3/20/2006

अब मेरी बारी है इन्द्रधनुष रचने की

इन्द्रधनुष कभी खो जाता है , कभी मुट्ठी में बंद हो जाता है. हम तो भई हैरान हैं, इन्द्रधनुष न हुआ मुन्नू का खिलौना हुआ जब जी चाहे पकड लो जब जी न चाहे खो दो.

अब देखिये इलजाम लगता है हम पर कि ऐसी कवितायें लिखते हैं जिसे कोई समझता नहीं . अरे भाई, कविताई का यही तो जन्मसिद्ध अधिकार है. जब सब समझ जायें तो फिर कविता क्या हुई. पर यहाँ तो भाई लोगों के लेख में भी ऐसी बातें घुसपैठियों की तरह सेंध मार रही है. अब बताईये इन्द्र्धनुष भी कभी किसी ने मुट्ठी में बन्द किया है कभी जो अब बन्द होगा. चलिये रच्नात्मक स्वतंत्रता उनका भी अधिकार है. हम कौन कि उँगली उठायें.

बाकि ये कि फव्वारा ज़रा मरियल सा लगा.(पार्क भी रेगिस्तानी सा ही है , कुछ हरियाली रंगी जाये) . बस एक पानी की धार, वो भी सपाट गिरती हुई. फव्वारा न हुआ फव्वारे के नाम पर कलंक हुआ. फिर ख्याल आया कि इसे तो मेकैनिकल इंजीनियर ने बनाया है. सारी तस्वीर तुरत साफ हो गई.

अब इन्द्रधनुष की इतनी बात हो गई, हमारे पास भी एक है .सोचा आप सबों को दिखा ही दें . हमने मानसी और शुकुल जी से भी बाज़ी मार ली है. आखिर रच्नात्मक स्वतंत्रता हमारा भी पूर्व जन्म से ही अधिकार रहा है, आगे भी रहेगा ( वैसे ये सोचा कि कविताओं को लिखने के बाद छोटे अक्षरों में , ' कविता पढना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है ' भी लिखना शुरु कर दें ताकि सुधी पाठक गण अपने रिस्क इंश्योरेंस कराने के बाद ही आँखों से पट्टी हटायें.

कविता पढने का सही तरीका ..........

- गहरी साँस लें ( चाहें तो अधिक एकाग्रता के लिये रामदेव बाबा वाली पद्धति , अरे वही अनुलोम विलोम वाली , अपना सकते हैं )

- आँखों को दो से तीन बार मिचमिचायें ( आगे अक्षर साफ दिखेंगे, वैसे सुविधा के लिये फॉंट बडा कर दिया है )

- उँगलियों को खोल बन्द कीजिये ताकि पढते ही उँगलियाँ तैनात मिलें तारीफ की टिप्पणी टंकन के लिये

अगर अब भी तैयार नहीं तो जाईये छोडिये, अगली बार पढियेगा, पर जो तैयार हैं ,उनके लिये पेशे खिदमत है मेरा इन्द्रधनुष


बरसात बरसात

बारिश की पहली बून्दों को
रोका
पहले आँखों पर
फिर गालों पर
उसके बाद
होठों पर
फिर घूँट भर
पी लिया
अब मेरे अंदर
इन्द्रधनुष खिलने लगा है


मैंने कहा
बरसो बरसो
खूब बरसो
पीली सरसों की खेत
और आम की अमराई
में भी
बरसो बरसो
खूब बरसो


काली कोयल
और रात भी काली
उसकी टेर
सजाई है मैंने
बालों पर
काले दुपट्टे पर टंके
सलमा सितारे
कभी स्याह नदी में
मुट्ठी भर जुगनू
बिखेरे हैं तुमने


आगे कुछ मत कहना
कोयल बोलती है न
सरसों पीली ही है अब भी
है न
आगे कुछ मत कहना


बरसात में गर्म चाय
शीशे के नन्हे ग्लास में
काली मिर्च और काली चाय
और काली ज़ुबान भी
क्यों कह दिया
बरसात अब थम भी जा


अगर रूठ भी जाऊँ
तो मनाओगे तुम ही
बरसात की पहली बून्द
ओ पहली बून्दों
लौट आओ
बरसो बरसो फिर
कि मेरे अंदर
खिलने लगे फिर इन्द्रधनुष


बाँध लिया है
टखनों पर काला धागा
नज़र न लगे
कितना बरसूँगी
बरसूँगी बरसूँगी
बार बार
अब जब तुम कहोगे
थम जा
तो हँस कर थम जाऊँगी
इन्द्रधनुष तो खिल चुका
गीली मिटटी में
फसल की तैयारी
हो चुकी
कोंपल तो फूट पडी
देखा न तुमने

6 comments:

उन्मुक्त said...

इन्द्रधनुष सुन्दर है

Anonymous said...

मेरे २ पैसे

बारिश की पहली बून्दों को
रोका
किसान ने
अपने खेतों पर
सोचा
कल अगर फसल पके
तो शायद
मेरा भी
इन्द्रधनुष खिलने लगे

क्‍या बात है हर कोई इंद्रधनुष के पीछे पड़ा हुआ है जेसिका लाल की घटना से मीसिंग रिवाल्‍वर की तरह लापता है क्‍या।

Anonymous said...

कविता कैसी है ये तो कवि गैंग बताए.

बाकी लेखन का उत्साह बढाने के लिए 'हम हूं ना' फ़िर चाहे कविता मे कंफ़्यूजन जान बूझ कर बनाएं और आपको बिलावजह परेशान करें! चलो अब मस्ती टाईम - आज का कंफ़्यूजन ई है की -

मैंने कहा
बरसो बरसो
खूब बरसो
पीली सरसों की खेत
और आम की अमराई
में भी
बरसो बरसो
खूब बरसो

तो आपके कहने पर अगर वो बरसों तक बरसते रहे तो क्या बाढ नही जा जाएगी? आप उनको बरसो(सालों) बरसो(बरसात करो) क्यों कह रहे हो! देखा ई ससुरी कविता कितनी कंफ़्यूजिंग चीज है! :)

अनूप शुक्ल said...

अरे भाई जब लोग दुनिया मुट्ठी में कर लेते हैं तो हम इन्द्रधनुष काहे नहीं कर सकते!बताया भी कि जब धूप निकली हो तब हम देख सकते हैं इसे लिहाजा मुट्ठी में ही हुआ न!जहां तक फव्वारे का मरियल दिखना है तो जानकारी के लिये बतायें कि यह बहुत शरारत कर रहा था। सारा पानी हवा के इशारे पर उछालकर बाहर फेंक रहा था। लिहाजा इसके पर कतर दिये गये। नयी व्यवस्था की जा रही जिसमें परिधि पर भी फव्वारे लगाये जायेंगे।
मैदान भी बनेगा। समय लगता है। आखिर यह कोई कविता तो है नहीं कि इधर ज्वार उठा उधर उतार दिया। थोड़ा सबर किया जाय। स्वामीजी यह समझने की कोशिश करो कि बार बार बरसने के लिये कहने से बादल से बाढ़ नही आयेगी। कल्पना करो कि कोई
जंग लगा नट-बोल्ट खोला जा रहा है। खुल नहीं रहा है तो जोर लगाने पर कहा जाता है-खुल,खुल,खुल।कुछ वैसा की बादल से कहा जा रहा है-बरस,बरस,बरस।बाकी कविताओं पर हानिकारक लिखने की बात है तो अपने उत्पाद के बारे में बताने
का आपका हक है लेकिन कविताओं को सिगरेट बनने से रोक सकें तो बेहतर ही होगा।कविता के बारे में कुछ कैसे कहें हमे ध्यान आ रही कविता की पंक्ति-आगे कुछ मत कहना।

शालिनी नारंग said...

अच्छा किया प्रत्यक्षा जी जो आपने कविता के साथ उसे पढ़ने का तरीका भी बता दिया। कविता तो अच्छी है ही पर तरीका भी कम बढ़िया नहीं है। अब मैं भी लोगों को अपनी कविताएँ पढ़वाने से पहले यह तरीका पढ़वा दिया करूँगी।

विजेंद्र एस विज said...

बडे सुन्दर द्श्य उकेरा है आपने...मन कर रहा है क़ैंनवस पर उतार दू...