल चरण कमलों की छाप द्वार हृदय का खोल एकाकार कर देता मुझे निराकार में
4 comments:
Hi,
U got a good blog....
just check out mine
www.chilled-junction.blogspot.com
वाह क्या फोटो है! काबिले तारीफ है ये पोस्ट पहली बार फोटो लगाई गयी इसलिये और भी काबिले
हो गई। बधाई!
कविता में आपने पराभक्ति से सिद्ध आत्मानुभूति की अवस्था को बहुत ही सौन्दर्यपूर्ण तरीके से दर्शाया है। इस अद्भुत कविता के लिये अनेकानेक धन्यवाद।
आपकी कविता के लिए मैं शायद उपयुक्त पाठक नहीं (सहृदय नहीं हूँ शायद)
आपकी अन्य पंक्तियॉ इससे बेहतर लगी थीं।
Post a Comment