पिछले दो दिन खूब भागदौड़ के रहे । परसों पूरे दिन दफ्तर के बाद कम्पनी के नवरत्न बनने के उपलक्ष्य में सांस्कृतिक संध्या । श्रेया घोषाल और बॉम्बे वाईकिंग्स के नीरज श्रीधर । दोनों अच्छा गाते हैं पर मेरी रुचि के नहीं । फिर कल किसी मित्र ने आईपीएल के पासेस पकडा दिये ... फिरोज़शाह कोटला में मुम्बई इंडियंस वर्सेस डेल्ही डेयरडेविल्स । क्रिकेट एक वक्त जुनून जगाता था अब नहीं । पर दोनों दिन बच्चों के मज़े का ख्याल करके आधी रात का रतजगा किया । इन्हीं अगड़म बगड़म ठेल ठाल के बीच दोबारा पेंसिल पकड़ा । एक स्केच पैड कुछ महीने पहले खरीदा था ..हैंडमेड स्केच पैड 100 % ऐसिड फ्री और खोज निकाल कर स्टेडलर मार्स लुमोग्राफ टू बी , सिक्स बी , ई ई पेंसिल्स ।
खुले पन्ने पर पेंसिल पकड़ते भी घबड़ाहट हो रही थी तो आसान तरीका सोचा ..स्टेफनी रियु का एक स्केच देखकर बनाया । सौ में शायद दस नम्बर भी नहीं मिलेंगे पर इतने सालों के बाद सीधी आड़ी लाईनें खींचने का मज़ा खूब सुख दे गया । उस हेज़ी स्मज्ड आकृति का पन्ने पर थोड़ा थोड़ा उभरना । उसके बाद हाथ साफ किया मिशेल मार्शंड की तेज़ तीखी बोल्ड लाईंस का .. वहाँ सफलता ज़्यादा मिली , पर अब जब हाथ एक कर्व्ड लाईन खींच पा रहे हैं तो असल मज़ा कुछ खास अपना बनाने में आयेगा । फिलहाल पहला प्रयास यहाँ है . बाकी फिर जैसे हाथ साफ होगा स्केच पैड भरेगा ।
कल पता नहीं
सनथ की बैटिंग देखते
क्यों साल्वादोर डाली की मूँछें
याद आईं
कुछ उसी तरह
जैसे बचपन में हिसाब की कॉपी के मार्जिन
पर औरतों के चेहरे
या फिर मलाई कोफ्ता पकाते
कढ़ाई से झाँक जाते
हेमिंगवे
शायद कोई कनेक्शन होगा
उसी मूवेबल फीस्ट से
जोकि पढ़ा गया बाद में कभी
किसी रद्दी के दुकान से
अचक्के नज़र पड़ने पर
पाँच रुपये में खरीदा गया
जिसके पहले पन्ने पर
किसी अनजान रमेश गुप्ता
की हरी स्याही में दर्ज़
दिन नाम तारीख
कुछ कुछ वैसा ही नहीं ?
जैसे अखबार के पन्ने पर
मेमोरियम पढ़ते
अटक जाती है आँख
किसी सिल्वेरियस डुंगडुंग पर ?
लेकिन आते हैं फिर डाली पर
क्योंकि उसके बाद देखा नहीं गया
एक भी बॉल
क्योंकि देखती रही
मैं पूरे फील्ड में
डाली की ऊपर उठी हुई
ऐंठी मूँछें
उसकी चमकती जुनूनी आँखें
अब आप ये मत पूछियेगा
कल मैच किसने जीता ?
किसी भी रेगुलर सीन में फिट होना
उतना ही आसान है
जितना डाली की मूँछों को याद रखना
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
9 comments:
वाह...कुछ ख़ास ही अंदाज़ है आपका! स्केच भी खूब है...
वाह...कुछ ख़ास ही अंदाज़ है आपका! स्केच भी खूब है...
मूवेबल फीस्ट और सिल्वेरियस डुंगडुंग समझ नहीं आया। :(
सही है। वैसे अगड़म-बगड़म शब्द के लिये आलोक पुराणिक और ठेलठाल के लिये ज्ञानदत्त जी कापीराइट का दावा ठोकने के लिये विचार कर रहे हैं। स्केच हमें करना आता नहीं लिहाजा कह रहे हैं अच्छा है। उसी तर्ज पर कविता के लिये बहुत अच्छा। इस पोस्ट के लिये क्या लिखें? शानदार! ?
शानदार जी
हाँ जी हाँ
बहुत शानदार.
कविता और स्केच दोनों.
हाँ जी हाँ
बहुत शानदार.
कविता और स्केच दोनों.
बहुत खूब !!!
साल्वाडोर डाली क्रिकेट खेलता था या नहीं कौन जाने । मगर ये कुछ कम नहीं।
स्केच अच्छा है.....कविता अपनी समझ नही आयी......
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