7/05/2008

मन अटकेगा जायेगा कहाँ ?

मन है क्या ? पिंजरे में बन्द मैना , हर पल फुर्र , कभी दाना कभी चोगा , कभी हरियाली विस्तार , कभी सरपट भागा बेलगाम घोड़ा कभी अलस्त पलस्त भरा पेट अजगर , कभी कानी आँख से तकता भालू , कभी गुपचुप गुपचुप गप्पी गोली ।

पर इतना ही होता मन ? कुकुरमुत्ता होता मन ? बारिश में हरियाला तोता होता मन , अगरबत्ती का धूँआ होता मन , उलझे बाल और सुलझे मन वाली भोली लड़की के मुँह में घुलता अनारदाना होता मन ? कोई चीन की दीवार क्यों नहीं होता मन , जिसपर चलते जायें चलते चले जायें , वो तिब्बाती लामा लेह की सड़कों पर , वो खोजी दस्ता अमेज़न की जंगल में , वो नागा साधू ब्रह्मापुत्र के तट पर , श्मशान घाट का तांत्रिक कापालिक ..ओम फट स्वाहा स्वाहा .. चलें जाय , चले जाय जहाँ अंत न हो , बस ओर छोर विस्तार हो , भूली हुई सड़क हो , बाँस का झुरमुट हो , दबोचा हुआ सीने से लगाया हुआ प्यार हो |

कहाँ है मन और कहाँ है दीवार , चीन की ? कहीं की जिससके बराबर बराबर चलते हुये पहुँचा जायेगा , इस समय से उस समय में , इस दीवार से उस दीवार में , नापेंगे हम अपने चील डैनों से उसकी लम्बाई , तौलेंगे समय को हर पँख की झटकार से , छाती के कोटर में बिठायेंगे ? आसमान तब नीला कहाँ होगा ? होगा हरा , होगा भरा । और धरती फिर धरती नहीं गोल तश्तरी उलटी सी और पानी ? पानी बहेगा नीचे से ऊपर और हम सुनेंगे मन से , देखेंगे मन से , महसूसेंगे मन से , आलाप के आ पर और सरगम के सा पर लचक जायेगा बदमाश। हँसी फूटेगी , फूटेगी , तिब्बती लामा हँसेगा अपनी नासमझ या सब समझ हँसी । और चीन की दीवार टूटेगी ईंट ईंट , गर्द उठेगा , गूबार थमेगा । मन किसी चौकन्ने पंछी सा तिर जायेगा ऊपर ऊपर , चक्रवात के सिरे पर , फुनगी पर , नोक पर , साँस पर , कोर पर ..अखिर मन ही तो है । कमरे के उखड़ते पलस्तर पर आँख गड़ाये , नींद भर आये तो टेढ़ी मेढ़ी रेखा की धूपछाँह कारीगरी पर मन अटकेगा न , जायेगा कहाँ ? वहाँ जहाँ सब है , सब और जहाँ कुछ भी नहीं ।

इसे सुनिये यहाँ और अज़दकी ग्रामोफोन का मज़ा लीजिये...

7 comments:

Anonymous said...

man ki seema kaha hai nahi pata,magar lekh bahut achha laga

Ghost Buster said...

मन की उड़ान को किसने साधा है? किस दीवार ने रोका है? बहने ही दीजिये.

हम तो आनंद ले रहे हैं इस जुगलबंदी का. पढ़ा भी और सुना भी. शानदार.

डा. अमर कुमार said...

सही तो है, जायेगा कहाँ ?

मीनाक्षी said...

धीरे धीरे हम आपके लिखे को अपने मन मुताबिक समझने लगे हैं....यह लेख भी मन भाया.... हमारा मन चिराग ए ज़िन्न है... जब जी चाहा बेलगाम घोड़ा बना लिया और जब जी चाहा गुपचुप गप्पी गोली बना लिया... :)

Anonymous said...

bhut sundar lekh. jari rhe.

अनूप शुक्ल said...

इत्ते सारे मन्! गोपियां बेकार् बहाना बनातीं रहीं होंगी- ऊधौ मन् न् भये दस् बीस

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

मन की उडान बहुत सुन्दर है। पर कितना भी उडले, आना तो उसे वापस अपने दरबे में ही है।