उसके मेरे बीच प्यार शब्द कभी आया ही नहीं
हम शिकारियों के चौकन्ने पन से
पैंतरे बाँधते
कुशल फेंसर्स जैसे
चेहरे को ढके तलवार भाँजते
शब्दों को काटते
कभी गलती से भी
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते
हमने आपस के नये शब्द इजाद किये
सब ऐसे जो प्यार से कोसो दूर थे
जब हमारी उँगलियाँ तरसतीं
प्यार को
हमारा मन सुराखों के पार के आसमान को
ललक कर देखता
और उँगलियाँ शाँत हो जातीं
लेकिन इन सब के बीच
हमारी हज़ारों किस्से कहानियों के बीच
हम कई बार
बेवजह ठिठक जाते
जैसे कोई भूला शब्द
ज़ुबान पर आते आते फिसल जाता
हम बहुधा चौंक कर देखते एक पल को
एक दूसरे को
गो कि हमने कितने दिन साथ गुज़ारे
कितनी रात बतकहियाँ की
कितनी बारिश साथ भीगे
कितने मौसमों को एक खिड़की से
बदलते देखा
फिर भी हमने
ताउम्र कोशिश की
कि प्यार जैसा
कोई शब्द हमारे बीच
बिलकुल न आये
और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये
और जब हमारे बच्चे
हमारे पास आये
पूछा
तुम्हारे पास
हमारे लिये क्या है
हमने तब कहना चाहा
प्यार
हमारी जीभ इस शब्द के पहले अक्षर पर ही
लटपटाने लगी
हमारा दम फूलने लगा
गले की नसें भूली हुई कोशिश में टूटने लगीं
और हमारे सामने हमारे बच्चे हवा में धूँये की तरह
विलीन होने लगे
हम उजबकों की तरह उनको देखते रहे
देखते रहे क्योंकि हमारे बीच प्यार शब्द
कभी आया ही नहीं
उसने तब कहा
दोबारा शुरुआत करो
और हमने खुद को उस बगीचे में पाया
जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था
( स्केच मूल मिशेल मार्शंड पर कॉपी यहाँ मेरे द्वारा )
19 comments:
प्रत्यक्षा, शायद इससे ज़्यादा खू़बसूरती से ये बात कभी कही नहीं जा सकती। बहुत-बहुत पसंद आया आपका अंदाज।
और हम इतने प्राण पण से जुटे थे
प्यार को भुला देने में
उसे बेवजह साबित कर देने में
कि मौसम कब खिड़की से बाहर गया
हम जान ही नहीं पाये ....
ऐसा बहुत सारे लोग करते हैं बिना इस बात का अंदाजा लगाए कि आखि़र में जवाब क्या होगा उनके पास। शायद हम सभी अपने खि़लाफ़ ऐसी साजि़शें रचते रहते हैं कभी न कभी। खै़र बधाई आपको, इतनी अच्छी और सच्ची बात लिखने के लिए।
बहुत ही सुंदर. बार बार पढ़ा, हर बार पहले से ज्यादा आनंद आया.
जीभ पर अगर
फिसल आता
कोई प्यार जैसा
या उसका पर्यायवाची शब्द
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते
क्या इसे ऎसे कहा जा सकता है -
जीभ पर अगर
फिसल भी आता
कोई पर्यायवाची
हम शर्मिन्दगी से
चेहरा छुपा लेते.
अच्छी कविता है. पढवाने के लिये आभार.
kitno ka to sach hai ye..sketch bahut acchha hai aapkaa-
Beautiful sketch & even more beautiful verse Pratyaksha -
You say it with such bold & stark strokes.
Simply adore it -
rgds,
L
बहुत सुंदर वाकई लगता है कुछ रिश्ते खोल के रख दिए आपने.. बहुत बढ़िया
स्केच खूबसूरत है। बहुत अच्छा साध रही हैं आप पेंसिल को।
कविता पर कुछ कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। प्रशंसा भी प्रेम की तरह का शब्द ही है तो कविता व पाठ के बीच आकर विचलन पैदा करता है अक्सर।
क्या यह सबकी साझी सच्चाई नहीं है? इससे ज़्यादा बेहतर शब्द इस बात को कहने के लिये हो ही नहीं सकते।
शुभम।
प्रत्यक्षा जी, मैनें आपके ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग में जोड़ा है। यदि आपको आपत्ति हो तो क्रपया मुझे सूचित कर दें।
मैं निशब्द हूँ....कई बार पढ़ चुका हूँ.....एक दो बार फ़िर पढने आयूँगा.....
अच्छा लगा पढ़ कर...
"जहाँ मैं थी
वो था
सेब था
और साँप था"
....................सिर्फ भाषा ही नहीं सारगर्भित प्रतीकों से भी कितना गहरा रिश्ता है आपका वो उपरोक्त पंक्तियां बता देती हैं।...जब कुछ नहीं था तो उसे बताने के लिए आपने शब्दों की पूरी थाती उड़ेल दी....पर जब सब कुछ मिल गया तो उसे जताने के लिए आपने सांप और सेब का सहारा लिया।
वैसे तो इतनी संभावना छिपाये है ये कविता कि हर पाठक जाती अनुभूतियों के सहारे जाने क्या-क्या व्याख्या करे पर आपके लिए बस इतना ही कि...सचमुच यही अंत होना था इस खूबसूरत कविता का।
संदीप
अद््भुत...दिव््य...मेरे साथ आजकल कुछ कुछ बिल््कुल ऐसा ही हो रहा है..बधाई स््वीकार करें..।
सुन्दर, बहुत सुन्दर ....
स्केच और लिखाई में जितना भी रस मिला आप सबों को ..और उसको मेरे साथ फिर बाँटने का ..आभार !
इतनी खूबसूरत कविता मन पर क्यों न असर करेगी? बहुत खूब प्रत्यक्षा जी ! अपनी भाषा, बिम्ब और प्रतीक में भी बहुत सुन्दर कविता है यह्। बधाई !
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