(मर्सी किलिंग , यूथनेसिया .. इन सब चीज़ों के बारे में खूब पढ़ा है लेकिन कभी साफ साफ सोच नहीं पाई मेरा स्टैंड इन मुद्दों पर क्या है ? कभी एकदम सही लगता है , कभी इतने नैतिक , सामाजिक परत दिखाई देते हैं , कभी ऐसी चीज़ों के दुरुपयोग की आशंका दूसरे पक्ष की ओर ले जाती है । कितने कम्पैशन की ज़रूरत कब किसको पड़ती है , कैसी परिस्थिति है ... आज फिर सोच रही हूँ .. इसलिये भी कि पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ जिससे सोच उस दिशा की भी तरफ गई )
परसों का वाक्या अजीब दुखी करने वाला था । सुबह की भागदौड़ ,ठंड और कुहासे सा माहौल, तेज़ हवा । बेटे की तबियत कुछ गड़बड़ थी । सर्दी खाँसी । पर चूँकि बचपन में ब्रॉंकाईटिस से खूब परेशान हुआ करता था तो अब भी मैं ज़रा आशंकित हो जाती हूँ । तो सुबह सुबह डिस्पेंसरी का चक्कर भी था । गनीमत ये कि बत्रा की डिस्पेंसरी हमारे सोसायटी कैम्पस में है इसलिये कहीं बाहर जाना नहीं था । पर जिन डॉक्टर से दिखाना था और जो अमूमन नौ से होती हैं ,मर्फी नियम का पालन करते हुये उस दिन नहीं थीं । कॉल किया गया । आईं । देखा बच्चे को । फिर दवाई लेने केमिस्ट शॉप , कैम्पस में ही । इन सहूलियतों के बावज़ूद दस से ज़्यादा हुये । हमारे ऑफिस में पँचकार्ड एंट्री है । मतलब बेसमेंट पार्किंग का बूम गेट पँच कार्ड दिखाने से ही खुलता है । अटेंडेंस के नियम सख्त हैं । समय ऑनलाईन अटेंडेंस पर दर्ज होता है । तो देर से पहुँचे फिर टाईम मेक अप करना पड़ता है प्रेज़ेंट दिखने के लिये । ये सारी कहानियाँ इसलिये कि दस से ज़्यादा हुये मतलब देर तक बैठना पड़ेगा समय पूरा करने के लिये ।
देर हो रही थी इसलिये बेटे को घर छोड़ने के बाद जितने स्पीड से गाड़ी चलाती हूँ उससे कुछ ज़्यादा स्पीड पर थी । घर से ऑफिस का पूरा रास्ता मेट्रो की वजह से संकरा और ट्रैफिक जैम वाला हुआ चला है आजकल । दिमाग ऑफिस के फाईल्स पर अब था । सामने रोड पर तेज़ हवा में कोई चीज़ फड़फड़ा रही थी , कोई भूरा पॉलिथीन शायद । एकदम वहाँ पहुँचने पर दिखा कि पॉलीथीन नहीं बल्कि भूरी मटमैली घायल तड़्फड़ाती हुई , पूरी लम्बी लेटी बिल्ली थी । अस्सी नब्बे की स्पीड थी । मेट्रो के काम को पार्टीशन करता हुआ टीन के चदरे की कतार से मेरी गाड़ी लगभग सटी हुई थी । ठीक बगल में दूसरी कार । इंस्टिंकटिव रियेक्शन में स्टियरिंग स्वर्व किया , ब्रेक लगाने का न समय था न स्कोप ..कतार से भागती गाड़ियाँ बिलकुल नेक टू नेक । लेकिन लगा जैसे पहिये के नीचे कुछ दबा । एक अजीब लहर उबकाई की उठी । हे भगवान आज मेरे हाथों ये बिल्ली गई । हाथ जैसे सुन्न और मन एकदम सनाके में । ऑफिस पहुँच कर चक्के को देखने की हिम्मत नहीं पड़ी । ऊपर आकर वाशरूम में देर तक ठंडे पानी से चेहरा धोती रही । अपने मन को समझाती रही कि बिल्ली जिस तरह से तड़फड़ा रही थी .. उसका बचना मुश्किल था । मुझसे बच भी जाती तो पीछे आती कतार से बेतहाशा भागती गाड़ियों का शिकार बनना निश्चित था । अगर बच भी जाती तो आवारा बिल्ली तकलीफ से घिसट घिसट कर दम तोड़ती । कुछ मर्सी किलिंग जैसी चीज़ हो गई । पर कितने भी तरीके से अपने को समझा रही थी ,मन शाँत नहीं हो रहा था । उस एक क्षण जब मुझे महसूस हुआ उसका शरीर पहिये के नीचे .. जैसे पहिया नहीं मेरा ही पैर हो । जैसे मैंने अपने पैरों से उसे क्रश कर दिया हो । उसकी तकलीफ का सोच सोच कर मन अशाँत बेचैन होता रहा । पढ़ा था ,रेस के घोड़े जब घायल हो जाते हैं दौड़ते हुये या कूद लगाते हुये , ऐसे घोड़ों को मार दिया जाता है । उनकी तकलीफ खत्म कर दी जाती है । मर्सी किलिंग ।
अगले दिन सफाई वाले से पूछा ,
“पहिया साफ था ? “
“हाँ मेमसाब “। उसने ज़रा हैरानी से पूछा , “क्यों ? “
“कोई बिल्ली शायद दब गई थी । “
“नहीं तो , पहिया बिलकुल साफ था ।“ चाभी थमाते वो निकल गया ।
क्या था फिर ? अ क्लीन डेथ ? या मेरे हाथों बच गई ? औरों के हाथ भी बच गई ? फिर घायल ? मन खराब खराब होता रहा । आवारा सड़कों के जानवर .. कुत्ते बिल्लियाँ .. क्या जीवन ? फिर ये भी ख्याल आया .. जब आदमी ही आदमी को मार देता है .. क्या लगता है किसी की जान ले लेना .. अपनी ले लेना .. कुछ खत्म कर देना । तीन दिन बीत गये हैं । वो बिल्ली अब भी मुझे हौंट कर रही है ।
( मर्सी किलिंग , यूथनेसिया के बारे में आपके क्या विचार हैं ? )
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
9 comments:
कितनी भी मर्सी से की गई हो किलिंग का अर्थ नहीं बदलता....फिर आज का दर्द कल नहीं मिट सकता ऐसा कुछ निश्चित करने का कोई फूलप्रूफ तरीका भी नहीं है।
बहरहाल....बिल्ली की बात का इससे कोई नाता नहीं है...नियति और संजोग...थोड़ी सी मर्सी खुद पर कर लीजिये।
शायद वो बच गयी हो लेकिन आप का मन आपको कचोटता रहेगा लेकिन फ़िर भी ये कहूँगा कि अपने मन को स्वच्छ करके आगे बढें, जिन्दगी में ऐसी कितनी ही मौतें हम देखते हैं जिनसे हमारा आत्मीय रिश्ता जुड़ा हुआ होता है.
मेरी माँ भी अभाव और मेरी साधनहीनता और संपन्नहीनता के कारण मेरे ही घर में प्यास से तड़प-तड़प कर मर गयी इस बात का आजतक मुझे अफ़सोस है और ये मेरा सबसे बड़ा पाप भी क्योंकि जिसने मुझे लाड़ प्यार से पाला उसी की मौत ब्रेन हैम्रेज और लाइलाज शुगर ने ले ली.
अब सोचता हूँ कि मौत कितनी बड़ी सच्चाई है जिसके लिये हम जिन्दगी भर खुद को झूठी तसल्ली देते रहते हैं.
करीब ढाई माह पूर्व कुछ ऐसा ही अनुभव मैने भी किया था, उसकी तफसील यहां लिखी
http://paryanaad.blogspot.com/2007/11/blog-post_30.html
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद आपने अपनी टिप्पणी में सवाल किया था कि मर्सी किलिंग के बारे में क्या ख्याल है, तब मैंने यह लिखा था (जानता नहीं आपने पढ़ा या नहीं)..
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पर्यानाद ने कहा…
प्रत्यक्षा, मैं व्यक्तिगत रूप से यूथनेशिया को सही मानता हूं. ऑटोथनेशिया या सेल्फ किलिंग के बारे में मेरा एक बहुत पुराना लेख कभी विवाद का विषय बना था. लेकिन ऐसे मूक और निरीह प्राणियों को दया मृत्यु का विचार ना जाने क्यों अब बेहद क्रूर लगने लगा है. तथापि यदि किसी दिन मैं स्वयं ऐसी स्थिति में गया तो मेरा विकल्प यही होगा, पर जानवरों को.... पता नहीं. अपने दो पालतू कुत्तों को इसी तरह मारने का बोझ सीने पर लिए हूं. पीयू (मेरा पहला कुत्ता) की इंजेक्शन लगने के बाद अंतिम क्षणों में मेरी ओर देखती आंखें कभी भूल नहीं पाउंगा. उनमें कृतज्ञता थी या सवाल आज तक नहीं समझ पाया.
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आज फिर आपने यही सवाल उठाया है और मेरा जवाब लगभग वही है जो तब दिया था. हालांकि अब इस बारे में कुछ और भी कहना चाहूंगा. पहले मैं सोचता था कि जीव हत्या का अपराध किसी भी परिस्थिति में नहीं किया जाना चाहिए लेकिन धीरे-धीरे जान पा रहा हूं कि कुछ हालात होते हैं जब जीवन से अच्छी मौत ही होती है. यह एक क्रूर विचार हो सकता है और सापेक्ष है. मेरे लिए सही किसी और के लिए गलत. तथापि मेरा अब यह दृढ़ विचार है कि मर्सी किलिंग को वैध कर दिया जाना सही होगा. और ऐसा करने वाले हम पहले लोग नहीं होंगे. तमाम विवादों के बावजूद दर्जनों देश पहले से इसके पक्षधर हैं. हॉलैंड..
यह एक ऐसा विषय है जिस पर दोनों पक्षों के पास अपने अपने मजबूत तर्क हैं लेकिन आप किसी न किसी विकल्प को तो चुनते ही हैं, और जब अंतिम विकल्प चुनने का प्रश्न हो मैं मर्सी किलिंग के पक्ष में हूं.
वह विषधर जिसे मैने सड़क से उठाया, जीवित बच गया था. लेकिन उन छह दिनों में मैंने जो कुछ अनुभव किया उसे याद कर समझ सकता हूं कि आपके मन में क्या चल रहा है.. यही कह सकता हूं कि जीवन में अनेक अप्रिय सच्चाइयों का सामना करना ही पड़ता है.
मैं यह सोच कर खुद को दिलासा देता रहा था कि वह बच गया होगा... बाद में पुष्िट भी हो गई .... आपकी कार का पहिया तो साफ है ना.. बस..
मेरे से दो घर के फ़ासले ्पर एक 9 साल का बच्चा अपनी दादी व बाबा के साथ रहता है,हाथ पैरो से लाचार,दिमाग काम नही करता,जैसे लिटा दो घटों उसी करवट पड़ा रहता है,भूख प्यास समझ नहीं आती,चेहरे से मक्खियाँ भी नही हटा सकता,भविष्य मे ठीक होनें की आशा भी नहीं… उसे देखकर इतनी बेबेसी लगती है। काश कि……"मर्सी किलिंग"
दरअसल जो चीज आपको हॉन्ट कर रही है वह बिल्ली नहीं आपकी संवेदनशीलता है। अच्छा है कि यह बची हुई है। इस दुर्लभ चीज को बचाए रखिये।
vivaran padh kar rongate khde ho gae...!
"मर्सी किलिंग" सुनने और बोलने में आसान है । हकीकत में उतना ही दूभर अपने पालतु कुत्ते को डाक्टर की राय पर अमल करने के लिये लेकर गयी पर उसकी आंखों के भाव से आहत वापिस लौट आयी। दिल-दिमाग पूरे दिन आपस में सवाल-जवाब करते रहे और मैं असमंजस में । अन्त में शायद अभी इसकी जिन्दगी बाकि है कह कर सन्तोष कर लिया और पूरे यत्न से सेवा करी।
बड़ा पेचीदा सवाल पूछा है आपने। दिमाग तो सीधा कहेगा कि होनी चाहिए पर ये दिल इसमें तो आशा की किरण जलती ही रहेगी कि शायद वो प्यारा स्वस्थ हो जाए। और ये शायद तब तक रहेगा जब तक चमत्कार का शब्द हमारे शब्दकोश में विद्यमान है।
प्रत्यक्षाजी, आपके ब्लॉग पर एकाध बार आ चुकी हूँ ,और बार बार आना चाहूँगी । फिलहाल इतना ही कि मैं मनीष जी के विचारों से सहमत हूँ..
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