मैंने रखा है हर उस लम्हे को भर कर इत्र की शीशी में अब जब जी घबराता है रुई के फाहे पर चुनकर किसी लम्हे को एक स्पर्श मेरी धडकती नब्ज़ पर मेरी दुनिया फिर महक जाती है
कविता जैसा ये जो लिखा है वह है तो बड़ा रेशमी टाइप लेकिन ढक्कन की शीशी ठीक से बंद न होने पूरा का पूरा इत्र उड़ सकता है। फिर और जी घबरायेगा।फिर कहना पड़ेगा-सूंघो, सर उठाके।
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कविता जैसा ये जो लिखा है वह है तो बड़ा रेशमी टाइप लेकिन ढक्कन की शीशी ठीक से बंद न होने पूरा का पूरा इत्र उड़ सकता है। फिर और जी घबरायेगा।फिर कहना पड़ेगा-सूंघो, सर उठाके।
बहुत ही सुन्दर, कम शब्दों में गहरी बात, शब्दों की जादूगरी!
प्रत्यक्षा,
बिल्कुल मौलिक, बहुत सुन्दर कल्पना है। बधाई।
लक्ष्मीनारायण
इत्र हवा में उड़ा, रुई के फ़ाहे बन बादल छितराये
याद तुम्हारी एक रही है लेकिन मन में प्रीत जगाये
राकेश
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