रात के सपने में दिखा था और ठीक ठीक दिखने के पहले गायब भी हो गया था । सुबह , फिर सारे दिन एक बेबस बेचैनी में छटपटाते मन के पीछे पार्श्व संगीत सा बजता रहा था । पतझड़ के उदास दिन थे । पीले झरे पत्ते की खड़खड़ाहट में सारंगी पर कोई एक महीन रुलाई बजाता था । और मेरे शरीर के अंदर जो एक और काया थी , वो लगातार उस धुन पर बल खाती पछाड़ती थी । जैसे लहरों के ऊपर फेन की महीन परत ।
फिर उस दिन काम के हज़ार झँझटों के बीच किसी ने एक वाक्य कहा था .. जंगल में इतना अँधेरा था , सिर्फ जुगनू रास्ता दिखाते थे ... मैं चौंक कर मुड़ी थी । किसने कहा था ये ? लेकिन आसपास नेसकफे कॉफी के भूरे कप में झागदार कॉफी के घूँट भरते सब झुके थे बड़ी मेज़ पर ..कागज़ , डॉक्यूमेंटस , फोल्डर्स , फाईल्स , मोटे स्पाईरल बाईंड किये हुये । सब कागज़ों की ऑथेंटिसिटी की पुष्टि में जुटे लगातार बहस कर रहे थे । एक आवाज़ बार बार किसी रीफ्रेन की तरह हर बहस पर विराम लगाती ..लेकिन हम कोई विजिलेंस वाली अजेंसी नहीं और सब अचकचाकर राहत में कुर्सी पर पीठ टिकाकर मुस्कुराते और कॉफी का एक और घूँट भरते । जैसे हमारे किये की एक वाजिब सीमा तय कर दी गई और इसके आगे जाने की जद्दोज़हद से हमने अपने आप को मुक्त किया ।
तो , ऐसी बहसों के बीच किसने जुगनू से रास्ते का आभास दिला दिया ? मैं शायद बहक रही हूँ ..इसलिये कि इन दो दुनिया के बीच कोई सम्पर्क सूत्र बाहरी तौर पर नहीं है । लेकिन भीतरी तौर पर कोई ऐसा हिस्सा है जो एक दूसरे की भीतर पैठता है ..कुछ कुछ वेंस डायाग्राम जैसा । रात में सपने में जैसे मुझे मेरे ही घर में एक ऐसे कमरे के होने की खबर मिलती है जिसका अतापता मुझे अबतक न था । एक लम्बोतरा साफ रौशनी भरा कमरा । सपने में इस चीज़ को मैं जितनी आसानी से स्वीकार कर रही थी उतना ही चकित भी हो रही थी कि गज़ब ..इतनी जगह और मुझे पता तक नहीं था , कैसे और स्पेस के लिये मैं लगातार चख चख करती थी ..अब देखो ..इतनी जगह , इतनी रौशनी भरी । बस इसके दरवाज़े को पहचान कर रखनी होगी ताकि दिन में जागे हुये में फिर से खोज पाऊँ । कमरे की चीज़ों को लगातार प्यार से छूते कैसे बच्चे सी कौतुक से खुश होती घूम रही थी फिर भी सब याद रखूँ की एक छोटी सी घँटी भी बज रही थी , जैसे घूमते हुये भी हर वक्त एक चौकन्नेपन से मैं कोई तीसरी आँख दरवाज़े पर रखे हुये थी ।
दिन में जागे हुये मैं गैलरी के दीवार पर हथेली फेरते चलती हूँ , यहीं तो था वो दरवाज़ा फिर दुखी देखती हूँ कि मेरे इस घर में तो कोई गैलरी तक नहीं । मुझे तंग संकरी जगहों से सख्त नफरत है । मेरे घर में कोई गैलरी नहीं । मुझे बहुत सारी रौशनी चाहिये.. हमेशा । लेकिन अँधेरा छोटी छोटी पोटलियों में साथ चलता है और बिना किसी पूर्वानुमान के जाने कब किस पल . किस होने से ट्रिगर होकर पूरी की पूरी पोटली किसी नौगज़ी साड़ी की तरह फट से खुल कर फैलती भी जाती है ।
इस लगातार के जंगली बनैले खेल से , दिन और रात की आँखमिचौनी से , दुनियावी माया और वास्तविकता से परे कोई तीसरा संसार भी है ? मैं जब सपना देखती हूँ तब जागी नहीं होती । जब जागी होती हूँ तब सपने का कमरा बिला जाता है । जब कहती हूँ इस मुद्दे पर मैं ये , ये और ये सोचती हूँ तब सामने खड़ा दूसरा टेढ़ी नज़रों से टोकता है , लेकिन तुम ये सोचती हो , गलत सोचती हो क्योंकि मैं वो सोचता हूँ , सही सोचता हूँ । हमेशा हम आमने सामने ही होते हैं , साथ साथ नहीं । फिर इस आमने सामने के साथ .. साथ साथ होने वाली दुनिया कौन इज़ाद करेगा ? कब मैं जागे होने पर ही मन मर्जी उस सपने वाले कमरे में भी जा सकूँगी । जंगल का रास्ता जुगनू ही दिखायेंगे शायद । हँसती हुई फूलमनी के ठुड्डी पर के तीन गुदने कहते हैं , रात में कभी कभी दिन भी होता है साईत !
(पॉल गोगां की लैंड स्केप विद पीकॉक्स )
17 comments:
habdon aur bhav ka bahut hi sundar sangam,bahut sundar
बहुत सुंदर लिखती हैं आप प्रत्यक्षा। आपका लिखा पढ़ रही हूँ, आज कोई ४ साल तो हो ही गये, आपके लिखने में आये लगातार बदलाव और निखार को भी देखती पढ़ती आई हूँ। आप से सीखा भी है बहुत...
--मानोशी
आपने शब्दों से जो चित्रकारी की है, उसे समझने के लिए पारखी निगाहें चाहिए, ऐसी निगाहें जो सपनों के साथ जीती हो, सपने के सच हो जाने का सपना देखती हो, और तभी आपके सवाल का भी जवाब मिल पाएगा-
कब मैं जागे होने पर ही मन मर्जी उस सपने वाले कमरे में भी जा सकूँगी।
बहुत सुंदर शब्द चित्र।
यह क्या है भाई?
.....
ऐसा उम्दा गद्य!
बहुत खूब.
सचमुच!!!!
आपकी लेखनी लाजवाब है...
इससे ज्यादा नही कह सकता...
shabdon ka ek aisa badal racha hai aapne ki padhte samay lagta hai jaise fenil badalon par hi chal rahe hon....
bahut sundar.
अर्ध-नियंत्रित स्वप्न का यह रहस्यमय संसार - कमाल है!
बहुत सुंदर! हम सभी के पास वो कमरा है जो सिर्फ़ सपने में दिखाई देता है आपने कितनी खूबसूरती से मन को वह कमरा ढूंढने और छूने के लिए विचलित कर दिया है!
मेरे एक मित्र पूछते हैं कि क्या अंधेरे कमरे में खूब तेज़ बल्ब का उजाला सारी अंधेरी जगह को खा जाता है..? अगर हाँ, तो उतना ही तेज़ एक और बल्ब जला देने पर उजाला क्या खाता है?
ऐसे ही गहरे सवाल आप ने भी गढ़े हैं..बड़ी सुगढता से..
तस्वीर भी सुन्दर है!
पेंटिंग .नेस्काफे ....ओर प्रत्यक्षा को पढ़ना ...थोडी थोडी सर्द सुबह में ..ओर क्या चाहिये .?.
युँ तो पेंटींग समझ ने नही आती मगर यह पेंटीग कुछ समझ मे आयी और अच्छी भी लगी !
जिनसे लडो उनसे भी प्यार हो जाता है क्योकि प्रेम भी नैसर्गीक ही है इसलिये आमने-सामने दिखने वाले किसी तल पर साथ-साथ ही होते है !शायद आपए उसी चमकिले कमरे के किसी कोने मे ...
अंदर-बाहर को हौले-हौले मथकर किसी मर्म को बाहर निकालने की यह एक मारू अदा है। यह आपके लेखन में झलकती रहती है। कभी रूमानीपन के बादलों में, कभी यथार्थ की पथरीली जमीन पर। कभी किसी मिथक, प्रतीक को छूती हुई, कभी अपनी आत्मा पर लगी खरोंच की जलन को सहलाती हुई...
आपके लेखन की इन अदाअों में नजाकत भी है और नफासत भी।
bahut sunder likha apne
painting bahut sunder he
regards
kabhi humri post pr aayen
बेहद उम्दा लेखन..
नौगज़ी साड़ी... :)
hi pratyksha,
I liked ur blog and writing as well.
Dear I need ur concern that May I
use some of ur writing in our
news daily inext. U and
ur blog will get full credit.
pls reply Asap
nice
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