कुछ उमगता है
फिर बैठता है मन के तल पर,
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर ,
उसके नाम अपनी नमी ,
उसके नाम अपनी फसल और उसके नाम
अपनी ज़मीन ।
...................................................
किसी रात उन सीढियों पर
पाँव रखकर
उतर जाती हूँ
जंगल में
पेट में
खिल जाती है बीचोबीच
कोई मणि
.............................................................
बारिश का पानी
पेड़ की शाख पर छोड़ता है , क्या ?
जाने क्या क्या
उँगली से पसार दिया था क्यों
तुमने सिंदूर को ,
धो दिया न अपने आँसू ,
.....................................
छाती के तल पर पैठती है मछली ,
खोलती है अपनी मछली आँख
बिंध जाती है फिर
हर बार हर बार
टपकता है पानी
आँख से , मन से
कितना सारा
देखते नहीं ? कितना तो हरा है
भरा है
काई में फिर खिलता है
साफ पानी का एक अंजुर
मछली की आँख फिर
आहत क्यों ? देखती मेरी तरफ
...................................
(ऊपर के शब्द मेरे हैं , रविन्द्र व्यास की पेंटिंग है । )
रविन्द्र
(हरा कोना ) कहते हैं.... (चित्र और शब्द के संयोजन के विषय में)
....हां, शब्द चित्र अपने में आजाद हैं, उनके साथ लगा चित्र अपने में आजाद होता है। दोनों की सत्ता अलग अलग है। वे भले ही एक साथ लगने पर दोनों के पूरक लगें, लेकिन दोनों अपने अपने माध्यमों में एकदम अलग। हम शायद उन्हें न दिखने वाले लेकिन महसूस होने वाले महीन धागे से जोड़ते भर हैं।
9 comments:
कुछ उमगता है
फिर बैठता है मन के तल पर,
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर ,
उसके नाम अपनी नमी ,
उसके नाम अपनी फसल और उसके नाम
अपनी ज़मीन ।
बेहद खूब.......आपको पढता हूँ तो लगता है वाकई शब्दों की एक सत्ता होती है.......
काई में फिर खिलता है
साफ पानी का एक अंजुर
मछली की आँख फिर
आहत क्यों ? देखती मेरी तरफ
इसे पढ़कर यही लगता है ना !
कुछ उमगता है
फिर बैठता है मन के तल पर,
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर ,
उसके नाम अपनी नमी ,
उसके नाम अपनी फसल और उसके नाम
अपनी ज़मीन ।
अच्छी रचना है...
saara kuch bahut acchha /do teen duffa padhaa.ravindra ji ke chitr ne aur bhi rang jodey!!!
कुछ उमगता है
फिर बैठता है मन के तल पर,
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर ,
उसके नाम अपनी नमी ,
उसके नाम अपनी फसल और उसके नाम
अपनी ज़मीन ।
Maulik soch ke sath sarthak abhivyakti.
Bahut khub.
nice post.
carry on..
sundar panktiyan...
is line mein
उस हरियाली को जो फैलता है अंदर
kya
उस हरियाली को जो फैलती है अंदर
nahin hoga?
जो कहने में अक्षम उस को शब्द दिये हैण व=भावों वाले
उमगे आकर बिछे हुए इक अण्धियारे में नये उजाले
यों तो हर इक चित्र बोलता मौन स्वरों में एक कहानी
दिये आपने शब्द हुआ हर चित्र आतुरा खुद को गा ले
सुन्दर भावों से भरी हुई सुखद रचना। बधाई।
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