(आज मैं हुई चिराग का जिन्न , ऐसा उसने कहा । क्या दे दूँ कहाँ दे दूँ । ऐसा कि दिग दिगंत लोक पाताल सब भर जाये । अंदर समुद्र हरहराता था । पेड़ पौधे नदी नाले , चर अचर ,जल थल । सब तरफ धूँआ ही धूँआ । और बीच में घूमता था गोल गोल चिराग भी जिन्न भी और वह भी जिसे दिया जाना था पर जो ले नहीं सकता था । ले लेना आसान नहीं होता ये वो जानता । इसलिये कि लेते ही देने का खेल शुरु होता है और उसके पास न चिराग , न जिन्न न मन । ये भी जानती थी जो देना चाहती थी । उसे पता था जिस पल सब थिर होगा उसका देना भी रुक जायेगा । तब चिराग धूँये सा काफूर हो जायेगा । वक्त निकल रहा था गला भर रहा था । खाली तलहथी पर कोई फूल नहीं था , धूँआ भी नहीं था , कुछ नहीं था । जिन्न का जादू तो नहीं ही था ।)
बदन की कोशिकायें पीले पत्तों सी झर रही थीं । चाय की केतली में पत्तियाँ जैसे तल पर नाचती फिर थमती हैं । किसी जीनोम के डीएनए में छुपा गुप्त आज्ञात कोड अपना काम बेआवाज़ एफ्फीशियेंसी से कर रहा था । हज़ारों लाखों साल से रिबन में पंच हो रहा था हर एक क्षण के घटित होने का हिसाब । कैसे लम्बे इक्वेशंस , महीन फॉर्मुलाज़ , कोई अलोगरिदम ... पाईथॉगरस या यूक्लिड ,जाने क्या क्या सिम्बल्स । किसी उज़बक पागल साईंटिस्ट का सोचा हुआ कोई अजूबा प्रोसेज़ जहाँ आधा किसी पीले कम्प्यूटर शीट के हरे प्रिंट में धड़क रहा था और बाकी किसी वेरियबल स्मृति पर द्वार ठकठकाते अपने आगमन का ऐलान करता होता । बीकर में उबलता फफकता बैंगनी धूँआ ,पिपेट की एक फूँकी बून्द पर ..... जैसे एक फूँक पर चू पड़ी ज़िन्दगी । हर घटना के पीछे करोड़ों करोड़ों छोटे कीड़े कुलबुलातें हो , किस लार्वा से कैसा प्यूपा ? फिर कैसी तितली ? रानी मधुमक्खी बैठी है अपने छत्ते के बीच में । काम चल रहा है अनवरत चलती चीटियाँ । प्रोग्राम्ड फॉर इटरनिटी ।
कितनी अंगड़ाई ले कर पीठ ठोकते हैं । ये किया वो किया , जाने क्या क्या किया । हमने किया , हमने कहा । ओह , आह । किया किया । गर्द गुबार पर आँख मींचा । नहर खोदे , बाँध बाँधा , अपना मन साधा । ओह जीवन जीया ..हमने हमने । इतना पढ़े इतना भूले । साईबेरियायी क्रेन और अपलूज़ा घोड़े , बेलूगा कवियार और टॉर्टिल्ला फ्लैट ,कम सेप्टेम्बर। ज्ञान बाँटा आज्ञान बाँटा । मन ही मन उत्फुल्ल रहे गुलफुल रहे । नहीं बाँटा तो सिर्फ एक चीज़ , पकड़ के रखा , छाती से संजो के रखा । हाँ जी ले के जायेंगे अपने साथ । वही अपनी खाली हथेली का सच । सच !
डीएनए में छुपा कोड हँसा , गुपचुप हँसा । हर हँसी पर पंच किया हुआ कोड लहराया । ब्रेल के डॉट्स और डैशेज़ । किस अशरीरी उँगलियों ने पोर फिराया । एक डॉट और एक डैश और बदल गया । हाँ जी पूरा जीवन बदल गया । मुन्ना तू तो ऐसा न था । बेवकूफ बुचिया बबली बॉबी कैसे बनी । मैंने दिया दिया बेहिचक दिया । न कोई जिन्न न चिराग फिर भी दिया । उसने नहीं लिया , हिज़ लॉस व्हाट द हेल ? मेरा कोडबुक फॉल्टी ? ओह ब्लेम इट ऑन द डीएनए बडी !
12 comments:
उड़ी बाबा! ये ब्लेम शुरू हो गया। अब जीनोम से कम जटिल नहीं है यह पोस्ट। समझ में आ भी रही है नहीं भी आ रही है। एकदम्मै ब्रिटेनिका बिस्कुट होती सी लगती है समझ। अगला दिन शनिवार है यही लिये खूब लंबी उड़ान भरी गयी है। अच्छा है। पढ़ लिया। :)
क्या लेख है। क्या भाव हैं।
आलोक भाई, ये प्रत्यक्षाजी वीकएन्डिया पोस्ट ठहरी बल्ल! भाव बेभाव हैं। आप ग्रहण करिये भाव लग जायेंगे। :)
आपने दिया और उसने नहीं लिया....हो ही नहीं सकता...आपके पास रहा हो ना रहा हो....दिया तो ले ही लिया....
मुझे तो पूरी पोस्ट समझ आ रही है....बहुत पसंद भी आई....बिल्कुल वही जो मैं पढ़ना चाहती थी...
शायद डि एन ए इस रेस्पोन्सिबल।
थोड़े महीन अक्षर हैं...जल्दी से ओझल हो जाते हैं....
क्या अनूपजी, रसप्रिया गीत समझ में आता है, रसतिक्त आधुनिकताभरा बोध नहीं? सठिया आप रहे हैं और बूढ़ा हमको बता रहे हैं? व्हाई? पंत के साथ-साथ ल्योतार्द और नंदलाल बोस की संगत में कैंडिंस्की और मुंच का अध्ययन करने से डाक्टर ने मना किया था? कि माध्यमिक के माटसाब ने? बोलिये, बोलिये!
आह कितने दिनों बाद ये शब्द सुने.. विज्ञान विषयों में फेल होते सालों के प्रयोगशालाओं वाले शब्द बीकर, पिपेट, लारवा, प्यूपा, एलगोरिदम. ये शब्द लेबनान और हर्जेगोविना की तरह हैं जो कानों में सीएनएन या बीबीसी से सुनाई तो पड़ते रहते हैं, पर ये समझ में नहीं आता कि माजरा क्या है. दिलचस्प ये कि बीएससी में फेल होने और डीएनए से अज्ञान के बाद भी जिंदगी इंटरेस्टिंग बनी रहती है. सवाल ये है कि जो डीएनए को जान सके, क्या उन्हें अपने निजी, पारिवारिक, दाम्पत्य, मोहल्ला जीवन में कोई बड़ी खुशी मिली. या एक बार फिर नोबेल के विचाराधीनों की लिस्ट से उनका नाम मुल्तवी कर दिया गया. शायद डीएनए की खुशी कहीं कम रह गई खुशी के डीएनए से.
और हाइपोटन्यूज तो तुमने कहा ही नहीं. हाइपोटन्यूज. हाइपोटन्यूज. विज्ञानी अभी तक खोज नहीं पाए कि पाइथागोरस ने उस तिरछी डंडी को हाइपोटन्यूज कैसे, क्यों कह दिया. और उस समय के चर्च और तानाशाह राजा ने इसे गाली या ईशनिंदा या अश्लील क्यों नहीं समझा और छोड़ कैसे दिया पाइथागोरस को.
Yup.. blame it!! Good shot.
संभावनाओं भरी अद्भुत लेखनी ....विज्ञान गप्प या गल्प कुछौ समझै नही आ रहा है .पर लेखनी ने कायल कर दिया .
प्लीज कीप ईट अप ..
बहुत सुंदर. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसे इतना महीन काता गया है कि इस पर इतनी मगजमारी की जाए. "अजगर" महाराज ने इतना खा लिया है कि सब कुछ वमन कर देना चाहते हैं. मुझे लगता है कि रचनात्मकता के लिए इतनी बौद्धिक बरगलास की जरुरत नहीं है.
अजगर की समझ उसकी अपनी समस्या है. जैसे एनोनिमस की अपनी. दूसरों की उल्टियों के स्वयंभू प्रोटीन काउंटर बने साहब/ साहिबा को चाटने में अलग मजा आया होगा, ऐसा आह्लाद मेरे जिक्र वाले कमेंट में साफ पढ़ा जा सकता है. धन्यवाद एनोनिमस और प्रत्याशा यह सब मुमकिन करने के लिए. इसके लिए भी आभारी हूं. आख़िर सब वही करते हैं जो हमारे बस में होता है.
आप सबों का शुक्रिया जिन्होंने मेरी उबड़ खाबड़ गलियों गर्द गुबार को समझा सराहा ।
जहाँ तक बेनाम जी और अजगर की जा का सवाल है , मेरी गलती कि मैंने टिप्पणी पब्लिश की वरना मुझे अपने स्पेस को कोई अखाड़ा बनने देने का शौक नहीं । (पहली की तो दूसरी भी करनी पड़ी )
वाकई समथिंग टू डू विद डीएनए ?
आप दोनों से माफी चाहती हूँ । आप दोनों के ईमेल आई डी उपलब्ध नहीं है इसलिये ये माफीनामा यहाँ पर । मेरे ब्लॉग को कृपया नो मैंसलैंड ट्रीट करें ।
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