2/20/2006

आधा गाँव के पूरे बाशिंदे

इधर एक किताब पढी "आधा गाँव " . डा. राही मासूम रज़ा की. अनूप शुक्ला जी ने जब ईनाम का ऐलान किया तब तीन किताबों में से यही एक किताब मेरी पढी हुई नहीं थी. संयोग से कार्यालय के राजभाषा पुस्तकालय में पिछले सप्ताह "र" खाने के पास पहुँचते ही पहली किताब जो दिखी वह आधा गाँव ही थी. बस ले आये और तुरत पढ डाला. गँगौली के वातावरण में जैसे रम ही गये और फुन्नन मियाँ, फुस्सु, तन्नु, हम्माद, सैफुनिया, सईदा , कुलसुम..पढते गये और साथ साथ कुछ और लोगों को भी याद करते गये जो आधा गाँव के बाशिंदे नहीं हैं पर जिनकी याद कई बार खूब शिद्दत से आती है.

शमी बाबू और नाज़िर बाबा , पिता के उन पुराने मित्रों में से थे जो मित्रता की दूरी लांघ कर परिवार के दायरे में आ गये थे. पिता से उनका परिचय तब का था जब हमारी पैदाइश भी नहीं हुई थी.शमी बाबू, गया के पास बेला के रहने वाले थे. तेल का मिल था और भी कई काम. वहाँ के प्रतिष्ठ्त लोगों में से थे, खाँटी सैयद. नाज़िर बाबा ,पिता के अधीन काम करते. बडे दिनों बाद पता चला कि नाज़िर उनका नाम नहीं था.उनका नाम था सईद अखतर . नाज़िर तो एक पोस्ट होता था और पिता के हरेक कार्य स्थल पर एक नाज़िर बाबू जरूर रहते पर नाज़िर बाबा तो एक ही थे.
पक्के नमाज़ी थे. हम जब छोटे थे तो बडी हैरत से अचानक बात करते करते उनका किसी कोने में दरी बिछा कर नमाज़ पढना देखा करते . शमी बाबू उनके उलट थे. कभी नमाज़ नहीं पढते देखा उनको .

कोई भी मौका रहा हो,खुशी का या गम का पापा सबसे पहले इनको याद करते और सबसे पहले पहुँचने वालों में से भी यही दोनों रहते.

नाज़िर बाबा, किसी शादी ब्याह पर आते तो भंडार की चाभी इनको सुपुर्द कर दी जाती. पापा माँ निश्चिंत हो जाते उसके बाद . पापा हमेशा कहा करते कि उन जैसा इंतज़ाम करने वाला उन्हों ने नहीं देखा . मेरी शादी के इंतज़ामात भी उन्होंने ही किये .
मुझे याद आता है कि भाई की शादी के बाद हम सब लौट कर पस्तहाल पडे थे . उन्हों ने एकाध बार आकर हमें टोका कि दुल्हन के आने का वक्त हो गया है , ज़रा कमरा उनका सजा दें.
फिर थोडी देर बाद सभी औरतों को अपने में मशगूल देखकर खूब नाराज़ हुये.खुद गये कमरा सजाने . फिर हमलोगों के बडे मनुहार के बाद माने थे .

पापा जब बीमार पडे थे तब शमी बाबू और नाज़िर बाबा दोनों थे साथ साथ . तब मेरी बडी बहन की शादी की फिक्र होती पापा को. दोनों हमेशा पापा को कहते , हम हैं .जहाँ जाना हो हमें बताइये .

आज दोनों इस दुनिया में नहीं हैं . ऐसी आत्मीयता अब शायद ही देखने को मिले . पुराने दिनों के साथ ऐसे रिश्ते भी बीत गये .पर हमारे मन के पूरे गाँव के ये पूरे पूरे अपने बाशिंदे हैं

7 comments:

Anonymous said...

ye yaden kisi dilo janam ke chale jaane ke baad aati hai.....yaaden.

Ab mujhe lagta hai kahin bhi pehle jaise aatmiyta nahi rahi ya dheere dheere kam ho rahi hai

Anonymous said...

यानी कि आपने आदिविद्रोही पढ़ रखी है जिसे मैं अभी पढ़ रहा हूँ? - अनूप भाई के इनाम की बदौलत.

अपने अनुभव बताएँ.

किताब खतम होने को है. तब मैं अपने अनुभव लिखूंगा उस पर.

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

http://manoshichatterjee.blogspot.com/2006/02/blog-post_20.html

अनूप शुक्ल said...

लेख बढ़िया लिखा है। हम तो समझे कि आधा गांव के बारे में कुछ लिखा जा रहा है। बाद में
देखा कि प्रत्यक्षा जी ने अपने गांव के बारे में लिखा है।यह कहना ठीक नहीं है कि अब वैसे लोग नहीं होते। अब भी लोग होते हैं लेकिन हमेशा से ऐसे लोग कम ही रहे हैं। यह देखकर और खुशी हुई कि प्रत्यक्षा अब लिंक देना सीख गयीं हैं। बकिया का ज्ञान भी जल्द ही देखने को मिले शायद।

मसिजीवी said...

तीनों किताबें खूबसूरत हैं। रंग अलग अलग हैं पर हैं सभी दमदार। पढ़ी किताबों पर ब्‍लॉग जगत में चर्चा अच्‍छी शुरुआत है। लिखने वालें अपनी समीक्षाएं विकीपीडिया पर भी डाल दें तो हिंदी का भला हो।

Pratyaksha said...

मैं खूब पढती हूँ. हर दिन. बिना पढे रहा नहीं जाता.
मसिजीवी जी , आपने सही कहा ,अच्छी किताबों की चर्चा करनी चाहिये. पढने जितना ही मज़ा देता है.

अनूप जी लिंक देना तो आपसे ही सीखा. गुरुदक्षिणा में अगला पोस्ट लिंकमय रहेगा :-)

Vj said...

Nice ..really nice