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सुबह की शुरुआत
अब फूलों से नहीं होती
वो मौसम तो बीत गया
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पुरानी गलियों में
घूमते फिरते
मैं मार्कर लगाती हूँ
दोबारा फिर आने के लिये
बशर्ते रंग
धूमिल न पड जायें
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ऐसा क्यों है
कि
अब तुम
सिर्फ तस्वीरों में
मुस्कुराते दिखते हो
सुनो
जिंदगी
इतनी तल्ख भी नहीं
कि मुस्कुराना ही
छोड दो
इस कविता को यहाँ पोस्ट करते हुये मलिका पुखराज़ की गायी एक गज़ल बडी शिद्दत से याद आई
मुझे याद करने वालों
ज़रा मेरे पास आओ
गये मौसमों की बातें
मुझे आ कर सुनाओ
मलिका पुखराज़ की आवाज़ जैसे गाढा शहद, एक बेफिक्री , एक अलमस्ती, एक अजीब सा दीवानापन. जहाँ सोग बून्द बून्द टपकती हो , फिर भी जोश का आलम हो जैसे शराब में डूबी हुई बेपरवाह मस्ती का अनाम झोंका . लफ्ज़ क्या क्या बयाँ करे.
कविता की दुनिया से संगीत का रास्ता.. ... .. आप भी चलें
6 comments:
धूप में ठंडी छाँव के झोंके की तरह आपके लेख, कवितायें हमेशा सुखद अहसास जगातीं हैं।
तारीफ का जोखिम उठाया है तो अंजाम भी भुगतने को तैयार थे ही। फिर तारीफ कर रहे हैं कविताओं की
।लेकिन ये कहना है कि पुराना स्टाक निकालने के साथ वो काम भी करें जिसके लिये तारीफ की गयी थी। त्रिवेणी वाले अंदाज में कुछ हाथ साफ करें।
"पुरानी गलियों में
घूमते फिरते
मैं मार्कर लगाती हूँ"
तो फ़िर अली बाबा और उसका ख़ज़ाना मिला क्या ?
:-))
गागर में सागर ।
आपकी कविताएँ मुझे सम्मोहित कर लेती हैं, पढ़कर बहुत देर तक अभिव्यक्त भाव में डूब जाती हूँ। बहुत सुंदर।
प्रेमलता पांडे
शुक्रिया आपसबों का , हौसलाआफज़ाई करते रहने का .
सुनील जी , हाँ मिला न खज़ाना. सब महफूज़ है अब तक :-)
अनूप जी तैयार रहें . आगे पोस्ट आने वाला है.
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