2/08/2007

कुछ दिन पहले , बेतरतीब यादें

अस्पताल में बैठे थे । पापा सत्त्ताईस जनवरी को कमरे में गिर गये । मेजर सर्जरी । टोटल हिप रिप्लेसमेंट । मैं बीच में घर आई थी कि अस्पताल से संतोष का फोन आया ,कमलेश्वर नहीं रहे , टीवी खोलो । ऐसे ही बदहवासी का आलम था । कौन अस्पताल , कौन सर्जन , सर्जरी जरूरी या फिर सिर्फ अस्पताल का चोंचला पैसे कमाने का । क्या तय करें क्या न करें । ऐसी भागदौड और पापा की तकलीफ । दाढी से बढा चेहरा ,कमज़ोर सा पर हिम्मत गज़ब की । लगातार हँसी मज़ाक करते रहे । पूछने पर भी कभी दर्द या तकलीफ की शिकायत नहीं की ।

अब अचानक कमलेश्वर जी की मौत की खबर । अजीब से बुरे संयोग का भास हुआ । अभी महीने भर पहले उनसे बात हुई थी । आलोक भाई घर आये थे । इन्हें एक पत्रिका ‘परिकथा’ दिखाई थी । एकाध महीने पहले उसके पहले छ: अंक डाक से आये थे । कमलेश्वर जी शुरु में उस पत्रिका से जुडे थे । आलोक भाई ने पत्रिका पलटी फिर तुरत उनको फोन लगाया । बात की और बातों बातों में मेरा ज़िक्र किया , मेरी कहानियों के बारे में बताया फिर अचक्के फोन मुझे पकडा दिया । मैं अभिभूत । कमलेश्वर जी से क्या बात करूँ । उनकी किताबें , उनकी कहानियाँ पढते रहे ,उन्हें टीवी पर देखते रहे । अब अचानक क्या बात करूँ । कुछ सूझा ही नहीं । उन्होंने कहा, अपनी कहानियाँ मुझे भेजो ।

दिन बीत गये । इतने बडे साहित्यकार , मेरी कहानी पढने को माँगें । लगा , उन्होंने औपचारिकतावश कहा होगा । बडा संकोच हुआ । क्या भेजें । बस ऐसे ही फिर नहीं भेजा । छब्बीस जनवरी को आलोक भाई का फोन आया । छूटते ही पूछा , तुमने कमलेशवर को अपनी कहानियाँ क्यों नहीं भेजी । मैं संकोच में । क्या जवाब देती । चुप रह गई । उन्होंने बताया कि ‘नया ज्ञानोदय’ का फरवरी अंक कमलेशवर पर है । ऐडवांस कॉपी मिलने पर उन्होंने कमलेश्वर को फोन किया था । उन्होंने कहा कि प्रत्यक्षा ने अपनी कहानी नहीं भेजी ।
हम रास्ते में थे । मैंने कहा ,मैं सोमवार को उन्हें कहानियाँ भेजती हूँ । उस दिन बहुत अच्छा लगता रहा । इतने बडे साहित्यकार । मुझे याद रखा । मेरे लिये बहुत बडी बात थी । बहुत बहुत बडी बात । आलोक भाई ने ही बताया कि जब वे ‘सारिका’ के सम्पादक थे तब उन्होंने नये लेखकों को खूब प्रोत्साहित किया ।

अगले दिन पापा कमरे में गिर गये । अस्पताल का चक्कर शुरु । और अब कमलेश्वर जी के निधन की खबर । मन बहुत खराब हो गया । बार बार उनकी टनक भरी आवाज़ जो फोन पर सुनी थी , याद आती रही ।

अस्पताल में ही थे कि ज्ञानोदय का फरवरी अंक घर पर आया । अस्पताल और घर के चक्कर के बीच कभी उसे उठा लाई कि कमरे में पापा की देखभाल करते उलट पलट लूँगी । पर मौका नहीं मिला । अब पापा बेहतर हैं । घर आ गये हैं पर ठीक होने में लंबा वक्त लगेगा । पर उनमें गज़ब की ‘विलपॉवर ‘ है । चार घँटे की सर्जरी के बाद जब उन्हें कमरे में लाया जा रहा था तब मैंने कहा , पापा ,मुस्कुराईये ,सब ठीक से हो गया । उन्होंने तुरत जवाब दिया , अच्छा , तब रसगुल्ला खिलाओ । डॉक्टर हँस पडा , कहा ,अब तो इन्हें रसगुल्ला खिलाना ही पडेगा , थोडा सा खिला दें ।

अब घर में हैं । अगले हफ्ते से फिज़ियोथेरापी । कल ज्ञानोदय का फरवरी अंक फुरसत से पढा । कमलेश्वर जी पर लेख पढे । राजा निरबंसिया खोजनी है , पढनी है ।

15 comments:

Anonymous said...

बहुत दिन बाद पोस्ट पढ़ना अच्छा लगा!अभिव्यक्ति का १ फरवरी का अंक कमलेश्वर जी पर केंद्रित है। उन्होंने कहानी मांगी आप नहीं भेज पायीं अब संपाद्कों को भेजती रहें। आपके पापा के शीध्र स्वास्थ्य लाभ के लिये शुभकामनायें! लिखत-पढ़त जारी रखें!

Anonymous said...

प्रत्यक्षाजी,

एक लम्बे अंतराल के बाद आपको पढ़ना अच्छा लगा।

आप इस प्रकार की मुश्किल परिस्थितियों से गुजर रही हैं, इसका तनिक भी आभास नहीं था। कमलेश्वरजी के चले जाने की पीड़ा सभी साहित्य-प्रेमियों को है।

आपके पापा का स्वास्थय शीघ्र ठीक हो और आप नियमित लिखने लगे, ऐसी प्रभू से प्रार्थना है।

मसिजीवी said...

काफी समय के बाद दिखीं आप, कहॉं व्‍यस्‍त थीं यह तो आपने बता ही दिया। अपने पापा को हमारी ओर से भी शुभाकांक्षाएं दें।

Avinash Das said...

मैंने पहली बार पढ़ा आपको। जाना भी पहली बार। आपकी भाषा में एक सहज किस्‍म की मार्मिकता है। लेकिन एक बात फिर भी कहनी है। हिंदी में आत्‍मकथाओं वाली भाषा का संसार ज्‍यादातर आत्‍ममुग्‍धता का शिकार है। घर-परिवार-दोस्‍त से निकल कर बाहरी दुनिया का संत्रास, कुछ न कर पाने की हमारी बेचारगी, हमारे समझौते, हमारी बेवफाई को कह सकने का साहस ही हमें ईमानदार लेखन की राह दिखाएगा। तब वो बचेगा भी सदियों तक। नहीं तो हर दौर में सैकड़ों लेखक आये-गये, कोई पूछने वाला नहीं हुआ।

Divine India said...

लगता है आपने काफी समय बाद लिखा है यह आत्म आख्यान!दु:ख हुआ आप काफी परेशान रही चलिए खुदा की महर से आपके पापा अब ठीक हैं और बहुत अच्छे होगें…
रही बात लेखनी की तो पहले बाले की तरह स्पंदित नहीं कर सका…आपने अपना आत्मवाद कहा तो ठीक है पर एकरुपता थोड़ी और चाहिए थी…लेकिन फिर भी सरल और सहज था…धन्यवाद

Manish Kumar said...

जानकर खुशी हुई की आपके पिताजी अब स्वस्थ हो रहे हैं ।

राकेश खंडेलवाल said...

अब जो कलम उठी है इसको, रुकने न देना क्षण भर भी
सुख दुख और व्यस्तता सब ही जीवल के अविचल हिस्से हैं
चाचाजी हों स्वस्थ और दें नई प्रेराणा पल पल तुमको
शब्द उन्हें दो अभी लेखनी मेम जो छुपे हुए किस्से हैं

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

हमेशा ही आपके लिखने की फ़ैन रही हूँ। ये पोस्ट भी बहुत ही सहज भाषा और में लिखा गया है जो मन को छू लेता है। आपके पापा जल्द ठीक हो जायें इन्हीं दुआओं के साथ

--मानोशी

Anonymous said...

आशा है आपके पापा अब बेहतर महसूस कर रहे होंगे, उनके स्वास्थय के लिये शुभकामनायें। चलिये अब आप फिर सी लिखने लगेंगी

अनुराग श्रीवास्तव said...

आपके पिता जी शीघ्र स्वस्थ हों और उनके साथ आप सब भी ढ़ेर सारे रसगुल्ले खायें.
शुभकामनायें.

Upasthit said...

Apake pita ji ke svasthya ke liye shubhkamanayen.... Raja nirbansiya na mili ho to...abhivyakti par ka link de raha hun...shyad kaam aa sake.
http://www.abhivyakti-hindi.org/gauravgatha/2004/raja_nirbansia/raja_nirbansia1.htm

Pratyaksha said...

शुक्रिया , सबों का
शुभ कामनायें बहुत काम आती हैं ।
राजा निरबंसिया के लिंक के लिये , एक और शुक्रिया ,उपस्थित जी

अनूप भार्गव said...

काफ़ी दिनों से तुम्हारे ब्लौग पर सूनापन देख कर कुछ चिन्ता सी होने लगी थी ।
पिता जी के स्वास्थ्य की शुभ कामनाओं के साथ ..

Anonymous said...

जब भी सम्मेलनो में मुलाकात हुई उन (कमलेश्वर नहीं) से, कई बार आपकी बातें सुनी हैं किसी के मूँह से। कभी आप को पढने का विचार नहीं किया।

आज पहली बार गलती से यहाँ आगया था, और शायद जो कुछ था वह सब पढ़ दल है। यह लेख तो बहुत ही संवेदनशील है। हर बात अच्छी लगी। हो सकता है, बहुत सी बाते मेरी अपनी जिन्दगी से मिलती हों शायद इसलिये भी।

"....पापा मुस्कुराईये.. सब ठीक हुआ..." अच्छा लगा ये ! आप के पापा जितने हिम्मत वाले हैं उतनी आप भी लगती हैं।

Pratyaksha said...

किनसे ज़िक्र हुआ आपका ? जिज्ञासा हो रही है । आपकी टिप्पणियाँ पढकर अच्छा लगा । उम्मीद है ,आगे आप अज्ञात नहीं रहेंगे ।