12/16/2005

ऐसा क्यों है ?

Akshargram Anugunj


ऐसा क्यों है
कि कहने में
और करने में
खाई सा फासला हो
आदर्शवाद जपें
मुँह से
पर जब वक्त आये
तो बैसाखी थाम लें
मजबूरी की
जरूरत का
और उसके बावजूद
बुलंदी भर लें
आवाज़ में
और कहें
आदर्शवाद गलत
थोथे मूल्यों की
ज़रूरत नहीं

लपेट लें साफा
सिरों पर
सजा लें मौर
पगडी पर
और कर दें
ऐलान
आज का मूल्य
बदल गया
हम हैं नये युग के
नये अवतार
जहाँ आदर्शवाद
कोरी भावुकता है
जहाँ सफलता
सुकून है
जहाँ अंत जरूरी है
प्रयोजन नहीं

ऐसे कुकुरमुत्ते भीड
बेतरह उग आये हैं
चारों ओर
तो फिर ऐसा क्यों है
कि आज भी
किसी गाँधी के नाम पर
उमड जाते हैं आँसू
गर्व के
किसी मार्टिन लूथर के सपने
आज भी देते हैं आकाश
उडने को

फिर क्या जरूरी है
इस भीड का हिस्सा
हम भी बनें
क्या ये प्रश्न कभी भी
पूछा है आपने
खुद से ?



और अंत में एक हाइकू

आदर्शवाद
बिछाया सिरहाने
सुकून नींद

3 comments:

eSwami said...

यह कविता प्रश्न के प्रत्युत्तर में प्रश्न करती है साथ ही आपके दृष्टीकोण से परिचित भी करवाती है. आप इसके साथ लेख भी लिखते तो मजा दुगुना हो जाता.चलिए अगली बार सही!

अनूप शुक्ल said...

बहुत बढ़िया कविता लिखी। अब यह पहली अनुगूंज हो गई जिसमें दो प्रविष्टियां कविता में हैं। बधाई।

अनूप भार्गव said...

बहुत सशक्त कविता है , तुम्हारी और कविताओं से हट कर । बधाई ...
यहां भी देखें ..
http://anoopbhargava.blogspot.com/2005/12/blog-post.html

अनूप