चार सौ एक नम्बर बस में भीड़ की रेलम पेल है । औरत बेहाल है । पसीने से तरबतर । दुपट्टा गले की फाँस है । बैग का स्ट्रैप कँधे पर दर्द की पट्टी छोड़ रहा है । है भी इतना भारी । जाने क्या क्या अल्लमगल्लम ठूँस रखा है , मुड़ा तुसा रूमाल , कँघी , बेबी का दिया हुआ छोटा सा बंद हो जाने वाला आईना , क्रोसिन और डिस्पिरिन की दो पट्टी , जेलुसिल का आधा पत्ता जिसमें सिर्फ दो टैबलेट्स हैं , वो भी एक्स्पायरी डेट पार करता हुआ , सूखा हुआ कत्थी रंग का लिपस्टिक जो कभी लगाया नहीं जाता , बिन्दी के दो पत्ते , एक काला गोल दूसरा कत्थी लम्बा , सेफ्टीपिन का एक गुच्छा , तीन चार क्लिप , मिसेज़ भल्ला का लाया चाँदी के ब्रेसलेट का डब्बा जिसके पैसे अगले महीने के तनख्वाह से दी जानी है , दो दिन से बैग में घूमता सेब , टिफिन का छोटा डब्बा , अधखाया पराठा , आलू का भुजिया और आम के अचार का रिसता तेल , छोटी एडरेस वाली डायरी , एक डिजिटल डायरी के बावज़ूद .. अभी तक डिजिटल छोड़ उसी पर हाथ जाता है पहले , एक पतली कविता की किताब , जिसे रखे रखे , बिन पढ़े भी , कोई कोमल भाव अब तक ज़िन्दा है जैसा सुख कभी रूई के फाहे से सहला जाता है , कुछ ज़रूरी कागज़ पत्तर , फोन का बिल , पिछले महीने खरीदे गये सलवार कमीज़ का सुपर टेक्सटाईल का बिल , लौंड्री का रसीद , डॉक्टर का प्रेस्क्रिप्शन , मोबाईल का चार्जर , गुड़िया की मैथ्स की किताब जिसकी बाईंडिंग करानी है , आज भी कहाँ हुई ..... .. माने पूरी की पूरी दुनिया ।
औरत कँधे सिकोड़ती सोचती उफ्फ कितना भारी है बैग । आज शाम ही हल्का करती हूँ । गर्दन और कँधे की मांस पेशियाँ जकड़ गईं बिलकुल । बार बार उसका बैग कोने के सीट पर बैठे आदमी के सर से टकराता है । आदमी शरीफ है । ये झल्ला कर नहीं कहता , मैडम अपना बैग सँभालो । बस हर टकराहट पर एक बार आँख ऊँची कर औरत को देख लेता है । औरत हर बार शर्मिन्दगी और झेंप भरा मुस्कान देते हुये बैग को अलगाने का नाकाम उपक्रम सा करती है । अगर आदमी ने कुछ कह दिया होता तो लड़ पड़ती , ऐसे ही आराम से चलना है तो गाड़ी करो , हुँह । पर औरत भी शरीफ है , चुप रह जाती है । रोज़ का सफर है । 401 नम्बर की बस से इसी वक्त जाना है । दोनों शक्ल से पहचानते हैं एक दूसरे को ।
आदमी सोचता है क्या होगा इस बैग में । कोई रहस्यमय दुनिया , इस औरत का अंतरलोक ? उसकी इच्छा होती है एकबार बैग का ज़िप खोल कर अंदर झाँक ले । औरत सोचती है स्टॉप आने में अभी आधा घँटा और है । घर जाकर क्या सब्ज़ी पकाऊँ , दाल बनाऊँ कि नहीं , गुड़िया को होमवर्क कराना है , कपड़े धोने हैं , किराना दुकान से चायपत्ती लेकर जाना है , ओह कितनी गर्मी है सबसे पहले नहाना है । आदमी अकेला है । उसे घर गृहस्थी की ऐसी बातें नहीं सोचनी । खाना काके दी ढाबा में खाना है ,टीवी देखना है और पसर के सो जाना है । उसे ये औरत आकर्षक लगती है । ढलके बालों में और टेढ़ी बिन्दी में , क्लांत थके चेहरे में जाने क्या क्या सोचती जाती है । आदमी सोचता है आज कुछ ज़्यादा थकी दिखती है । क्या करूँ अपनी सीट दे दूँ । लगभग उठ सा ही जाता है फिर याद आता है , कितना तो काम किया आज । लेज़र की इतनी पोस्टिंग्स की । सारा बैकलॉग निपटाया , बैंक रिकंसीलियेशन किया । हाय पीठ अकड़ गई । आज तो काके के ढाबे में भी जाने की हिम्मत कहाँ । अपनी थकान की सोचकर फिर फैलकर बैठ जाता है । औरत बैग सँभालती सोचती है स्टॉप अब आ ही चला । आज का दिन तमाम हुआ ।
फताड़ू के नबारुण
1 week ago
13 comments:
मैंने पहली बार जाना है कि औरतों के पर्स में इतना कुछ होता है,. कई बार मैंने अपनी दोस्तों के बैग में झाँकने का प्रयास किया ..सब बेकार गया....लेकिन आज आपने मुझे उस दुनिया से भी रूबरू करा दिया...शुक्रिया इसके लिए
http://ashishmaharishi.blogspot.com
अरे इतनी आसानी से मेरा बैग खोल कर सबको दिखा दिया...गलत बात....सब सस्पेंस खत्म कर दिया।
पर आपने मेरा बैग कब देखा?!!
जनता नही की आप कौन है ब्लॉग पढा , जीवंत है, प्रवाह कहीं खंडित नहीं होता पढ़कर कथा का सा आनंद मिलता है
इतना सूक्ष्म ऑब्जर्वेशन!
नायाब रचना!
इतनी बड़ी दुनिया साथ लेकर चलनी पड़ी तो हम पुरुषों का दिमाग नाच जाए। हम तो घर को भी अक्सर काके का ढाबा ही समझते हैं।
हमें तो लगा मानो बैग नहीं अलमारी का सामान गिनाया जा रहा है.
बहुत सजीव चित्रण किया है.
आप हर बार चकित कर देती हैं अपनी नज़र से दुनिया दिखाकर.. बहुत खूब..
जमाना हो गया। यह जिन्दगी जिये। स्कूल की उस सांवली लड़की के लिये कई बार सीट छोड़ी थी। मेरा ब्रीफ केस वह बस्ते के ऊपर रख लेती थी। बस - न नाम मैं पूछ पाया न उसने बताया। अध्याय समाप्त। दिल्ली की बसों के अध्याय भी ब्लॉग पोस्ट की तरह होते हैं - छोटे और डिसज्वाइण्टेड।
प्रत्यक्षा जी , आपका लेखन सदा से अच्छा लगा परन्तु आज के लेख को पढ़कर तो कहने को कुछ शब्द ही नहीं मिल रहे हैं ।
घुघूती बासूती
वाकई महिलाओं के पर्स में बहुत कुछ भरा होता है, ऐसा-२ सामान कि पुरुष लोग देख लें तो अपना सिर पीट लें!! ;) इसलिए इस बारे में न जाने तो ही बढ़िया है इस मामले में, यहाँ तो अपन कहेंगे ignorance is a bliss!! :D
कॉस्मेटिक रिवोल्यूशन के ग्लोबलाइज्ड वक्त के मादा होलडॉल में जो ढूंढने निकलते हैं, वही नहीं मिलता. वह एक अंधा कुंआ है. और दिल्ली की बसें भी कम दिलचस्प नहीं. अगर हिसाब करने बैठे तो अजगर की जिंदगी का कम से कम एक साल तो गुजरा है दिल्ली की बसों में.. उनकी अपनी गौरवगाथाएं हैं और अपने बदबूदार वाक्ये..आस्तीन के अजगर को भी कुछ लिखना है उन पर किसी दिन जरूर
इत्ता सामान सच में। आदमी भी शरीफ़ औरत भी शरीफ़। विरल संयोग। कामकाजी औरत की दास्तान! अच्छा है। :)
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