6/21/2008

तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन

मेरे हाथ की लकीरों से भाप निकलती थी । मैंने रात का अँधेरा अपनी आँखों में सजाया और सूरज माथे पर खुद ब खुद सज गया । बारिश ने मेरी त्वचा में एक गीली महक भर दी और शरीर से फसल उगने लगी । उसकी गमक ऐसी बेसुध गमक थी कि जिसके पँखों पर चलकर वो मेरे पास आया । हमने हाथ बढ़ाये और समय को पकड़ लिया । उसने मेरे पैर के नीचे अपनी हथेली रखी और मैं आसमान में उड़ चली । धुँध में छिपे झील के नीले हरे पानी में कोई नाव बेआवाज़ चली जाती थी । चप्पुओं की आवाज़ किनारे झुक आये हरियाले घास को छूकर फिर सतह पर लौटती । उसी दिन तय हुआ था कि दो लोगों के बीच न रात होगा न दिन , न स्पर्श होगा न साँस की छुअन ,न देह की तपन ।

धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...

उस दिन जंगल में घूमते समूह ने देखा आसमान में दो सफेद पँखों वाले परिन्दे उड़ते हैं । उन्होंने घुटनों के बल झुककर उनका अभिवादन किया । बुज़ुर्ग ने कहा इस रुत में हमारे शरीर भरे पूरे रहेंगे । सोंधा अन्न और मीठा पानी मिलेगा ।
उस समय में भाले और तीर लिये कबीले घूमते थे । खच्चरों पर असबाब बाँधे , पीठ पर बच्चों को थामे औरतें और बिन बच्चों वाली औरतें सर बोझा लिये चलती जातीं चलती जातीं । कहीं बहती नदी के किनारे तम्बू गड़ता । अलाव जलता । कुछ दिन को थिर जीवन स्थिर जीवन । चाँद बढ़ता घट जाता । रात चाँदनी होती फिर अमावस । आदमी औरत ऊपर आसमान देखते और गोल चाँद को काले आसमान में जड़ा देख घुटनों के बल बालू पर सर नवाये गिर पड़ते , हे देवता कृपा करो ! देवता की कृपा से शिकार होता , अन्न उगता , मीठा पानी मिलता । मोटे गदबद शिशु मिट्टी में खेलते , लड़कियाँ औरतों की नकल में मोती की माला पिरोतीं , सजतीं , पानी में छाया देखतीं । बच्चे बड़े होते , उनके होठों पर देवता लकीरें खींचते , उनकी छाती को बलिष्ठ बनाते , उनके बाल किसी सिंह के आयाल जैसे उनके कँधों तक झूलते । सजीले जवान लड़के शिकार को जाते , ऊपर आसमान को देख जीवन देखते । जन्म मृत्यु का रास रचता । कभी देवता हारी बीमारी भेजते । झुंड के झुंड साफ हो जाते । एक दो तीन से फिर कबीला बनता बढ़ता । ऐसी कितनी जद्दोज़हद के बीच कोई पुरुष किसी स्त्री को अपना आसमान अपनी धरती दाँव धरता । स्त्री उसका दिया फूल अपने कमर में खोंस लेती । दोनों नदी पार कर लेते । फूल वहीं किसी मछली के पेट से किसी सीप का मोती बन जाता । पुरुष अपने हाथों से माला गूँथता और स्त्री उसे अपने हाथों से गले में पहनती । और कबीले के लोग देखते आसमानी सफेद परिन्दे फिर से सूरज की रौशनी में नीले आसमान में एक चमकीली रेखा बनाते विलीन हो जाते । उस रुत फिर खूब अन्न उगता , पानी मीठा होता , शिकार इफरात होता ।

फिर एकदिन बिजली कड़कती , नदी उफनती , कोई बाघ चौकन्ना चमकीली आँखों से बस्ती के पिछवाड़े दबे पाँव गुज़र जाता । बुझे आलाव के राख के पास हड्डियाँ दिखती अगली सुबह । अगली सुबह बस्ती उखड़ जाती , कबीला घुमंतू हो जाता । रास्ते में , नदी नाले चट्टान पत्थर सुनते नये शिशु का रुदन , सुनते नये जीवन का उत्सव , सुनते मौत का क्रन्दन । किसी बुज़ुर्गवार को किसी अजानी जगह जहाँ कोई कभी वापस नहीं आयेगा , वहाँ किसी पेड़ की छाया में तने से बिठाकर बढ़ जाते आगे । ये समय लौट कर आने का समय नहीं था । लौटकर आने का समय आयेगा कभी भविष्य में , पर अभी वो समय नहीं था । समय था आगे और आगे जाने का ..सिर्फ धरती पर नहीं , सिर्फ दूरी में नहीं , सिर्फ समय से नहीं , सिर्फ रात तारों को देखते दिशा तय करने का नहीं , सिर्फ समन्दर के किनारे किनारे आगे बढ़ते रहने का नहीं बल्कि जीवन का , उत्थान का , सभ्यता का । ऐसे समय में निर्ममता समय की देन थी । झुर्रीदार चेहरे की अथक पीड़ा और अथक थकान में अकेले छोड़ जाने की , नये जीवन को पोसने की , आगे शक्ति और ताकत की , जवानी की जोश की । ये मानव थे , ये इतिहास था , ये सीखना था । उस सीख को आत्मसात करना था । गेहूँ से रोटी और माँस में नमक की खोज थी , चमकते चकमक पत्थर का आग था , बुनकारी थी , खेती की आजमाईश थी और इन सब के बीच , जीवन मरण के बीच जो अंतराल था , उसका महा उत्सव था ।

तो ऐसे लौटेंगे हम एक दिन ..फिर एक दिन ..

9 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अनगिनती चित्र खीँचे हैँ शब्दोँ की तूलिका से,
जो मन मेँ समाकर,
एक बृहद मानवता का चित्र बना गये -
कितना सुँदर लिखती हो प्रत्यक्षा ..वाह !
स्नेह
-लावण्या

शायदा said...

बहुत बढि़या।

पारुल "पुखराज" said...

bahut achhey

Ashok Pande said...

सुन्दर गद्य. एक आदिम सी महक से भरा हुआ.

इसे पढ़ने के बाद मुझे बिली जोएल का "वी आर टू थाउज़ैंड ईयर्स" सुनना ही पड़ा. आपने मजबूर कर दिया था.

बहुत शानदार. लिखती रहें इसी तरह.

Anonymous said...

aap likhati hai to aacha lagata hai. likhati rhe.

गौरव सोलंकी said...

us hum se kahiye ki laut aaye...aage bhi dekha jayega.. :)

डॉ .अनुराग said...

मैंने रात का अँधेरा अपनी आँखों में सजाया और सूरज माथे पर खुद ब खुद सज गया ।

क्या कहे ?

उसने मेरे पैर के नीचे अपनी हथेली रखी और मैं आसमान में उड़ चली
उफ़ ये खयालो की उड़ान .....


बात बहुत सीधी सादी थी आपने फ़साना बना दिया .....कभी लिखा था .आपकी बात पढ़कर उसे दुहरा रहा हूँ....

कितनी हसीन बुनावट थी
इन्सान ने उधेड़ दी दुनिया....

रजनी भार्गव said...

प्रत्यक्षा जीवन और मरण के बीच का ये महाऊत्सव कितना सरल और सुन्दर है, बहुत अच्छा लिखा है।

Arun Aditya said...

धरती पर तब नदी आयी पानी आया , जंगल आये पेड़ आया , पहाड़ आये चट्टान आया , स्त्री और पुरुष आये लोग आये ....हाथी , बाघ , भेड़ फतिंगा ...और न जाने क्या क्या । फिर एक दिन ...

और उस एक दिन की कथा, व्यथा को आपने शब्दों से साकार कर दिया है। अनूठे ललित लेखन के लिए बधाई।