12/21/2005

कान्हा


नीले डंठल पर
गुलाबी पँखुडियाँ
सूखे पत्तों पर
गिरा एक मोर पँख
कहीं सुदूर वन में
बाँसुरी की मीठी तान

कौतुक से कान पाते
भयभीत मृगों का जोडा
खो जाता है कहीं वन में

पद्मासन में मेरा शरीर
गूँजता है ब्रह्मनाद से
मन के अंतरतम कक्ष में
युगल चरण कमलों की छाप
द्वार हृदय का खोल
एकाकार कर देता मुझे
निराकार में

4 comments:

  1. Hi,
    U got a good blog....
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  2. वाह क्या फोटो है! काबिले तारीफ है ये पोस्ट पहली बार फोटो लगाई गयी इसलिये और भी काबिले
    हो गई। बधाई!

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  3. कविता में आपने पराभक्ति से सिद्ध आत्‍मानुभूति की अवस्‍था को बहुत ही सौन्‍दर्यपूर्ण तरीके से दर्शाया है। इस अद्भुत कविता के लिये अनेकानेक धन्‍यवाद।

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  4. आपकी कविता के लिए मैं शायद उपयुक्‍त पाठक नहीं (सहृदय नहीं हूँ शायद)
    आपकी अन्‍य पंक्‍ति‍यॉ इससे बेहतर लगी थीं।

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