9/04/2008

इस दुनिया में कुछ भी वर्जित नहीं


मैं नींद में अचकचाकर बुदबुदाती हूँ कुछ अस्फुट शब्द जो चेतन नहीं हैं , उन अचेतन शब्दों की धरती इन्हीं
जागे सोये दुनिया के बीच की कोई खोयी दुनिया है , दो साँस के बीच का समतल पठार जहाँ पलती है इच्छायें
वो जो कही नहीं जाती , जनमती हैं उसी पल और फिर लटकी रहती हैं हवा में
उलटे

चाँदनी रात में दो लोग देखते हैं आसमान , हाथ साथ बढ़ाकर लोकते हैं इच्छायें , अंदर फिर खिलता नहीं क्यों कोई फूल
होते हैं हैरान , कहते हैं , अब हम बच्चे तो नहीं कि फर्क न कर पायें मिलने और चाहने के बीच

बैलून ग्लास में पीते हैं फेनी समझ कर कोई महंगी शराब उसी अदा से जैसे देखी थी कभी
किसी पुरानी अंग्रेज़ी फिल्म में , पीते हुये मद्धिम संगीत के साथ कुछ घूँट , बेहद मादक
जीते हैं किसी बिलकुल गैरज़रूरी इच्छा को ऐसे और ऐसे
और
रख देते हैं ताक पर लपेट कर लाल गठरी में महफूज़
उन खतरनाक इच्छाओं को जो लटकी हैं उलटी उस दुनिया में , जिनका अस्तित्व नहीं है इस दुनिया में
पर जिसकी गँध तिरती है यहाँ यहाँ और यहाँ

तुम हँसकर बढ़ाते हो ग्लास और कहते हो .... अब , इस दुनिया में कुछ भी वर्जित नहीं


(शगाल की पेंटिंग़ amoureux de vence)

7 comments:

नीरज गोस्वामी said...

रख देते हैं ताक पर लपेट कर लाल गठरी में महफूज़
विलक्षण रचना है ये आप की...शब्द और शैली बहुत सुंदर लगी...
नीरज

डॉ .अनुराग said...

बहुत कुछ अब भी वर्जित है.....ढेरो इच्छाये जो अब भी आसमान के किसी कोने में पड़ी है....कभी कभी सर उठाती है झाँक कर नीचे देखती है पर अब उन्हें छूना चाहकर भी कोई छूना नही चाहता .......अब वे वर्जित है ना ....

Udan Tashtari said...

सुन्दर!!!!!!!!!

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

जब हाथ में गिलास हो तो कुछ भी वर्जित न होने का एहसास... और जब साथ में डॉक्टर (अनुराग) हो तो बहुत कुछ वर्जित... यही होता है- देश, काल और वातावरण।

Arun Aditya said...

दो साँस के बीच का समतल पठार जहाँ पलती है इच्छायें। अच्छा बिम्ब है।

ravindra vyas said...

कई बार मुझे लगता है, भाषा नैट है। इसे फेंकने-फैलाने का मजा है। कभी हवा, कभी जमीन, कभी आसमान में। हर बार कुछ न कुछ हाथ आता है। न आए, तब भी फेंकने का मजा तो है ही। आपकी भाषा की बनावट-बुनावट ध्यान खींचती है। मेरी हमेशा इसमें दिलचस्पी रही है कि कैसे कहा जा रहा है, क्या कहा जा रहा है में कम।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

प्रत्यक्षा कितना सुँदर लिखती हो !
कला और कलाकार
२ अलग होकर भी एक हैँ !
स्नेह,
- लावण्या