किसी दिन
अभी सोचते किसी दिन
अभी सोचते किसी दिन
आयेगा कभी ?
जब सूरज लाल होगा
और आत्मा दीप्त
जब नदी बहेगी
शरीर होगा मीठा तरल
शब्द संगीत होगा
धूप होगी
रात भी
तीन तरह के रंग होंगे
किसी के चेहरे पर आयेगा
बेतरह प्यार
उसके जाने बिना
जानना होगा
कि अब भी
खिलता है एहसास
जबकि लगता था
इतनी हिंसा
इतनी बेईंसाफी
इतना घाव
इतने दंश
सोख कर
भूल जाती आत्मा
ओह ज़रूर भूल जाती होगी
आत्मा अपनी आत्मा
कहते हैं हाथी
स्मृति की छाप
ढोते हैं पीढ़ियों तक
और कबूतर उड़ते हैं
हज़ारों मील
चीटिंयाँ अपना बिल
सफेद बगुले अपने आसमान
कोई कछुआ तालाब
मैं बचपन की काटी पीटी किताब
माँ कहती हैं ऐसे शब्द
जिन्हें भूल गई थी मैं
जैसे भूल गई थी धूप में बैठकर
मूँगफली नहीं चिनिया बदाम खाना
जैसे भूल गई थी रिबन
और टॉर्टाय्ज़ शेल वाले चश्मे
जैसे ये भी कि पहली दफा कब सुना था
पंडित भीमसेन जोशी को
"कंचन सिंहासन"
और अब खोजने पर भी नहीं मिलता यू ट्यूब पर
जैसे लम्बे बाल कैसे बहन ने हँसते काट डाले थे
जान गई थी मेरे कहे बिना कि
मुझसे ऐसे झमेले सधते नहीं
जैसे जानती थी ये भी बिना
मेरे कहे कि चूड़ियाँ अच्छी लगती थीं
और पढ़ सकती थी रात भर
मैं किताब जाड़े के दिनों में
रज़ाई के भीतर टॉर्च जलाये
और रह सकती थी भूखी , पूरे दिन
माँ से नाराज़ होने पर
लड़ सकती थी किसी के लिये भी
महीनों साल दिन
कि गुस्सा सुलगता था मेरे भीतर आग
अब कहती है बहन , तुम्हें पहचानना मुश्किल
जब कहती हूँ मैं , मेरे भीतर सुकून
जब कहती हूँ मैं , शब्द मेरे भीतर जलते भाप के कुंड
जब कहती हूँ रिश्तेदारों के धोखे अब दिखते नहीं
जब कहती हूँ कोई पंछी चक्कर काटता उठता है
लगातार भीतर
जब पूरी नहीं होती कविता और
अधूरी छूटी रहती कहानी
लावारिस पड़ा रहता घर
और छूटते बिसूरते बच्चे होते
खुद में मगन
पढ़ा जाता प्रेम
और पकाई जाती नफरत
सीखा जाता अर्शिया से बँगाली कशीदाकारी
की महीन हर्फें
और हुआ जाता खुश
तुम्हारी हँसी के गुनगुने घूँट में
और समझाया जाता दोस्तों को
एक बार फिर
मोहब्बत में पड़ने को
और बोला जाता ज़ोर से
ऐसे शब्द जो होंठों और जीभ पर
छोड़ते भाप
गर्म गुलाब जामुन
तहज़ीबदार , तमीज़दार
हँसा जाता ठठाकर बेशउर
फिर रोकी जाती हँसी
कि बुरा ना माने कोई
कि मेरी खुशी दूसरों के
तकलीफ का सबब न बने
कि
किसी दिन
होगा सब
जैसे
होना
लिखा है
किसी दिन
किसी एक दिन
जैसे पृथ्वी
जैसे पक्षी
जैसे देव
और दानव
अच्छा और बुरा
जैसे प्राणी सिमटा
एक बिंदु
मृत्यु
फिर जीवन
और इसके बीच का
मोहक लम्बा अंतराल
(नंद कात्याल की पेंटिंग )
15 comments:
इस कहे में बहुत स्वाद है..
इतनी हिंसा इतनी बेईंसाफी इतना घाव इतने दंश सोख कर भूल जाती ...
आत्मा होती तो कैसे भूलती ..
चिनिया बादाम सालों बाद इस शब्द को पढना अच्छा लगा ...मूंगफली में वो स्वाद कहाँ :)
क्या खूब लिखा है!!!
बधाई...
यह प्रतीक्षा सब समेटे है।
मधुर भावों का सहज प्रवाह.
जैसे चित्र खींच देता है कोई
आँख के कैनवास पर
उतर जाते हैं सफ़ेद बगूले
एक आसमान
...... कितना विस्तार है ; सुन्दर ! बेहद खूबसूरत ! प्रत्यक्षा..
fantabulous!
.कोई दिन....जिंदगानी ओर है....
love the way you write......
सबके पास होता है एक दिन......
बहुत सुन्दर लिखा है आपने..
.आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी आज के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
आज (28/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
कहते हैं हाथी
स्मृति की छाप
ढोते हैं पीढ़ियों तक
और कबूतर उड़ते हैं
हज़ारों मील
चीटिंयाँ अपना बिल
सफेद बगुले अपने आसमान
कोई कछुआ तालाब
मैं बचपन की काटी पीटी किताब|
बहुत ही भाव प्रवाह लिए पंक्तियाँ |
बहुत दिनों बाद कुछ पढ़कर, बहुत अच्छा लगा |
bahut sunder
sara kuch kah diya aapne to
...
aapko pad kar bahut achchha lagta hai....anchhui baatein aap sarlta se kah jati hai jo dil ko chhu jati hai..
i am in love with ur words !
bahut sunder likhi hain.
आज में बीते हुए कल को देखने की कोशिश साहसिक है |कभी कुंठा नहीं होती उधर देख कर ?या फिर भूत को भी दायरों में बाँट रखा है ?जो भी हो ,अच्छी कविता
अच्छी लगी
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