बहुत पुरानी स्मृतियों में , मेरी नहीं , माँ की स्मृति में , जो जाने कितनी बार दोहराई गई हैं , बरसाती दोपहरों में और कुहासे घिरी ठंडी रातों में , चाय की प्यालियों की भाप के बीच और खाने के बाद सौंफ की खुशबूदार जुगालियों के गिर्द , सोचते और फिर याद करते , अटकते उस बीते समय को पकड़ते , कोशिश करते ... और बिच्छू अब भी मिट्टी की दीवार पर रेंगता है , उसकी छाया दसगुनी बढ़ती है , उसका डंक दीवार पर पसरता है
तो , वो समय ऐसा था ,
इसी तरह उनकी कहानी शुरु होती थी ..
तुम्हारे पिता तब किसी देहात में नियुक्त थे । उन्हें एक नियुक्ति वहाँ बितानी थी और दोस्तों ने हमें आगाह किया था कि छोटे बच्चों के साथ वहाँ कितना कठिन समय हमारा बीतने वाला था जहाँ बिजली नहीं थी और अस्पताल नहीं था । एक डॉक्टर तो थे और उनका एक कम्पाउंडर , छोटा सा दुबला सा आदमी जिसकी आँखें मचकती थीं और एक मलयाली नर्स जिसके तेल भीगे कड़े घुँघराले बाल थे । एक तीन कमरे का झँखाड़ उजाड़ सरकारी डिस्पेंसरी था जहाँ कोई दवा का स्टॉक नहीं होता सिवाय कॉटन के बड़े रोल्स के ।
माँ फिर टैंजेंट चली जातीं , कहीं और
मैं उन्हें वापस लाने की कोशिश करती , हाँ हाँ ,लेकिन उन बिच्छुओं का क्या ? ओह ! वो ? पर वो तो हर तरफ थे , जूते में , रज़ाई के भीतर , कमीज़ की तह में , पतलून के पैर में , और एक बार तो उस पजामे में भी जो मैंने तुम्हारे पिता को पहनने को दिया था
और फिर ?
फिर क्या ? वो भाग्यशाली रहे , बिच्छू बस फिसल कर नीचे ज़मीन पर गिरा , उलट गया फिर कुछ पल उलटा तड़फड़ाया , सीधा हुआ और तेज़ी से अँधेरे में बिला गया । बेचारा , शायद तुम्हारे पिता से भी ज़्यादा सहमा डरा हुआ होगा .. माँ एक लम्बी गहरी साँस लेती हैं । दीवार पर परछाईं गहराती है फिर ज़रा काँपती है ।
वहाँ बिजली नहीं थी । हर कमरे के लिये एक लालटेन और तुम्हारे पिता के काम करने के लिये एक पेट्रोमैक्स ।
मुझे एक फोटो की याद है जिसमें पिता अपने काम के बीच ऊपर देख रहे हैं , उनके चश्मे का काला फ्रेम उन्हें बहुत गंभीर दर्शा रहा है एक किस्म की संजीदा खूबसूरती के साथ । उनकी भौंहे प्रश्न में उठी हैं और एक पुराना पेट्रोमैक्स बगल की मेज़ पर रखा है ।
शायद ये वही पेट्रोमैक्स था या उस जैसा कोई और ।
मैं तस्वीर हाथ में रखती हूँ , सहेजती हूँ । अब कोई नहीं है ... न माँ , न पिता । मेरे ऊपर छत नहीं है । आसमान खुला है और हर समय बारिश होती है ।
हड़बड़ी में जीना मुझसे कितनी गलतियाँ करा गया .....
9 comments:
मैं तस्वीर हाथ में रखती हूँ , सहेजती हूँ । अब कोई नहीं है ... न माँ , न पिता । मेरे ऊपर छत नहीं है । आसमान खुला है और हर समय बारिश होती है ।
अरे!! कितना संजीदा कर दिया आपने....कितनी गहरी बात...
aacha liktin hain aap
हड़बड़ी जो होती, तो इतना भी याद कैसे रह पाता?
अंतिम पंक्तियाँ दिल में एक हलचल पैदा कर देती हैं....जो बता जाती हैं एक मन की बात ...लगता है जैसे यहीं कहीं वह मन कुछ सोचता सा बैठा है ....
nostalgia से बात शुरु हो कर self analysis कि सीडी चडते हुए apologetic tone / self pity तक पहुच गयी....यदी इस्के भी आगे कुछ लिखा जाता तो i guess वो step dipresson होती...शायद...!?.
P.S.
हड़बड़ी में भी वो तो याद ही रहता है जो हममे गहरे समाया हो...
फिर भी हड़बड़ी जिंदगी का हिस्सा है ....अनिवार्य शर्त सा .....
आखरी पंक्तियाँ डंक मारती हैं बीच्छु की तरह....
हड़बड़ी में जीयो और लिखो हम फुर्सत में पढ़ते रहेंगे...
हड़बड़ी भी कभी कभी अच्छी होती है, जैसे प्यार मे हड़बड़ी, ख्यालो मे हड़बड़ी..
beautiful...कहानी का शीर्षक पेट्रोमेक्स भी हो सकता था..
"वहाँ बिजली नहीं थी । हर कमरे के लिये एक लालटेन और तुम्हारे पिता के काम करने के लिये एक पेट्रोमैक्स ।
मुझे एक फोटो की याद है जिसमें पिता अपने काम के बीच ऊपर देख रहे हैं , उनके चश्मे का काला फ्रेम उन्हें बहुत गंभीर दर्शा रहा है एक किस्म की संजीदा खूबसूरती के साथ । उनकी भौंहे प्रश्न में उठी हैं और एक पुराना पेट्रोमैक्स बगल की मेज़ पर रखा है ।
शायद ये वही पेट्रोमैक्स था या उस जैसा कोई और ।"
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