कान्हा
नीले डंठल पर गुलाबी पँखुडियाँ सूखे पत्तों पर गिरा एक मोर पँख कहीं सुदूर वन में बाँसुरी की मीठी तान कौतुक से कान पाते भयभीत मृगों का जोडा खो जाता है कहीं वन में पद्मासन में मेरा शरीर गूँजता है ब्रह्मनाद से मन के अंतरतम कक्ष में युगल चरण कमलों की छाप द्वार हृदय का खोल एकाकार कर देता मुझे निराकार में
Hi,
ReplyDeleteU got a good blog....
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वाह क्या फोटो है! काबिले तारीफ है ये पोस्ट पहली बार फोटो लगाई गयी इसलिये और भी काबिले
ReplyDeleteहो गई। बधाई!
कविता में आपने पराभक्ति से सिद्ध आत्मानुभूति की अवस्था को बहुत ही सौन्दर्यपूर्ण तरीके से दर्शाया है। इस अद्भुत कविता के लिये अनेकानेक धन्यवाद।
ReplyDeleteआपकी कविता के लिए मैं शायद उपयुक्त पाठक नहीं (सहृदय नहीं हूँ शायद)
ReplyDeleteआपकी अन्य पंक्तियॉ इससे बेहतर लगी थीं।